श्री तारतम वाणी - एक परिचय
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तारतम वाणी क्या है?
अक्षरातीत परब्रह्म, उनके अखण्ड धाम, व लीला का ज्ञान देने वाली यह ब्रह्मवाणी है । साक्षात् अक्षरातीत श्री प्राणनाथ जी के मुखारविन्द से अवतरित होने के कारण इसे श्री मुख वाणी या स्वसं वेद कहते हैं । अन्धकार को चीरकर अखण्ड ज्ञान का प्रकाश प्रस्फुटित करने वाली इस विद्या को तारतम (तारतम्य) वाणी भी कहते हैं । इसका एक नाम श्री क़ुल्ज़ुम स्वरूप भी है, जिसे बोलचाल की भाषा में श्री कुलजम स्वरूप कहते हैं ।
श्री कुलजम स्वरूप का ज्ञान इस संसार में विद्यमान अपौरुषेय ग्रन्थ (वेदादि), उनके व्याख्या ग्रन्थ, तथा महापुरुषों की वाणी से भिन्न है । श्रेष्ठतम ग्रन्थ भी अधिक से अधिक ज़िबरील फरिश्ते या अक्षर ब्रह्म की कृपा से बोले गए हैं, जबकि यह वाणी स्वयं युगल स्वरूप अक्षरातीत द्वारा कही गई है । इसमें कहीं भी मानवीय बुद्धि (स्वाप्निक बुद्धि) का प्रवेश नहीं है ।
वाणी मेरे पिऊ की , न्यारी जो संसार । निराकार के पार थे , तिन पार के भी पार ।। (प्रकास हि. ३७/३)
श्री इन्द्रावती जी की आत्मा स्वयं इस वाणी का परिचय देते हुए कहती हैं कि यह वाणी मेरे प्रियतम श्री प्राणनाथ जी ने कही है जो इस संसार से परे का ज्ञान देती है । इस वाणी में निहित ज्ञान निराकार से परे अखण्ड योगमाया, उससे परे अक्षर ब्रह्म, तथा उनसे भी परे अक्षरातीत श्री प्राणनाथ जी का ज्ञान देती है ।
सम्वत् १७१२ में युगल स्वरूप (अक्षरातीत श्री राज जी व उनकी आनन्द अंग श्री श्यामा जी) श्री देवचन्द्र जी के तन को त्यागकर श्री मिहिरराज (आत्मा श्री इन्द्रावती जी) के तन में आकर विराजमान हो गए । तत्पश्चात् ब्रह्मवाणी श्री कुलजम स्वरूप का अवतरण पूर्णब्रह्म अक्षरातीत के श्रीमुख से प्रारम्भ हो गया, जिसे साथ बैठे अन्य सुन्दरसाथ लिखते गए ।
श्री मुख वाणी का अवतरण काल सम्वत् १७१२ से १७५१ तक है । सम्वत् १७१२ से जो वाणी गुप्त रूप से उतरनी प्रारम्भ हुई, उसमें 'मिहिरराज' की छाप है । सम्वत् १७१५ से हब्से में प्रत्यक्ष रूप से ब्रह्मवाणी का अवतरण प्रारम्भ हुआ, जिसमें 'इन्द्रावती' की छाप है । सम्वत् १७३२ से 'महामति' के नाम से ब्रह्मवाणी उतरनी प्रारम्भ हो गयी ।
श्री कुलजम स्वरूप में कुल १४ ग्रन्थ, ५२७ प्रकरण, व १८७५८ चौपाइयाँ हैं । इस वाणी के प्रारम्भिक चार ग्रन्थों- रास, प्रकास, खटरूती, व कलस में हिन्दू पक्ष का ज्ञान है । सनंध, खुलासा, मारफत सागर, व कयामतनामा में कतेब पक्ष का ज्ञान है तथा खिलवत, परिकरमा, सागर, सिनगार, व सिंधी में परमधाम का ज्ञान है । किरन्तन ग्रन्थ में सभी विषयों का समिश्रण है ।
बिना हिसाबें बोलियां , मिने सकल जहान । सबको सुगम जान के , कहूंगी हिन्दुस्तान ।। (सनंध १/१५)
श्री महामति जी कहती हैं कि इस संसार में बहुत सारी बोलियां (भाषाएं) हैं । परन्तु इनमें हिन्दुस्तानी भाषा को सबसे सरल जानकर इस भाषा में ही अपनी वाणी कहूंगी । यह ज्ञान हिन्दुस्तानी भाषा में ही अवतरित हुआ, जिससे अभिप्राय भारत में बोली जाने वाली प्रादेशिक भाषाओं से है ।
अक्षरातीत श्री राज जी के हृदय में ज्ञान के अनन्त सागर हैं । उनकी एक बूँद महामति जी के धाम-हृदय में आयी, जो सागर का स्वरूप बन गई । ज्ञान के सागर के रूप में यह तारतम वाणी है जो मारिफ़त के ज्ञान का सूर्य है । यह ब्रह्मवाणी सबके हृदय में ब्रह्मज्ञान का उजाला करती है । -
इस ज्ञान की क्या विशेषता है?
