रास ग्रन्थ में अक्षरातीत श्री राज जी के द्वारा श्री कृष्ण का तन धारण करके अपनी आत्माओं के साथ की गयी पवित्र प्रेम लीला का वर्णन है । परब्रह्म श्री प्राणनाथ जी की रसमयी ब्रह्मलीला ही रास है । रास ग्रन्थ का अवतरण सम्वत् १७१५ में हब्शा में हुआ था ।
प्रकास गुजराती ग्रन्थ का अवतरण श्री प्राणनाथ जी द्वारा सम्वत् १७१५ में हब्शा में हुआ था ।
खटरुती प्रियतम अक्षरातीत के लिये किये जाने वाले विरह की नींव पर ही अध्यात्म जगत का स्वर्णिम महल खड़ा होता है । विरह से ही हमारा आध्यात्मिक श्रृंगार होता है और इसके द्वारा ही आत्म-जाग्रति का स्वर्णिम पथ भी प्राप्त होता है । बिना विरह के आँसू बहाये यदि कोई प्रियतम के साक्षात्कार का दावा करता है, तो यही समझना चाहिए कि वह सत्य को छिपाना चाहता है ।
श्री इन्द्रावती जी की आत्मा ने अपने जीव को विरह की ज्वालाओं में भस्म कर दिया और अपने प्राणेश्वर को पा लिया । इसकी ही परिणीति यह षट्ऋतु की वाणी है, जो हमें विरह के उसी पुनीत मार्ग पर चलने का आह्वान कर रही है ।
खटरुती ग्रन्थ का अवतरण श्री प्राणनाथ जी द्वारा सम्वत् १७१५ में हब्शा में हुआ था । एक वर्ष में ६ ऋतुएँ होती हैं- ग्रीष्म, वर्षा, शरद, हेमन्त, शिशिर और वसन्त। प्रत्येक ऋतु में आत्मा अपने प्रियतम अक्षरातीत से मिलने के लिए विरह में किस प्रकार तड़पती है, उसका प्रत्यक्ष वर्णन इस ग्रन्थ में किया गया है ।
यद्यपि कलश गुजराती की दो चौपाइयाँ हब्शा के अन्दर सम्वत् १७१५ में ही उतर गयी थीं, किन्तु इसका पूर्ण अवतरण सम्वत् १७२९ में सूरत में हुआ ।
प्रकाश हिन्दुस्तानी ग्रन्थ का अवतरण श्री प्राणनाथ जी द्वारा सम्वत् १७३६ में अनूपशहर में हुआ था ।
प्रकास ग्रन्थ में ८४ लाख योनियों में जन्म लेने के बाद मानव तन का महत्व बताते हुए माया-ब्रह्म के अन्तर का वर्णन है । इसके अतिरिक्त बेहदवाणी, प्रकटवाणी, भागवत सार, १०८ पक्षों का वर्णन, सदगुरु स्वरूप धाम धनी के विरह में तड़पने वाली आत्मा की मनोदशा का यथार्थ वर्णन है, जिसे पढ़कर हृदय के पट खुल जाते हैं । इस ग्रन्थ के माध्यम से यह बात स्पष्ट की गई है कि श्री महामति जी को ही इस संसार में सारी शोभा है ।
कतेब पक्ष की दृष्टि में इसे "जंबूर" भी कहते हैं । जंबूर उस यन्त्र को कहते हैं जो धँसी हुई कील निकालता है अर्थात् अध्यात्म के उलझे हुए रहस्यों को स्पष्ट व प्रकाशित करना । दाऊद के जंबूर ग्रन्थ के रहस्यों का स्पष्टीकरण इसी ग्रन्थ में है ।
