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Baal Yuwa Sanskar - बाल युवा संस्कार
उनकी मानसिक एकाग्रता भंग हो जाती है। वे पढ़ाई करने बैठते हैं, तो भी टी.वी. याद आता है। पढ़ाई या काम उन्हें बोझा लगते हंै। वे बगैर मेहनत किये सब सुख पाना चाहते हैं। माता-पिता की आज्ञा नहीं मानते। उनसे तरह-तरह की फरमाईशें करते हैं। वे भौतिकवाद (भोगवृत्ती) की ओर बढ़ते जाते हैं, जिसका परिणाम दुख, बीमारी व अशांति के सिवा कुछ नहीं होता। अच्छे-अच्छे पढ़ने वाले बच्चे भी केबल टी.वी की मेहरबानी से पढ़ाई में कमजोर हो जाते हैं।

इन सबसे आगे बढ़कर युवक-युवतियाँ कई गलत बातें सीखने लगते हैं। उनका नैतिक पतन प्रारंभ हो जाता है। वे शरीर को सजाना-संवारना, फैशनेबल अंग प्रदर्शित करने वाले ड्रेस (परिधान) पहनना, घूमना-फिरना, पार्टियों में नाचना-गाना सीख जाते हैं। अनुभवहीन युवक-युवतियाँ फिल्मों की इस काल्पनिक दुनिया को सच समझ बैठते हैं। प्रेम कहानियाँ देखकर कई प्रेमी बन जाते हैं, घर से भाग जाते हैं या आत्महत्या कर लेेते हैं। कई अपराधी बन जाते हैं। कई नशा करना सीख जाते हैं। उनका भविष्य अंधकार मंे खो जाता है।

अतः टी.वी. की आंधी से बच्चों को बचाना अनिवार्य है। समय गुजारने हेतु या मन बहलाने के लिए कई अन्य भी साधन हैं, जैसे खेलना, अच्छे साहित्य पढ़ना, गृहकार्य करना, ध्यान, वाणी मंथन, सेवा-पूजा आदि। इनसे तन स्वस्थ तथा मन शांत रहता है। मानसिक शक्ति में वृद्धि होती है।

(3) कानः- कान मधुर स्वर (संगीत) सुनना चाहते हैं। मन बहलाने के लिए, मन की थकावट दूर करने के लिए बच्चे-बड़े सभी फिल्मी संगीत का सहारा लेते हैं। आज के फिल्मी गीत श्रंृगार रस से भरे होते हैं। जिसे सुनकर बच्चे-युवा भविष्य के सपने देखने में खो जाते हैं, प्रेमी-प्रेमिका के कल्पनाओं मंे खो जाते हैं। इन सपनों में खोये हुए उनका बहुत सा समय नष्ट हो जाता है। वे वर्तमान के प्रति लापरवाह हो जाते हैं। आलस्य, अकर्मण्यता आ जाती है। पढ़ाई में मन नहीं लगता। मन की एकाग्रता भंग हो जाती है। मन की शांति नष्ट हो जाती है। छोटे बच्चांे की समझ में यह गीत चाहे न आते हों किंतु दिन भर गुनगुनाते रहने की वजह से उनके मन-मस्तिष्क पर इसका प्रभाव अवश्य पड़ता रहता है। अतः बच्चों को फिल्मी गानों से दूर रखना आवश्यक है। यदि हम फिल्मी गीत के बदले धार्मिक भजन सुनें तो मन को शांति प्राप्त होती है। एकाग्रता व याद शक्ति बढ़ती है।

(4) नाकः- नाक सुगंधी चाहते हैं। आजकल स्कूल व कालेजों के विद्यार्थी सुगंध (इत्र) का बहुत प्रयोग करते हैं। यहाँ तक कि साबुन, क्रीम, शेम्पु, तेल आदि पदार्थ भी सुगंध वाला ही प्रयोग करते हैं। इस प्रकार बच्चों का ध्यान पढ़ाई से कुछ विचलित हो, दिखावे व फैशन में लग जाता है। ये गंध उत्तेजक भी होते हैं। अतः सुगंधों का त्याग कर सादगी से रहना चाहिए।

(5) त्वचाः- त्वचा कोमल स्पर्श चाहती हैं। इसके लिए कोमल गद्देदार बिस्तर, रजाई आदि का उपयोग किया जाता है। जो बाद में कुवासनाओं को जगाने का कारण बनती है। इसलिए विद्यार्थी को कोमल गद्देदार बिस्तरों पर नहीं सोना चाहिए। बालक-बालिकाओं में पारस्परिक स्पर्श से भी उत्तेजना जाग्रत हो जाती है। कई बालक बालिका आपस में खेलते हुए, एक दुसरे को गुदगुदी करते हुए, पकड़ते-खींचते-धक्का देते हुए दिखते हैं। हम सोचते हैं कि ये तो बच्चे हैं, इन्हें कुछ असर नहीं हो रहा होगा किंतु त्वचा स्पर्श के कारण उत्तेजना, मनोविकृति की शुरूआत होती रहती हैै। इस कारण बालक-बालिका बार-बार एक दूसरे का स्पर्श करते पाये जाते हैं। अतः छोटे लड़के-लड़कियों को भी स्पर्श से परहेज करना चाहिए।

इंद्रियों को संयमपूर्वक, विवेक से इन विषय (शारीरिक) सुखों में जाने से रोका जाये तथा पूर्णब्रह्म अक्षरातीत श्रीराजश्यामाजी के चरणों में ध्यान लगाया जाये, तभी शाश्वत सुख व शांति प्राप्त हो सकती है। क्योंकि सच्चे आनंद के स्रोत वे हीे हैं।