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Baal Yuwa Sanskar - बाल युवा संस्कार
द्वारा दी हुई वस्तु भी अकारण न लें। कहते हैं-लालच बुरी बला है। धन कमाने के लिए मनुष्य छल-कपट करता है और सोचता है कि मैं व मेरा परिवार इस धन से सुख प्राप्त करेंगे। किंतु अनीति से कमाया धन अंततः दुखी ही करता है, कमाने वाले को भी और उस धन का उपयोग करने वाले परिवारजनों को भी। वह धन अच्छे कार्य में उपयोग नहीं हो पाता। बीमारी में, पुलिस से बचने में, अय्याशी में, सामाजिक प्रतिष्ठा बचाने आदि में पानी की तरह बह जाता है। बिना मेहनत के दौलत मिलने से आने वाली पीढ़ी आलसी, व्यसनी, अपव्ययी तथा अन्य बुराईयों का शिकार हो सकती है। अतः चोरी कभी भी नहीं करनी चाहिए।

(16) अपरिग्रहः- अपरिग्रह का अर्थ होता है- आवश्यकता से अधिक धन-संपत्ति इकट्ठी नहीं करना अर्थात् अतिसंचय नहीं करना चाहिए। मधुमक्खियाँ शहद इकट्ठा करती हैं किंतु खाता तो कोई और ही है। उसी प्रकार वर्षो बाद की भी योजना बनाकर मनुष्य सही-गलत तरीके से धन इकट्ठा करता रहता है, जो उसके तो काम आता नहीं है, साथ ही उसका सारा ध्यान धन की रक्षा व उपयोग की चिंता में ही लगा रहता है, जिससे वह शांति से रह भी नहीं पाता। अनमोल मनुष्य तन उस धन को कमाने में गँवा देता है, जो उसके साथ जाना ही नहीं है।

(17) दानः- हितोपदेश मंे कहा गया है- ‘‘धन की तीन ही गति होती है-दान, भोग या नाश। अर्थात् जो       धन का उपयोग ना सांसारिक सुखों को भोगने में करता है, न धर्म कार्य में दान करता है, वह धन अंततः नष्ट हो जाता है अर्थात् उसके किसी काम नहीं आता।’’ अतः धन का त्यागपूर्वक उपभोग होना चाहिए। अकेले ही धन आदि का उपयोग करना पाप है। स्कन्द पुराण (मा.के. 12/32) में कहा गया है-

‘‘न्यायोपार्जितवित्तेन दशमांशेन धीमता। कर्तव्यो विनियोगश्च ईशप्रीत्यर्थहेतवे।।’’

अर्थात् ‘‘ अपने न्यायपूर्वक उपार्जित धन का दसवाँ भाग परमात्मा की प्रसन्नता के लिए किसी सत्कर्म में लगाना चाहिए।’’ इससे बाकी बचे धन की शुद्धि भी हो जाती है। जिसका उपयोग करने में फिर कोई नुकसान नहीं होता। दान हमेशा नम्रतापूर्वक करना चाहिए।

(18) तपः- धर्म पालन में, परमात्मा के मार्ग पर चलने में जो कष्ट सहन करने पड़ते हैं, उन्हें तप कहते हैं। स्वयं ही अपने शरीर को कष्ट देने से अपने संचित पाप नष्ट हो जाते हैं। सेवा उत्तम तप है। कष्ट प्राप्त होने पर भी निस्वार्थ भाव से, प्रेमपूर्वक सेवा करते रहने से मन निर्मल हो हृदय में ज्ञान का प्रकाश होता है। सभी को परमात्मा का ही स्वरूप (सुंदरसाथ) मानकर प्रेमपूर्वक सेवा करनी चाहिए। सेवा भाव के बिना ज्ञान व्यर्थ है।

(19) संतोषः- जीवन में हमें सुख या दुख जो भी प्राप्त हो, उन्हें परमात्मा की कृपा मानकर सदा-सर्वदा संतुष्ट रहने का नाम संतोष है। जिसके पास संतोष रूपी धन है, वो सबसे बड़ा धनवान है। किंतु अपार धन-संपत्ति होने पर भी यदि संतोष नहीं है तो वह दरिद्र समान है। हमें विश्वास होना चाहिए कि हमारी आत्मा के प्रियतम परब्रह्म श्रीराजजी महाराज हमारे प्रति जो कुछ भी करेंगे, वो हमारे भले के लिए ही करेंगे।

(20) ऋणः- ऋण कभी भी नहीं लेना चाहिए। ऋण लेना मृत्यु के बराबर होता है। परंतु कुछ लोगों का सिद्धांत होता है कि ‘जब तक जिओ, सुख से जिओ और ऋण लेकर भी घी पियो।’ यह सिद्धांत बहुत दुख का कारण बनता है। यदि दुनिया में आत्म-सम्मान से रहना हो तो ‘जितनी चादर हो, उतनी ही पांव पसारने चाहिए’। ‘आमदनी अठन्नी, खर्चा रूपईया’ कभी भी नहीं करना चाहिए।

(21) अपव्ययः- धन का अपव्यय (फिजुलखर्ची) कभी नहीं करना चाहिए। धन की कीमत उन (माता-पिता) को मालूम होती है, जिन्होंने कड़ी मेहनत से उसे प्राप्त किया है। बच्चों को बगैर मेहनत के धन प्राप्त