कलस हिन्दुस्तानी कलस ग्रन्थ में अखण्ड ब्रज, अखण्ड रास (योगमाया) व बुद्ध अवतार का वर्णन है जिससे श्री प्राणनाथ जी के स्वरूप की पहचान होती है । इसमें प्रेम, विरह, परब्रह्म अक्षरातीत की कृपा, परमधाम की आत्माओं के लक्षण तथा उनकी जागनी का अति सुन्दर वर्णन है । इसके अतिरिक्त संसार के ज्ञानीजनों के भटकाव का सुन्दर चित्रण करते हुए हिन्दू धर्म के अनेक रहस्यों का स्पष्टीकरण किया गया है । जिस प्रकार मंदिर की गुमटी पर कलश शोभायमान होता है, उसी प्रकार यह ग्रन्थ सभी हिन्दू ग्रन्थों पर कलश के समान सुशोभित है ।
कलस हिन्दुस्तानी का अवतरण सम्वत् १७३६ में अनूपशहर में हुआ । कतेब पक्ष की दृष्टि में इसे "तौरेत" भी कहे जाता है । तौरेत ग्रन्थ के रहस्यों का स्पष्टीकरण इसी ग्रन्थ में है ।
सनंध का अर्थ होता है- प्रमाण या सनद (मुहर) । इस ग्रन्थ में कलस ग्रन्थ के कुछ प्रकरणों का पुनः उल्लेख तथा क़ुरआन के तीस पारों का वास्तविक अभिप्राय वर्णित करते हुए दोनों पक्षों द्वारा श्री प्राणनाथ जी के ज्ञान की प्रमाणिकता सिद्ध की गयी है । महंमद साहेब के असली स्वरूप की भी पहचान कराई गई है ।
इस ग्रन्थ का अवतरण सम्वत् १७३६ में अनूपशहर में हुआ है । इसमें अधिकांश चौपाइयाँ हिन्दुस्तानी भाषा में तथा शेष अरबी व सिंधी भाषा में हैं जिनमें अरब व सिंध के मुसलमानों को प्रबोधित किया गया है ।
इस ग्रन्थ में संसार के विभिन्न मत-मतांतरों का उल्लेख करते हुए मोमिनों (ब्रह्मसृष्टियों) के लक्षण बताये गए हैं तथा नबी (मुहम्मद साहेब) व आदि नारायण की आध्यात्मिक पहुँच का भी सुन्दर ढंग से वर्णन किया गया है । मुहम्मद साहेब की तीन सूरत (बसरी, मलकी और हकी) की पहचान, आखिरत का न्याय, आखरूल जमां इमाम मेंहदी का प्रताप, पांचों फरिश्तों, व अक्षरातीत की पहचान भी कराई गई है ।
इसमें क़ुरआन के वास्तविक अर्थों के अनुसार सच्चे मुसलमान का हिंसा रहित, पवित्र, व आदर्श आचरण सविस्तार व्यक्त किया गया है । शरीयत से आगे निकलते हुए तरीकत व हकीकत का मार्ग प्रस्तुत किया गया है । सच्चे मुसलमानों के लिए रोजा, हज, नमाज, तथा जकात का यथार्थ रूप बताया गया है ।
इसके अतिरिक्त इस ग्रन्थ में हिन्दू और मुसलमान दोनों के आडम्बरों का स्पष्ट एवं निष्पक्ष चित्रण है । आध्यात्म की राह पर चलने वालों को यह शिक्षा भी दी गई है कि वह भाषा व वेशभूषा (धर्म) के विवाद से दूर रहकर उस परम सत्य को पाने की ओर केन्द्रित रहें ।
किरंतन का तात्पर्य "कीर्तन" से है । इस ग्रन्थ में श्री कुलजम स्वरूप के सभी तत्वों व विषयों का समावेश है, जिस कारण यह उसका एक लघु रूप है ।
यह ग्रन्थ हिन्दुस्तानी, गुजराती, एवं सिन्धी भाषा में है । किरन्तन ग्रन्थ का अवतरण काल सम्वत् १७१२ से १७५१ है । यद्यपि १७४८ में मारफत सागर ग्रन्थ के अवतरण के पश्चात् वाणी का अवतरण लगभग पूर्ण हो गया, परन्तु उसके बाद भी किरन्तन ग्रन्थ के कुछेक प्रकरण उतरते रहे जो धाम चलने (चितवनि) से सम्बन्धित हैं ।
