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Baal Yuwa Sanskar - बाल युवा संस्कार
होने पर वे उसकी कीमत नहीं समझ पाते। धन का अपव्यय दुव्र्यसनों में, दिखावे में, अय्याशी में करने वालों की दुर्दशा व अवनति होती है।

(22) माता-पिता व घर के बड़ों की तथा गुरू की सेवा व आज्ञापालन करना चाहिए। इससे हमें उनका आशीर्वाद प्राप्त होता है, जिससे हमारे मुश्किल काम भी आसान हो जाते हैं। मनुस्मृति 2/121 में कहा गया है-

‘‘अभिवादनशीलस्य नित्यं वृद्धोपसेविनः। चत्वारि तस्य वर्धन्ते आयुर्विद्या यशोबलम्।।’’

अर्थात् ‘‘जो प्रतिदिन बड़ों को प्रणाम करता है और बड़ों की सेवा करता है, उसकी आयु, विद्या, कीर्ति व बल- ये चारों बढ़ते हैं।’’ जो माता-पिता की सेवा नहीं करते और उन्हें कष्ट पहुँचाते हैं, उनके पुत्र/पुत्री भी उनके साथ ऐसा ही व्यवहार करते हैं। जीवन में अनेक सुख सुविधाओं के होने पर भी उन्हें कभी शांति प्राप्त नहीं होती।  हमें श्रवण कुमार से सीख लेनी चाहिए, जिसने अपने अंधे माँ-बाप की इच्छा पूरी करने के लिए उन्हें अपने  कंधे पर बैठाकर चारों धाम की तीर्थ यात्रा करायी। रामजी ने भी अपने पिता की आज्ञा पालन के लिए 14 वर्ष का वनवास खुशी-खुशी स्वीकार कर लिया था।

(23) माता-पिता, गुरू व बड़े-बुजुर्गों की डाँट शांतिपूर्वक सहन करनी चाहिए। हमें गलती न लगे तो भी     विरोध नहीं करना चाहिए। बल्कि अपनी गलती खोजने का प्रयास करना चाहिए। हमारी झूठी प्रशंसा करने वाला हमारा सच्चा हितैषी मित्र नहीं होता। हमारी गलतियों को बताने वाला ही सच्चा हितैषी मित्र होता है।

(24) माता-पिता जो भी खाने व पहनने के लिए दें, उसमें संतोष करना चाहिए। उनसे झगड़ा करके उन्हें दुखी नहीं करना चाहिए। माँ-बाप अनेक कष्ट सहन करके, भूखे रहकर भी बच्चों का पालन-पोषण करते हैं। उनकी कृपा को नहीं भूलना चाहिए। भाईयों में भी आपस में प्रेम व त्याग की भावना होनी चाहिए। जैसे राम ने भरत के लिए राज्य छोड़ा तो भरत ने भी राम के लिए राज्य छोड़ दिया।

(25) कुसंगः- अच्छे बालकों को बुरे लड़कों की संगत नहीं करनी चाहिए। अयोग्य (बुरे) व्यक्ति के पास बैठने से मनुष्य में दुर्गुण आ जाते हैं और बुरे कर्म करने की प्रवृत्ति बनने लगती है। बुरे लड़के-लड़कियों की संगत से अच्छे बच्चे भी बिगड़ जाते हैं। नशीली वस्तुएँ गुटखा, सिगरेट आदि पीना सीख जाते हैं। स्कूल से भाग कर सिनेमा जाना आदि गलत काम सीख जाते हैं। जो उनके पतन का कारण बनते हैं। हितोपदेश 89 में कहा गया है ‘‘दुर्जन विद्यावान हो तो भी उसे छोड़ देना चाहिए। क्योंकि रत्न से शोभायमान सर्प क्या भयंकर नहीं होता।’’

“दुर्जनस्य हि संगेन सुजनोऽपि विनश्यति। प्रसन्न् जलमित्याहु कर्दमैः कलुषी कृतम्।।’’

‘‘स्वच्छ जल को जिस प्रकार कीचड़ दूषित कर देता है, उसी प्रकार दुर्जनों के संग से सज्जन का भी पतन हो जाता है। उनमें भी दुर्बुद्धि आ जाती है, ऐसा विज्ञजनों का कथन है।’’

हितोपदेश 6 के अनुसार ‘‘दुर्जन से मनोरथ पूरा हो भी जाये तो भी परिणाम अच्छा नहीं होता जैसे अमृत में विष के मिलने से वह अमृत भी मार डालता है।’’ जैसे दुर्योधन के संग के कारण कर्ण आदि का नाश हुआ। अतः दुर्जनों का संग सर्वथा त्याज्य है।

(26) सत्संगः- सत्संग का तात्पर्य यह है कि आचार और विचार में अपने से श्रेष्ठ पुरूषों की संगति में बैठना। इससे हमारे भीतर सद्गुण आते रहते हैं व दुर्गुण निकलते रहते हैं। सत्संग से मूर्ख से मूर्ख व्यक्ति भी, पतित से पतित व्यक्ति भी सुधरकर महाविद्वान व चरित्रवान बन जाता है। जैसे नारद जी के सत्संग से वाल्यभील डाकू, वाल्मिकि ऋषि बन गये थे।

(27) सत्यः- हमेशा सत्य बोलना चाहिए, सत्य को मानना चाहिए, सत्य का आचरण करना चाहिए। ईमानदारी से हर कार्य करना चाहिए। छल-कपट, बेईमानी नहीं करनी चाहिए। किसी को धोखा नहीं देना चाहिए।

(28) संघर्षशीलताः- सफलता की मंजिल तक पहुँचने के