उपनिषद् में कहा गया है कि पराविद्या के द्वारा ही अक्षर ब्रह्म को जाना जाता है (मु. उ. १/५) । क़ुरआन में भी लिखा है कि इल्म-ए-लद्दुन्नी (श्री कुलजम स्वरूप) के आये बिना अर्श-ए-अज़ीम (परमधाम) और अल्लाह तआला (अक्षरातीत परब्रह्म) के राज़ (रहस्य) कोई नहीं बता सकता ।
किन एक बूंद न पाइया , रसना भी वचन । ब्रह्माण्ड धनियों देखिया , जो कहावे त्रैगुन ।। (प्र. हि. ३१/१०१)
तीनों लोक (पृथ्वी, स्वर्ग, वैकुण्ठ) के स्वामी ब्रह्मा, विष्णु, व शिव तथा तीनों गुण (सत्व, रज, तम) से निर्मित इस ब्रह्माण्ड में किसी ने भी अखण्ड परमधाम के ज्ञान के सागर की एक बूंद भी नहीं पाई । यह सब तो अक्षर ब्रह्म को भी नहीं जान सके ।
या वानी के कारने , कई करें तपसन । या वानी के कारने , कई पीवें अगिन ।। (प्र. हि. ३१/९५)
तारतम वाणी में निहित ज्ञान को पाने के लिए कइयों ने सात कल्पांत तक तपस्या की । कइयों ने अग्निपान किया । बहुत लोगों ने इस ज्ञान के लिए बड़ी-बड़ी साधनाएँ की, कुछ ने उपवास के कठोर नियम लिए, कइयों ने पहाड़ों की बर्फ में तप करते हुए अपना शरीर गला लिया, और कुछ ने इस कठिन लक्ष्य के लिए अपनी देह का दमन कर दिया।
आज लों इन इण्ड में , कबहूं काहू सुनी न कान । कई हुए इण्ड कई होवहीं , पर काहू न बोए पहिचान ।। (बीतक ७१/४)
अनादि काल से यह माया का नश्वर ब्रह्माण्ड बनता चला आ रहा है तथा अनन्त काल तक इसी प्रकार बनता-मिटता रहेगा । प्रत्येक सृष्टि में खरब-शंख से भी अधिक संख्या में प्राणी जन्म-मरण के इस चक्र (खेल) में उलझे रहते हैं, तत्पश्चात् प्रलय में समाप्त हो जाते हैं । परन्तु आज से पहले न तो अक्षर ब्रह्म को कोई जान पाया था, न ही आगे आने वाले ब्रह्माण्डों में कभी कोई जान सकेगा । ब्रह्मवाणी के अवतरण का सौभाग्य तो मात्र इसी ब्रह्माण्ड को प्राप्त हुआ है ।
श्री प्राणनाथ जी की कृपा से ही यह अखण्ड परमधाम का ज्ञान इस ब्रह्माण्ड में अवतरित हुआ । जिस ज्ञान को ढूंढते हुए ब्रह्माण्ड के स्वामी योगमाया (सबलिक ब्रह्म) से परे नहीं जा सके, श्री जी ने ऐसे अलौकिक ज्ञान को संसार के साधारण जीवों को भी उपलब्ध करा दिया है । इस वाणी की कृपा से ही संसार को अक्षरातीत परब्रह्म के धाम, स्वरूप, व लीला का बोध हो सका। जो जगत अक्षर ब्रह्म को भी नहीं पा सका था, उसे साक्षात् परमात्मा के साक्षात्कार करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ है ।
परमधाम की आत्माओं के लिए इस वाणी का अलग महत्व है । जैसा कि बाइबल में कहा गया है कि परमात्मा की आवाज अर्थात् वाणी को उनकी आत्माएँ ही पहचानेंगी । अक्षरातीत की इस लीला में ब्रह्मसृष्टियां दुःख के खेल (संसार) में अपने असल स्वरूप व धाम धनी से अपने अखण्ड सम्बन्ध को विस्मृत कर चुकी हैं । श्री राज जी ने इस वाणी में उन्हें प्रबोधित करते हुए परमधाम की सभी बातों का वर्णन किया है । प्राणनाथ जी द्वारा अवतरित इस ज्ञान को पाए बिना आत्मा की जागनी असम्भव है । यह हांसी का खेल आत्माओं के लिए प्रेम की कसौटी है । जो आत्मा इस ज्ञान को गृहण करके इस पर अमल करेगी, वही धन्य-धन्य कहलायेगी । -
तारतम वाणी से क्या लाभ है?