श्री प्राणनाथ जी जागनी कार्य हेतु जहाँ-जहाँ गये, वहाँ के विद्वानों, सन्यासियों, तथा जिज्ञासुओं से जो वार्ता, शास्त्रार्थ, सत्संग आदि हुआ, उस स्थिति के अनुसार ही परब्रह्म के आवेश से किरन्तनों का अवतरण हुआ । अतः इन किरन्तनों में विषयानुसार अध्यात्म के सभी पक्षों का वर्णन है ।
किरन्तन ग्रन्थ में श्री प्राणनाथ जी को ही श्री विजयाभिनन्द बुद्ध निष्कलंक स्वरूप उद्घोषित किया गया है ।
इसमें वेद, दर्शन शास्त्र, व वेदान्त के उन गूढ़ रहस्यों का स्पष्टीकरण हुआ है, जिसे सृष्टि के प्रारम्भ से लेकर आज तक कोई नहीं बता सका था । यह ग्रन्थ ज्ञानीजनों व योगियों के मन के सभी संशयों को मिटाकर उन्हें माया-ब्रह्म की स्पष्ट पहचान कराता है । निष्पक्ष हृदय तथा ब्रह्मज्ञान की लालसा से युक्त कोई भी सच्चा जिज्ञासु इस ज्ञान को पाकर धन्य हो जायेगा ।
खुलासा का अर्थ होता है प्रकट या स्पष्ट करना । इस ग्रन्थ में क़ुरआन के छिपे हुए भेदों को खोला गया है तथा वेद, गीता, भागवत, क़ुरआन, पुराण व हदीसों के आधार पर धर्म का परिचय व एकीकरण दर्शाया गया है ।
इस ग्रन्थ का अवतरण पन्ना में हुआ । इसमें मुहम्मद साहेब द्वारा परब्रह्म के दीदार एवं उनकी सूरत को बयान किया गया है । अक्षर व अक्षरातीत की पहचान का विस्तार से वर्णन है । क़ियामत के सात निशानों तथा योगमाया में कज़ा (न्याय) की लीला के पश्चात् होने वाली उन आठ बहिश्तों (मुक्ति स्थान) का भी विशेष वर्णन है, जिसमें इस ब्रह्माण्ड के सभी प्राणी अखण्ड होंगे ।
इसके अतिरिक्त परमधाम (लाहूत) में होने वाली लीला की हक़ीकत (वास्तविकता) पर भी इस ग्रन्थ में अच्छी तरह प्रकाश डाला गया है ।
"खिल्वत" का शाब्दिक अर्थ होता है अन्तःपुर । यह अरबी भाषा का "खल्वत" शब्द है, जिसका तात्पर्य है एकान्त स्थान । यह वह स्थान है जहाँ आशिक और माशूक (प्रेमी और प्रेमास्पद) अपनी प्रेम लीला को क्रियान्वित करते हैं । बाह्य रूप में खिल्वत किसी स्थान विशेष को मान सकते हैं, किन्तु आन्तरिक रूप में आशिक और माशूक का दिल (हृदय) ही वास्तविक खिल्वत की संज्ञा प्राप्त करता है ।
इस ग्रन्थ का अवतरण पन्ना जी में हुआ । प्रारम्भ के पाँच प्रकरणों में "मै खुदी" (अहं) को त्यागने का विशेष वर्णन है । तत्पश्चात् स्वलीला अद्वैत परब्रह्म का अपनी आत्माओं तथा आनन्द के स्वरूप श्री श्यामा जी से होने वाले अलौकिक इश्क-रब्द (प्रेम-प्रसंग) का सविस्तार वर्णन किया गया है । इसमें स्पष्ट किया गया है कि परमधाम के जर्रे-जर्रे में अक्षरातीत का इश्क, आनन्द, और वाहेदत (एकदिली) समाया हुआ है ।
संसार के प्रपञ्चों से हटाकर आत्मा को परमधाम की ओर ले जाना ही इस ग्रन्थ का मुख्य आशय है ।
