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Baal Yuwa Sanskar - बाल युवा संस्कार
है। मानसिक शांति व एकाग्रता नष्ट हो जाती है, स्मरण शक्ति कमजोर हो जाती है। बाद में समझ में आता है कि भोगों को हमने नहीं भोगा, भोगों ने हमकोे भोग लिया अर्थात् हमारी शारीरिक, मानसिक व आत्मिक शक्ति को खा लिया गया। ‘‘भोगा न भुक्ता वयमेव भुक्ता’’ भतृहरि । जिस प्रकार खुजलाने पर खुजली कुछ देर के लिए शांत तो हो जाती है किंतु कुछ ही देर में और ज्यादा खुजली होने लगती है, जख्म भी बढ़ जाता है, साथ ही नाखुनों के विष से हमारा रक्त भी दूषित हो जाता है। उसी प्रकार भोगों से क्षणिक तृप्ति का अनुभव तो होता है किंतु तृष्णा तो बढ़ती ही जाती है, साथ ही तन-मन, जीवन ही विषमयी होता जाता है। अच्छे-अच्छे पढ़ने वाले बच्चे भी इन सुखों के चक्कर में पड़कर पढ़ाई में कमजोर हो जाते हैं। पढ़ाई में तथा काम में मन नहीं लगता है, वे आलसी व विलासी हो जाते हैं। हर पल काल्पनिक सुखों की दुनिया मंे खोये रहते हैं। उनका ध्यान भंग हो जाता है, मन विचलित हो जाता है। एकाग्रता नष्ट होने से याददाश्त भी कमजोर हो जाती है। बुद्धि के सुचारू रूप से कार्य करने के लिए एकाग्रता की आवश्यकता होती है और एकाग्रता के लिए जरूरी है- इंद्रियों का संयम। यही स्मृति शक्ति का रहस्य है। भोगवृत्ति व गलत राह में पड़ा हुआ विद्यार्थी पढ़ाई मंे ध्यान केंद्रित नहीं कर सकता। देरी से सोना, देरी से उठना, व्यायाम न करना, दोस्तों के साथ घूमना-फिरना, फैशनपरस्ती आदि कई अवगुण उनके अंदर आ जाते हैं। जो विद्यार्थी परीक्षा के दिनों में दुनिया के सुखों में फँस जाते हैं, वे प्रायः परीक्षा में असफल हो जाते हैं, चाहे उन्होंने वर्ष भर अच्छी मेहनत क्यों न की हो। इंद्रिय-तृप्ति का मार्ग सदा पतन व नाश की ओर जाता है। जबकि त्याग व आत्मसंयम का मार्ग महान विकास का द्वार खोलता है। दुनिया में भी कुछ कर के दिखाना है तो वह भी इंद्रिय-संयम के बिना कभी भी संभव नहीं। विद्यार्थी जीवन में पूर्ण रूप से शारीरिक व मानसिक विकास के लिए इंद्रिय-संयम की अत्यंत आवश्यकता है। अब पाँचों इंद्रियों के विषय में अलग-अलग विचार करेंगे।

(1) जिह्वाः-आज का मनुष्य जिह्वा के स्वाद में बहुत विवेकहीन हो गया हैै। भोजन पौष्टिक व स्वास्थ्यवर्धक है या नहीं, इसका वह विचार नहीं करता। उसके लिए भोजन तो बस स्वादिष्ट होना चाहिए। स्वादिष्ट, तीखे, खट्टे, मीठे, चटपटे भोजन खाते-खाते शरीर बीमार पड़ जाता है, फिर भी इनके बिना रहा नहीं जाता। पेट भर जाता है किंतु मन नहीं भरता। भीष्म पितामह जी कहते हैं कि ‘‘सभी उत्तमोत्तम स्वादों का संगम जिह्वा के सिरे पर क्षण भर के लिये होता है। गले की नली के नीचे उतरने पर तो सभी चीजें एक समान हो जाती हैं।’’ अतः हमेशा भूख से थोड़ा कम ही भोजन करना चाहिए, चाहे भोजन कितना ही स्वादिष्ट क्यों न हो। बिना कड़ी भूख लगे बार-बार भोजन नहीं करना चाहिए। नहीं तो एक दिन ऐसी स्थिति आ सकती है कि आप भोजन करने लायक ही न रहें। जिस प्रकार अग्नि में बहुत सारी लकड़ी एक साथ डाल देने पर अग्नि बुझ जाती है, उसी प्रकार जब हम स्वाद के लिए भूख से ज्यादा भोजन ठूँस-ठूँस कर खा लेते हैं तो जठराग्नि मंद पड़ जाती है और खाना पच नहीं पाता। धीरे-धीरे पाचन शक्ति इतनी कमजोर हो जाती है कि थोड़ा भोजन पचाना भी मुश्किल हो जाता है। जिससे शरीर दिनोदिन कमजोर होता जाता है। अपचन के कारण पेट में गंदगी बढ़ती जाती है, जिससे शरीर अनेक प्रकार की बीमारियों से ग्रसित हो जाता है। कहावतें है-‘‘आधा पेट योगी, पौन पेट भोगी, भर पेट रोगी’’, ‘‘जीने के लिए खाओ, खाने के लिए मत जियो’’। खट्टे, तीखे, अधिक मीठे, अधिक नमकीन,