अक्षरातीत का यह अलौकिक दिव्य ज्ञान अति दुर्लभ है । उसी प्रकार इसे पाने व हृदय में ग्रहण करने वाले को यह दुर्लभ परमार्थ सिद्धि का लाभ देता है अर्थात् इससे चित्त के सारे अच्छे-बुरे पूर्व संस्कार नष्ट हो जाते हैं, अच्छे-बुरे कर्मों के फल के बन्धन से मुक्ति, हृदय में जागृत बुद्धि के ज्ञान का प्रकाश, परब्रह्म अक्षरातीत का साक्षात्कार, क्षर ब्रह्माण्ड से परे योगमाया में अखण्ड मुक्ति, आदि प्राप्त होता है । श्री मुख वाणी का वास्तविक महत्व समझने वाला मनुष्य इसके लाभ कदापि नहीं गिन सकता क्योंकि वे अनन्त हैं ।
तिन नाबूद की नजर , बीच अखण्ड पहुंचे । अक्षर ठौर सरूप की , इन बानी से देखे ।। (बीतक ७१/१६)
इस ब्रह्मज्ञान (तारतम वाणी) को गृहण करने से इस स्वप्न समान झूठे तन पर बैठे जीव की दृष्टि निराकार के मण्डल को पार करके अखण्ड योगमाया तक पहुँच जाती है । यह तथ्य विचारणीय है कि जिस बेहद धाम (योगमाया) को ढूंढते हुए सबने हार मान ली थी, इस वाणी की कृपा से सभी को उस बेहद से परे अक्षर ब्रह्म और उनसे भी परे अक्षरातीत के निज स्वरूप तथा नूरमयी धाम (परमधाम) का बोध हो सका है ।
इन वाणी के सुनते , खुलत भिस्त के द्वार । आप देखे औरों दिखावहीं , पहुंचे नूर द्वार पार।। (बीतक ७१/२१)
श्री प्राणनाथ जी के श्री मुख से अवतरित इस ज्ञान के सागर को श्रवण करने से सभी जीवों के लिए अखण्ड बहिश्त (मुक्ति स्थान) के द्वार खुल जाते हैं । इसके अतिरिक्त अक्षर ब्रह्म से भी परे परब्रह्म अक्षरातीत के निज स्वरूप, चरित्र, व धाम का भी पता चलता है । यह दिव्य अवसर केवल कानों से सुनने (जानने) तक ही सीमित नहीं है, अपितु उस अलौकिक धाम व साक्षात् परमात्मा के दर्शन का भी सुन्दर लाभ लिया जा सकता है । श्री प्राणनाथ जी की कृपादृष्टि से ही उनके निज स्वरूप के दर्शन करने का सौभाग्य प्राप्त हो सका है ।
ए वानी इन धाम की , ले बैठावत निजधाम । सबको सुख उपजे , होए पूरन मनोरथ काम ।। (बीतक ७१/११)
परमधाम की आत्माओं के लिए यह वाणी अत्यन्त सुखकारी तथा मन के सभी मनोरथ पूर्ण करने वाली है । इस वाणी को सुनते ही ब्रह्मसृष्टियों का मन इसके रस में डूबने लगता है । उन्हें धाम धनी की चर्चा के अतिरिक्त कुछ भी अच्छा नहीं लगता । तत्पश्चात् चितवनि के मार्ग का अनुसरण करके वे इस जड़ सृष्टि में ही अखण्ड व चेतन परमधाम का साक्षात्कार और परमानन्द प्राप्त कर लेती हैं ।
निष्कर्ष यही है कि श्री मुख वाणी के लाभ तो अनन्त हैं, परन्तु यह तो लेने वाली की पात्रता (अंकुर) व क्षमता (निष्ठा) पर निर्भर करता है कि वह इससे कितना लाभ ले पाता है । इसके अतिरिक्त यह भी आवश्यक है कि वाणी को केवल पढ़ा ही न जाये, अपितु उसकी एक-एक चौपाई पर गहन चिन्तन किया जाये, तथा अन्ततः उसे रहनी में लाया जाये । एक बात तो सर्वमान्य है कि परमधाम का ज्ञान देने वाली अक्षरातीत की यह अलौकिक वाणी अति दुर्लभ है तथा जिसे भी इसे सुनने का अवसर प्राप्त हो, वह इस सुअवसर को कदापि न खोये । -