अक्षर ब्रह्म व अक्षरातीत परब्रह्म के मूल स्वरूप जिस दिव्य धाम में विराजमान हैं, उसका स्पष्ट वर्णन आज तक इस ब्रह्माण्ड में नहीं हो सका था । सभी उसे शब्दातीत व अगम कहकर मौन हो गए क्योंकि स्वप्न की बुद्धि वहाँ तक नहीं पहुँच सकती । पुराण संहिता और माहेश्वर तन्त्र में शिव जी ने जिस धाम को अक्षरातीत का परमधाम मानकर वर्णन किया है, वह केवल ब्रह्म (योगमाया) का ही वर्णन है, परमधाम का नहीं । वेद और क़ुरआन में सांकेतिक रूप में परमधाम का वर्णन अवश्य है । वेदों में उसे "दिव्य ब्रह्मपुर" तथा क़ुरआन में उसे "अर्शे अज़ीम" व "लाहूत" कहकर पुकारा गया है, किन्तु उनके संकेतों को तारतम ज्ञान के बिना कोई समझ नहीं सकता ।
परिकरमा ग्रन्थ का अवतरण पन्ना जी में हुआ । इसमें उस अलौकिक परमधाम का वर्णन है जो सत्य, चेतन, तेजमयी, अनन्त प्रेम और आनन्द से युक्त, अनन्त परिधि वाला, तथा स्वलीला अद्वैत है ।
उस अगम परमधाम का विस्तृत व स्पष्ट वर्णन तो स्वयं पूर्णब्रह्म अक्षरातीत श्री प्राणनाथ जी ने ही इस ग्रन्थ में किया है । अक्षरातीत के अनादि परमधाम में सात परिक्रमायें वर्णित हैं-
१. रंगमहल
२. हौजकौसर, पुखराज, फूलबाग, नूरबाग, बट-पीपल की चौकी
३. माणिक पहाड़
४. जवेरों की नहरें
५. वन की नहरें
६. छोटी रांग- चार हार हवेली
७. आठ सागर- आठ जिमीं
इन्हीं सात परिक्रमाओं का सविस्तार वर्णन करने हेतु प्रकटे इस ग्रन्थ को परिकरमा कहा गया है ।
इस ग्रन्थ में शब्दातीत परमधाम के अनन्त विस्तार एवं शोभा को अति सीमित करके शब्दों में लाने का प्रयास किया गया है, ताकि वह इस स्वप्न की बुद्धि में समा सके । इसमें उस अलौकिक धाम का ऐसा सजीव वर्णन है कि पढ़ने मात्र से ऐसा प्रतीत होता है कि वहाँ का दृश्य आँखों के समक्ष उपस्थित हो गया है । परमधाम में होने वाली अष्ट प्रहर की लीला का भी अति मनमोहक वर्णन है ।
सागर ग्रन्थ का अवतरण सम्वत् १७४४ में पन्ना जी में हुआ । यह ग्रन्थ अक्षरातीत के हृदय एवं स्वरूप के आठों सागरों पर विशेष रूप से प्रकाश डालता है ।
अक्षरातीत का हृदय दिव्यताओं का सागर है । श्री राज जी के हृदय में प्रेम, सौन्दर्य, ज्ञान, तेज, एकत्व, कृपा आदि के अनन्त सागर लहरा रहे हैं, जिनका प्रकट रूप परमधाम के पच्चीस पक्ष, आनन्द अंग श्री श्यामा जी, सखियाँ (आतमाएँ), अक्षर ब्रह्म, आदि हैं । निम्नलिखित आठ सागरों का इस ग्रन्थ में विस्तृत वर्णन किया गया है-
1. अक्षरातीत के नूर .(तेज) का सागर
2. सखियों की अलौकिक शोभा का सागर
3. सखियों की वाहेदत (एकदिली) का सागर
4. युगल स्वरूप श्री राजश्यामा जी की शोभा-श्रृंगार का सागर
5. इश्क (प्रेम) का सागर
6. अनन्त ज्ञान का सागर
7. मूल निसबत (सम्बन्ध) का सागर
8. मेहर (कृपा) का सागर
