लेखक-
राजन स्वामी
प्रकाशक:
श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, सरसावा
जिला- सहारनपुर (उ. प्र.)
प्रकाशक:-
श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ, सरसावा
जिला- सहारनपुर (उ. प्र.)
सर्वाधिकार:- प्रकाशकाधीन इस पुस्तक में प्रकाशित समस्त सामग्री सत्वाधिकारी श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ ट्रस्ट के पास सुरक्षित है। अतः किसी भी व्यक्ति या संस्था के द्वारा इस पुस्तक का नाम, फोटो, कवर डिज़ाइन एवं प्रकाशित लेख इत्यादि को किसी भी तरह से तोड़-मरोड़कर आंशिक या पूर्ण रूप से किसी पुस्तक, पत्रिका, समाचार पत्र या वेबसाइट में प्रकाशित करने से पूर्व प्रकाशक की अनुमति लेना अनिवार्य है, अन्यथा समस्त कानूनी हर्जे खर्चे के जिम्मेवार होंगे। किसी भी प्रकार के मुकद्दमे के लिए न्याय क्षेत्र सरसावा, जिला- सहारनपुर ही होगा।
प्राक्कथन
प्रिय आत्मीय सुहृद जनों! इस अनन्त सृष्टि में हमारे पृथ्वी लोक जैसे असंख्यों पृथ्वी लोक हैं, जहां मानवीय प्रजा का निवास है। एकमात्र मानव जाति को ही यह सौभाग्य प्राप्त है कि वह स्वयं के वास्तविक स्वरूप को जान सकती है तथा प्रेम एवं आनन्द के अनन्त सागर, उस सच्चिदानन्द परब्रह्म का प्रत्यक्ष साक्षात्कार कर अखण्ड आनन्द के समुद्र में क्रीडा कर सकती है। किन्तु यदि वह वर्गवाद, जातिवाद तथा क्षेत्रवाद की कट्टर संकीर्णता से उत्पन्न होने वाली दुर्गन्धि से ग्रसित हो जाती है तो बौद्धिक दृष्टि से परम सत्य को जानते हुए भी उसका प्रत्यक्ष साक्षात्कार करने के लाभ से वंचित हो जाती है और उसका यह मानव जीवन निष्फल हो जाता है।
अपौरुषेय वेदों का उद्घोष है कि
‘मित्रस्य चक्षुषा अहं सर्वाणि भूतानि समीक्षे’
मैं संसार के सभी प्राणियों को मित्र की दृष्टि से देखूं।
‘सर्वा आशा मम् मित्रं भवन्तु’
सभी दिशायें मेरी मित्र हों। दुर्भाग्यवश यदि मनुष्य के अन्दर जातीय अथवा नस्लीय घृणा की ज्वाला धधकने लगती है तो वेद के ये अमृतमयी वचन भी उसका यथार्थ मार्ग दर्शन नहीं कर पाते हैं। वह इतना संवदेनाहीन हो जाता है कि घृणा तथा तिरस्कार की पीड़ा में सिसकते हुए मानवीय हृदय की पुकार उसे सुनायी ही नहीं देती। यद्यपि वह
धार्मिकता की चादर ओढ़कर स्वयं को कोमल हृदय वाला दर्शाने का प्रयास अवश्य करता है।
इतिहास साक्षी है कि विगत पांच हजार वर्षों से भारतीय जनमानस जातीय विद्वेष के जिस ज्वालामुखी पर बैठा है, उस पर बैठे-बैठे उसने विनाश का वह ताण्डव देखा है, जिसमें विदेशी आक्रान्ताओं द्वारा न जाने कितनी बार कटे हुए शिरों की मीनारें बनायी गयीं, रक्त की नदियां बहीं, गांव, नगर और शिक्षण संस्थान नष्ट-भ्रष्ट हुए। इतना होते हुए भी जिनके हाथों में धर्म ध्वजा थी, वे लोग धृतराष्ट्र की भांति अपनी आंखें मूंदे रहे और आलस्य-प्रमाद के सिंहासन पर बैठे-बैठे नीरो की तरह बांसुरी बजाते रहे। उनके मन में यह भावना ही पैदा नहीं हुई कि 1200 जातियों में बंटे हुए हिन्दू समाज को हम प्रेम के धागे से बांधने का कुछ प्रयास तो करें।