वाणी में सम्मिलित 14 ग्रन्थ
1. रास
2. प्रकास (गुजराती व हिन्दुस्तानी)
3. खटरुती
4. कलस (गुजराती व हिन्दुस्तानी)
5. सनन्ध
6. किरन्तन
7. खुलासा
8. खिलवत
9. परिकरमा
10. सागर
11. सिनगार
12. सिन्धी
13. मारफत सागर
14. कयामतनामा (छोटा व बड़ा) -
श्री प्राणनाथ का वाङमय स्वरूप
अक्षरातीत श्री प्राणनाथ जी ने इस २८वें कलयुग में प्रकट होकर परमधाम का अलौकिक ज्ञान प्रस्तुत किया । प्रकृति के नियमानुसार इस लौकिक तन (श्री मिहिरराज) की लीला को विराम देते हुए, श्री प्राणनाथ जी ने श्री कुलजम स्वरूप वाणी को ही अपने स्थान पर पधराकर अपने समान शोभा दी ।
बीतक में लक्ष्मी दास जी का प्रसंग आता है । उसके माध्यम से श्री राज जी ने सभी ब्रह्मसृष्टियों को यह शिक्षा दी है कि तारतम वाणी का कथन सर्वोपरि है । अक्षरातीत के श्री मुख से अवतरित इस वाणी के सिद्धान्तों से बढ़कर कुछ भी मान्य नहीं है ।
अतः यह कहना अनुचित नहीं होगा कि यह वाणी अक्षरातीत श्री प्राणनाथ जी का ही वाङमय (ज्ञानमय) स्वरूप है, अर्थात् श्री प्राणनाथ जी तथा इस ब्रह्मवाणी के स्वरूप में कुछ भी भेद नहीं है । इस वाणी के चौदह अंग श्री जी के चौदह अंगों के समतुल्य हैं । श्री प्रेम सखी (परमहंस महाराज श्री गोपालमणि जी) ने इस एकरूपता को अति सुन्दर ढंग से वर्णित किया है, जिसे सभी सुन्दरसाथ संध्या आरती में गाते हैं-
आरती अंग चतुर्दश केरी । पांच स्वरूप मिल एक भये री ।।१।।
यह आरती श्री प्राणनाथ जी के चौदह अंग युक्त ज्ञानमय स्वरूप की है । उनके स्वरूप में पाँचों शक्तियाँ (अक्षरातीत श्री राज का आवेश, श्री श्यामा जी की आत्मा, श्री अक्षर ब्रह्म की आत्मा, जागृत बुद्धि का फ़रिश्ता इस्राफील, परब्रह्म के जोश का फ़रिश्ता ज़िबरील) विद्यमान हैं । ऐसे सर्वशक्तिमान स्वरूप ने यह दिव्य वाणी अवतरित की है ।
रास चरण प्रकास पिंडुरियां । खटऋतु घूटन कलश जंघन की ।।२।।
श्री रास ग्रन्थ में परम पवित्र प्रेम की झलक प्रस्तुत की गई है । जिस प्रकार चरण पर ही शरीर स्थिर होता है, उसी प्रकार प्रेम ही अक्षरातीत श्री प्राणनाथ जी के स्वरूप का आधार है । इसी लिए रास ग्रन्थ की उपमा श्री जी के चरणों से की गई है । जिस प्रकार चरणों में पिंडली की शोभा होती है, उसी प्रकार श्री महामति जी को इस संसार में सारी शोभा दी गई है । वह श्री प्राणनाथ जी के स्वरूप का ही अंग हैं ।