परमधाम की आत्माओं का इस नश्वर जगत में पदार्पण होने पर अक्षरातीत ने उनके लिए यह अलौकिक दिव्य ज्ञान अवतरित किया, जिससे आत्माओं ने उन गोपनीय गुह्य भेदों को जान लिया जिन्हें वे परमधाम में भी नहीं जानती थीं । जिस प्रकार नमक का ढेला सागर की गहराई नहीं नाप सकता, उसी प्रकार अक्षरातीत के प्रेम की स्वरूप उनकी आत्माएँ युगल स्वरूप के आठों सागर में इस प्रकार खो जाती हैं कि उन्हें अपनी जरा भी सुध नहीं रहती ।
सिनगार ग्रन्थ का अवतरण सम्वत् १७४७ में पन्ना जी में हुआ । यह ग्रन्थ अक्षरातीत श्री राज जी के श्रृंगार पर बृहत् रूप से प्रकाश डालने वाला है ।
संसार के सभी ऋषि-मुनि तथा देवी-देवता जिस परब्रह्म को खोजते-खोजते हार गए और न मिलने पर शब्दातीत कहकर चुप हो गए, उन्हीं अक्षरातीत के स्वरूप की शोभा व श्रृंगार का इस ग्रन्थ में कई बार वर्णन किया गया है । तेज व प्रेम से सुशोभित पूर्ण ब्रह्म का नख से लेकर शिख तक विस्तृत वर्णन है, जिसे पढ़ने वाला धन्य-धन्य हो जाता है ।
अध्यात्म का यह सर्वेच्च ज्ञान अक्षर ब्रह्म की जागृत बुद्धि से भी परे है, तो संसार के ऋषि-मुनियों तथा त्रिदेव की तो कल्पना भी इस तक नहीं पहुँच सकती ।
सिनगार ग्रन्थ की वाणी ब्रह्मसृष्टियों (आत्माओँ) के लिए मारिफत (परम सत्य) का द्वार खोलती है । इसके बिना धाम धनी अक्षरातीत के दिल में बैठकर उनके सागरों के गुह्य रहस्यों को नहीं जाना जा सकता । श्री राज जी के हृदय के जिन भेदों को परमधाम से लेकर आज तक जाना नहीं जा सका था, वह सब इस ग्रन्थ में निहित हैं ।
सिन्धी ग्रन्थ का अवतरण श्री पन्ना धाम में हुआ । यह ग्रन्थ सिन्धी भाषा में है, अतः इसका नाम "सिन्धी" रखा गया है । इसमें आत्मा का अपने प्रियतम अक्षरातीत के प्रति प्रेम दर्शाया गया है ।
इस ग्रन्थ में परमात्मा से आत्मा (श्री इन्द्रावती) की प्रेममयी नोंक-झोंक (वार्ता) का अति सुन्दर वर्णन है, जिससे उनकी निसबत (सम्बन्ध) का ज्ञान होता है । इस संसार के ज्ञानीजन परमात्मा को ठीक से जाने बिना नवधा भक्ति व कर्मकाण्ड में व्यस्त रहते हैं, जबकि परमधाम की आत्मा परमात्मा की साक्षात् तन हैं । इस ग्रन्थ में वर्णित वार्ता उनके प्रेममयी अखण्ड सम्बन्ध का ही परिचायक है ।
सिन्धी वाणी प्रेम के रस से सराबोर है । इसे पढ़कर यह ज्ञात होता है कि किस प्रकार आत्मा अपने प्रियतम सच्चिदानन्द से अधिकारपूर्वक प्रेम व आनंद की मांग करती है । यह अधिकार पूर्ण समर्पण से प्राप्त होता है । इसके अवलोकन से यह भी पता चलता है कि परमधाम में आत्मा व धाम धनी श्री राज जी का स्वरूप व शोभा समान है । उनके बीच चलने वाली प्रेममयी लीला की गहराई का भी आभास होता है ।
