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Baal Yuwa Sanskar - बाल युवा संस्कार

श्री निजानंद बाल-युवा संस्कार

भूमिकाः- आज के भौतिकवादी वातावरण में उचित संस्कार के अभाव में बच्चे बिगड़ते जा रहे हैं। उनके अंदर विलासिता, स्वेच्छाचारिता, असंयमिता, आलस्य, प्रमाद, अकर्मण्यता, दुव्र्यसन, सेवाभाव का अभाव, माता-पिता की आज्ञा न मानना, भविष्य के प्रति लापरवाही, चोरी, झूठ, छल-कपट, स्वार्थ आदि अनेक अवगुण आते जा रहे हैं। जिस कारण उनके जीवन से सुख-शांति नष्ट होती जा रही है। वे शारीरिक व मानसिक रूप से कमजोर होते जा रहे हैं। इसका मुख्य कारण आधुनिक पाश्चात्यवादी शिक्षा पद्धति है, जिसमें संयम, सदाचार, ब्रह्मचर्य, सात्विक आहार जैसे नैतिक सिद्धांतो पर ध्यान नहीं दिया जाता। प्राचीन काल में बच्चों को गुरूकुलों में शिक्षा के लिए भेजा जाता था। वहीं आश्रम में रहते हुए सदाचार एवं संयमपूर्वक ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए शिक्षा ग्रहण करनी पड़ती थी, जिससे उनका शारीरिक व मानसिक विकास तेजी से हो। दुनिया का ज्ञान भी सिखाया जाता था किंतु उन्हें समझाया जाता था कि ये सब जीवन का लक्ष्य नहीं, अपितु साधन हैं। अपने शिष्यों को आचार युक्त बनाना गुरूओं का मुख्य लक्ष्य होता था, इसलिए उन्हें आचार्य कहते हैं। गुरू और शिष्य 24 घण्टे साथ-साथ रहते थे। उनके हर क्रियाकलाप पर गुरू की नजर रहती थी। मनुष्य जीवन का महत्व, ब्रह्मचर्य का महत्व, सदाचार, सात्विक जीवन का महत्व आदि समझाया जाता था। काम, क्रोध, लोभ, मोह, ईष्र्या, द्वेष, अहंकार आदि विकारों से बचने का तरीका सिखाया जाता था। गुरू भी सदाचारी होते थे तथा शिष्यों से भी सदाचार का पालन करवाते थे। आज की शिक्षा पद्धति में यह सब संभव नहीं दिखता है। माता-पिता भी अज्ञानतावश अपने बच्चों को उचित संस्कार नहीं दे पाते, बल्कि भौतिक सुखों में डुबोकर उनका जीवन नष्ट कर देते हैं। जिसका परिणाम उन्हें भी भविष्य में भुगतना पड़ता है।

आज का खराब सामाजिक वातावरण भी इसके लिए मुख्य रूप से जिम्मेदार है। पैसों के लिए कई टी.वी. चैनल वाले, फिल्म वाले तथा कई पत्रिका एवं समाचार पत्र के प्रकाशक कितना भी नीचे गिरने को तैयार हैं। देश व समाज के भविष्य की उन्हें कोई चिंता नहीं। ऐसी परिस्थितियों से हमारे बच्चों के चरित्र की रक्षा हेतु उचित संस्कारों का ज्ञान आवश्यक है। इसी लक्ष्य को लेकर यह किताब लिख रहा हूँ, जिससे सभी बच्चों का भविष्य संस्कारित, उज्जवल व तेजस्वी बने। एक बच्चे का भविष्य भी सुधर सका तो मैं अपना प्रयास सफल समझूंगा।

प्रणाम जी

आपका शुभेच्छक

सुशांत निजानंदी

इंद्रिय संयम

आजकल शहरों का अप्राकृतिक जीवन बालक तथा बालिकाआंे के सम्मुख अधःपतन तथा नाश के दरवाजे खोल रहा है। आज के भौतिकवादी जीवन मंे इंद्रिय संयम का नामोनिशान भी देखने को नहीं मिलता। चारांे तरफ भोगवृत्ति का माहौल है। सभी ज्यादा से ज्यादा शारीरिक सुखों को भोगने में लगे हैं। चाहे उन भोगों से बाद में कितना ही नुकसान होता हो, इसकी किसी को कोई चिंता नहीं है। शारीरिक व मानसिक शक्ति की रक्षा तथा वृद्धि के लिए इंद्रिय-संयम करने की अत्यंत आवश्यकता है। ईश्वर ने मनुष्य को पाँच ज्ञान-इंद्रियाँ प्रदान की हैं, जिससे वह सद्मार्ग में प्रवृत्त हो सके ंिकंतु मनुष्य इनका प्रयोग पशुओं की भांति मात्र भौतिक सुखों को भोगने में करता है। ये इंद्रियाँ एवं उनके विषय निम्नलिखित हैं-

(1) जिव्हा - रस (स्वाद) (2) आँखें - रूप (फिल्में) (3) कान - शब्द (गाने) (4)नाक - सुगंधि (5) त्वचा - स्पर्श (कोमल)

मनुजी कहते हैं कि जिस प्रकार आग में घी डालने पर आग बुझती नहीं है बल्कि बढ़ती ही जाती है, उसी प्रकार इन इंद्रियों के द्वारा इन विषयभोगों का भोग करते-करते शरीर रोगग्रस्त व नष्ट हो जाता है किंतु इनकी चाहना (तृष्णा) कभी नहीं खत्म होती। हम बूढ़े हो जाते हैं किंतु तृष्णा बूढ़ी नहीं होती। जैसे जैसे इन सुखों को हम भोगते जाते हैं, हमारी शारीरिक व मानसिक शक्ति नष्ट होती जाती