मानव शरीर में घुटने के बिना चलने की क्रिया नहीं हो सकती । उसी प्रकार विरह की वाणी खटरुती श्री प्राणनाथ जी के स्वरूप में घुटने की शोभा रखती है क्योंकि विरह के बिना प्रेम परिपक्व नहीं हो सकता । श्री कलश ग्रन्थ को जांघों की उपमा दी गई है । जिस प्रकार जांघ में पैरों की शक्ति विद्यमान होती है, वैसे ही कलस की वाणी में श्री प्राणनाथ जी के स्वरूप की पहचान श्री विजयाभिनन्द बुद्ध के रूप में कराई गई है । जांघ पैरों को शरीर से जोड़ते हैं, उसी प्रकार कलस ग्रन्थ में प्रस्तुत सिद्धान्त ही सभी हिन्दू ग्रन्थों का आधार हैं ।
सनंध कमर कर कीरंतन सोहे । नाभि खुलासा उदर खिलवत की ।।३।।
श्री सनंध ग्रन्थ को कमर की उपमा दी गई है । कमर या रीढ़ ही शरीर को दृढ़ता प्रदान करता है । उसी प्रकार सनंध ग्रन्थ में हिन्दू पक्ष की गवाहियों तथा क़ुरआन की आयतों का वास्तविक अर्थ वर्णित करके, उनके प्रमाणों से श्री प्राणनाथ जी के ज्ञान की पुष्टि की गई है । श्री किरन्तन ग्रन्थ को कर (हाथ) की उपमा दी गई है । जिस प्रकार हाथ से सभी कार्य सम्पादित होते हैं, वैसे ही किरंतन ग्रन्थ में सभी विषयों का समावेश होने से सभी पक्षों के ज्ञान में पारंगत हुआ जा सकता है ।
नाभि में मानव तन की सभी नस-नाड़ियों का मिलन होता है । अतः खुलासा ग्रन्थ में सभी धर्मों व पंथों के एकीकरण की बात सिद्ध की गई है । उदर में पचने वाले भोजन से ही मानव तन जीवित रहता है । उसी प्रकार खिलवत ग्रन्थ परमधाम (मारिफत) के ज्ञान की भूमिका है, जिसमें वर्णित इश्क-रब्द (प्रेम प्रसंग) ही इस सम्पूर्ण जागनी लीला का मूल कारण है ।
हृदय तवाफ कण्ठ सागर छबि । मुख सिनगार नासिका सिंधी ।।४।।
अक्षरातीत श्री प्राणनाथ जी के हृदय से ही सम्पूर्ण परमधाम के पच्चीस पक्ष की लीला सम्पादित होती है । परिकरमा ग्रन्थ में परमधाम की शोभा व लीला का विस्तृत वर्णन है, इसलिए उसे हृदय की उपमा दी गई है । कण्ठ से मनुष्य की श्वास (प्राण) क्रिया चलती है तथा कण्ठ दबाने से उसकी मृत्यु हो सकती है । वैसे ही सागर ग्रन्थ में श्री जी के हृदय के आठ सागरों का वर्णन किया गया है, जो प्राणों के समान निकट हैं । अतः सागर को ही कण्ठ कहा गया है।
मुख मण्डल से ही किसी व्यक्ति की सुन्दरता, तेज, व शोभा का ज्ञान होता है । सिनगार ग्रन्थ में अक्षरातीत श्री राज जी के नूरी स्वरूप का वर्णन किया गया है, जो उनके सौन्दर्य के साथ-साथ उनके हृदय में भरे हुए अनन्त सागरों के आनन्द रस को भी प्रकट करता है । इसलिए सिनगार ग्रन्थ को मुख की उपमा देना उचित ही है । नासिका किसी भी व्यक्ति के आत्मसम्मान का द्योतक होती है । सिंधी ग्रन्थ में प्रेम के विभिन्न रसों (प्रेममयी नोंक-झोंक) का समिश्रण है जो एक समर्पित आत्मा के अधिकारों व महत्व (मूल स्वरूप) का बोध कराता है । अतः सिन्धी ग्रन्थ नाक की उपमा से सुशोभित है ।
श्रवण मारफत नयन सो कयामतनामा । चौदह अंग मिलि एक धनी के ।।५।।