मारफत सागर ग्रन्थ का अवतरण सम्वत् १७४८ में पन्ना जी में हुआ । इस ग्रन्थ में मारिफ़त ज्ञान (परम सत्य, विज्ञान) का वर्णन है, इसी आधार पर इसका नाम मारफत सागर रखा गया । इसमें आध्यात्मिक जगत के गुह्य रहस्यों तथा क़ुरआन के अब तक छुपे रहस्यों का स्पष्टीकरण है ।
अल्लाह तआला (अक्षरातीत श्री प्राणनाथ जी) ने मेअराज (साक्षात्कार) के समय अर्श-ए-अज़ीम (परमधाम) में मुहम्मद साहेब (अक्षर ब्रह्म की आत्मा) से वादा किया था कि वह स्वयं पृथ्वी पर आकर मारिफत ज्ञान प्रकट करेंगे । मुहम्मद साहेब को क़ुरआन के रूप में शरीअत (कर्मकाण्ड) व तरीक़त (उपासना) का ज्ञान प्रकट करने की छूट थी, परन्तु हक़ीकत व मारिफ़त ज्ञान वर्णन करने की शोभा स्वयं परब्रह्म अक्षरातीत की है । यह मारिफ़त का ज्ञान क़ुरआन के ताले (रहस्यों) की कुंजी है ।
इस ग्रन्थ में अर्श (परमधाम) में अल्लाह (श्री प्राणनाथ जी) व उनकी रूहों (आत्माओं) में होने वाले इश्क-रब्द के प्रसंग का वर्णन है । लैल-तुल-कद्र की रात्रि की व्याख्या है । इसमें क़ियामत के सातों निशानों- सूरज का मगरब (पश्चिम) में उगना, दाभ-तुल-अरज़ (सबसे बड़े जानवर) का पैदा होना, याजूज-माजूज का जाहिर होना, काने दज्ज़ाल का प्रकट होना, इस्राफील का सूर फूँकना, रूह अल्लाह और इमाम महदी के प्रकट होने के प्रसंगों का वास्तविक आशय स्पष्ट किया गया है । इसके अतिरिक्त छह दिन की पैदाइश और अज़ाजील, ज़िबरील, व इस्राफील फरिश्तों की वास्तविकता का भी वर्णन किया गया है ।
यह "मारफत सागर" ज्ञान का ऐसा सूर्य है, जिसके प्रकट होने के बाद अन्य ग्रन्थों की आवश्यकता नहीं रहती ।
यह ग्रन्थ दो भागों में प्रस्तुत किया गया है- छोटा कयामतनामा और बड़ा कयामतनामा । ये दोनों ही ग्रन्थ सम्वत् १७४७ में चित्रकूट में अवतरित हुए । यद्यपि ये ग्रन्थ श्री प्राणनाथ जी की आवेश शक्ति से ही प्रकट हुए, परन्तु इनमें महाराजा छत्रसाल जी की छाप है, अर्थात् श्री जी द्वारा यह शोभा उन्हे दी गई है ।
क़ुरआन के अनुसार ग्यारहवीं सदी (हिजरी) में आख़रूल इमाम महंमद महदी साहिब़ुज्ज़मां (श्री प्राणनाथ जी) प्रकट होंगे । इन ग्रन्थों में उन्हीं की पहचान विशेष रूप से बतायी गई है । इसके अतिरिक्त परमधाम की आत्माओं तथा संसार के जीवों के आचरण का भेद प्रस्तुत किया गया है ।
इन ग्रन्थों में महंमद साहेब को अक्षरातीत का मेअराज (साक्षात्कार) होने का वर्णन है । इसके अतिरिक्त महंमद साहेब की तीन सूरतों- बसरी, मलकी, और हकी की हकीकत स्पष्ट की गई है।
इसमें क़ुरआन के विभिन्न किस्सों का बातिनी अर्थ किया गया है । दस प्रकार की दोज़ख, इमाम महदी के प्रकटन के साथ ही क़ियामत के ज़ाहिर होने, आदि का वर्णन है । संक्षाप में, यह ग्रन्थ आखिरत की सारी बातें स्पष्ट करते हैं ।