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Baal Yuwa Sanskar - बाल युवा संस्कार
दूर करने व गुणों को धारण करने की प्रवृत्ति होनी चाहिए।

(37) छुट्टियों को टी.वी. देखने व खेलने-कूदने में ही व्यर्थ नहीं गँवाना चाहिए। बल्कि कोई न कोई जीवनोपयोगी, रचनात्मक कार्य सीखना व करना चाहिए।

(38) अनजान व्यक्ति से कोई भी वस्तु या खाद्य पदार्थ नहीं लेना चाहिए।

(39) जन्मदिन, नया साल, होली, दिवाली आदि उत्सवों में, पार्टियों में फिजूल खर्ची करने के बजाय ‘श्रीमुखवाणी’ का पाठ या ‘मेहर सागर’- ‘तारतम’ का पाठ रखना चाहिए। तथा श्रीराजजी महाराज को भोग लगाकर सबको प्रसाद बाँटना चाहिए। इस प्रकार अपनी खुशी में श्रीराजजी व समस्त सुंदरसाथ को भी शामिल करना चाहिए। दुख के अवसर पर भी श्रीराजजी के पूजन से ही सारे कर्म करने चाहिए।

(40) विद्याः-सब धनों में विद्या एक सर्वोत्तम धन है, इसे न कोई छीन सकता है, न खरीद सकता है। यह धन बाँटने से कम नहीं होता बल्कि बढ़ता ही जाता है। राजा केवल अपने देश में पूजा जाता है जबकि विद्वान सर्वत्र पूजा जाता है। विदेश में जाने पर या विपत्ति में विद्या ही मित्र के समान सहायता करती है। विद्या मनुष्य का गुह्य धन कहा जाता है। विद्या विहीन मनुष्य पशु के समान है। चाणक्य नीति 3/8 में कहा गया है- ‘‘विद्यारहित मनुष्य, रूप व यौवन से संपन्न् होने पर भी एवं बड़े कुल में उत्पन्न् होने पर भी, विद्वानों की सभा में उसी प्रकार शोभा नहीं पाते जैसे बिना सुगंध का पुष्प।’’ मनुस्मृति 2/154,156 में कहा गया है- ‘‘न अधिक आयु के होने से, न सफेद बालों से, न धन से, न भाई बंधुओं से कोई बड़ा कहलाता है किंतु तरुण होकर भी जो विद्वान होता है, वही बड़ा कहलाता है।’’ विद्या न पढ़ने से बालक मूर्ख रह जाता है। जीवन भार रूप हो जाती है, जगह-जगह अपमान होता है। अतः विद्या के अभ्यास करने में सांसारिक सुखों का त्याग और महान कष्ट का सामना भी करना पड़े तो पीछे नहीं हटना चाहिए। तथा स्वाद, भोग, आलस्य, निद्रा, प्रमाद आदि को विद्या में बाधक समझकर त्याग देना चाहिए।

माता-पिता के कर्तव्य

इस संसार में हर माँ-बाप चाहते हैं कि उनका बच्चा सुखी हो, समृद्ध हो, उसका भविष्य उज्जवल हो, परंतु अनजाने में अपने बच्चों को संसार का हर सुख देने के प्रयास में वे उन्हें भौतिकवाद (शारीरिक सुखों) की ऐसी खाई में धकेल देते हैं, जिसमें उन्हें दुख, अशांति, बीमारी के सिवा कुछ नहीं मिलता। बच्चांे को सुख देने की चाहना में बचपन से ही उन्हें स्वादिष्ट, तीखे, खट्टे, चटपटे, मीठे खाद्य पदार्थ, ठंडे पेय पदार्थ, बाजारू मिठाई, नमकीन आदि की आदत लगा दी जाती है। अन्य भौतिक सुखों टी.वी., म्युजिक, फैशनेबल कपड़ों की आदत डाल दी जाती है, तथा इन सुखों की प्राप्ति हेतु धन कमाने का लक्ष्य सिखाया जाता है। वे समझते हैं कि वे अपने बच्चों को सुख दे रहे हैं और उन्हें जीवन का सही रास्ता बता रहे हैं परंतु यह उनका एक भ्रम मात्र है।  वे जिन भौतिक वस्तुओं से स्वयं सुख-शांति प्राप्त नहीं कर सके, उनसे अपने बच्चों को सुख देने की चेष्टा करते हैं परंतु वास्तव में वे अपने बच्चों को सुख नहीं, एक धीमा जहर दे रहे हैं, जिसके प्रभाव से उनके बच्चे असंयमी, भोगी, आलसी, विलासी, स्वार्थपरायण, अशिष्ट, बेईमान, व्यभिचारी हो जाते हैं। वे भौतिकवाद में डुबकर संस्कार विहीन हो जाते हैं। इन भोगों से उन्हें क्षणिक सुख तो मिलता है किंतु जीवन शक्ति का (शारीरिक, मानसिक व आत्मिक रूप से) जो नुकसान होता है उससे बाद में अनंत दुख भी सहन करने पड़ते हैं। माँ-बाप बचपन से ही उचित संस्कार पर ध्यान नहीं देते हैं और बड़ा होने के बाद लड़का-लड़की जब बिगड़ जाते हैं तो उन्हें डाँटते हैं किंतु लाख प्रयास से भी उन्हें सुधार पाना कठिन होता है। क्योंकि संस्कारित करने का समय