श्रवण (कान) व नयन (नेत्र) से दृश्य (सत्य) को सुना व देखा जाता है । मारफत सागर को श्रवण कहने का अभिप्राय है कि इसमें निहित मारिफत (परम सत्य) ज्ञान को सुनने वाला परम तत्व का जानकार हो जाता है तथा अखण्ड मुक्ति को प्राप्त करता है । उसी प्रकार कयामतनामा को नयन कहा गया है । इस ग्रन्थ में श्री प्राणनाथ जी के स्वरूप को आख़रूल इमाम महंमद महदी का स्वरूप सिद्ध किया गया है । कयामतनामा ग्रन्थ रूपी नेत्रों से देखने पर ही श्री जी के असल स्वरूप की पहचान होती है ।
इस प्रकार यह चौदह अंग मिलकर अक्षरातीत धाम धनी श्री प्राणनाथ जी का वाङमय (ज्ञानमय) स्वरूप बनते हैं ।
श्री सुन्दर श्री इन्द्रावती जीवन । प्रेम सखी बलि बलि चरनन की ।।६।।
श्री सुन्दर बाई (श्री श्यामा जी) व श्री इन्द्रावती सखी का जीवन श्री प्राणनाथ जी की कृपा व प्रेम से पूर्ण रूप से सफल हो गया। ऐसे सुन्दर स्वरूपों के चरण कमलों पर श्री प्रेम सखी अपने को न्यौछावर करती हैं । -
आसन का क्या महत्व है?
चितवनि के प्रारम्भिक चरण में शरीर और मन को स्थिर करना होता है। यह योग का सामान्य सिद्धान्त है कि जब शरीर स्थिर हो जाता है, तो मन अपने आप स्थिर व एकाग्र हो जाता है। इसके लिए पद्मासन, सिद्धासन, सुखासन, सरलासन, स्वास्तिकासन, समत्वासन या वज्रासन में से किसी एक पर बैठने का अभ्यास करें। अँगना भाव लाने के लिए पद्मासन सर्वोपरि है। इसके द्वारा मन भी बहुत सात्विक हो जाता है। सिद्धासन में बैठने पर मन में कोई विकारयुक्त बात नहीं सोचनी चाहिए, अन्यथा पतन की भी सम्भावना बन सकती है। सरलासन, सुखासन, और समत्वासन पर लम्बे समय तक बैठने के लिए प्राणायाम का अभ्यास करना अति आवश्यक है।
किसी अभ्यस्त आसन में बैठे रहने पर शरीर में यदि खुजलाहट हो, तो खुजलाने की आदत न डालें। सद्गुरु धनी श्री देवचन्द्र जी का हाथ चितवनि में हिल गया था, जिसके कारण उनका ध्यान टूट गया था और दर्शन भी उस दिन बन्द हो गया। प्रारम्भ में यह प्रयास करें कि आप आसन पर बिना हिले-डुले कमर, पीठ, तथा गर्दन को एक सीध में रखते हुए १ से ३ घण्टे तक बैठ सकें। यदि आप एक घण्टे तक बिना हिले-डुले लगातार बैठ सकते हैं और उससे अधिक बैठना चाहते हैं, तो प्रति सप्ताह अपने आसन में पाँच मिनट की वृद्धि करते जायें। इस प्रक्रिया के द्वारा आप अपने आसन को कई घण्टे तक बढ़ा सकते हैं।
श्री कुल्जम स्वरूप की महिमा
कुलजम सरूप ग्रन्थ में, जो खोजे चित्त लाए। हद बेहद पर धाम लों, आतम दृष्टि लखाए।।
कुलजम सरूप ग्रन्थ को, जो करे नित विचार। आतम जाग्रत होवहीं, खुले धाम के द्वार।।
कुलजम सरूप ग्रन्थ को, नित सेवे जो कोए। पूरण प्रेम जो उपजे, सत्वर दरसन।।
कुलजम सरूप ग्रन्थ को, पढ़े पढ़ावे कोए। धाम रास बृज जागनी, मिले इंछित सुख सोए।।
कुलजम सरूप ग्रन्थ को, जो करहीं नित पाठ। अहनिस युगल सरूप सों, खेले सातों घाट।।
कुलजम सरूप ग्रन्थ को, सेवे आठों जाम। उन सब सुन्दरसाथ को, करूं दण्डवत प्रणाम।।