यह राष्ट्र मर्यादा पुरुषोत्तम राम, योगेश्वर श्री कृष्ण, भगवान बुद्ध और महर्षि दयानन्द जैसे महापुरुषों की क्रीड़ा भूमि है, जिसमें उन्होंने समाज के सबसे अधिक उपेक्षित व्यक्ति को गले लगाकर सारे संसार को मानवीय प्रेम की शिक्षा दी है। यह ग्रन्थ उसी भावना को ध्यान में रखकर लिखा गया है। इसमें इसी सत्य को दर्शाया गया है कि मानव की केवल एक ही जाति होती है। चार वर्ण तो गुण-कर्म के अनुसार चार पद हैं। ये जन्मजात नहीं है अपितु गुण-कर्म और स्वभाव के अनुसार इनमें परिवर्तन होता रहता है। समस्त हिन्दू समाज को 1200 जातियों में बांटकर घृणा एवं द्वेष की अग्नि में जलाते रहना एक भयंकर पाप है, वैदिकता का विरोध है और राष्ट्र के विनाश की खाई खोदना है।
मुझे विश्वास है कि पाठक गण इस ग्रन्थ को निष्पक्ष हृदय से विचार कर अपनी अन्तरात्मा की पुकार सुनेंगे और उसे आत्मसात् करने का प्रयास करेंगे। इसमें होने वाली त्रुटियों को कृपया सुधार लें तथा संशोधन हेतु मुझे भी सूचित करने का कष्ट करें।
आपका
राजन स्वामी
श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ सरसावा
1
अविद्या के गहन अन्धकार में कर्मकाण्ड की टेढ़ी-मेढ़ी पगडण्डियों पर चलने मात्र से स्वयं को कृतार्थ समझने वाले नादान मानव! तुमने अस्पृश्यता एवं भेदभाव की यह फटी हुई गन्दी चादर क्यों ओढ़ रखी है? तू अपने मुख से तो वेद का यह मन्त्र अवश्य ही गाता रहता है कि
‘तत्र को मोहः कः शोकः एकत्वम् अनु पश्यतः’
(जो सबमें एक समान चैतन्यता को देखता है, वह मोह रूपी अज्ञान एवं शोक से परे हो जाता है) किन्तु ऐसा लगता है कि तेरी कथनी और करनी में तो कोई सामंजस्य ही नहीं है।
कलकल निनादिनी गंगा अविरल रूप से प्रवाहित हो रही है। वल्कल वेशधारी भगवान राम अपनी धर्मपत्नी सीता एवं अनुज लक्ष्मण के साथ रथ से उतरते हैं। शृंग्वेरपुर का निषाद राज गुह उन्हें देखकर प्रफुल्लित हो उठता है। वह आगे बढ़कर मर्यादापुरुषोत्तम श्री राम से गले मिलता है और उनका प्रेम भरा स्वागत करता है-
राज गुह - भगवन्! मेरा यह सम्पूर्ण राज्य आपकी सेवा में समर्पित है।
भगवान राम- प्रिय सखे! मैं पिता की आज्ञानुसार 14 वर्षों तक वन में ही निवास करुंगा। एक वानप्रस्थी के रूप में मैं जटायें धारण करूंगा तथा मात्र फल एवं कन्द मूल का ही सेवन करूंगा।
रात्रि में घास के आसन पर सीता और राम को सोते हुए देखकर निषादराज गुह हतप्रभ रह जाता है। वह लक्ष्मण जी को विश्राम करने का आग्रह करता है किन्तु उनके मना कर देने पर गुह की आंखों से आंसुओं की धारा फूट पड़ती है।
श्रीराम मर्यादापुरुषोत्तम हैं, चक्रवर्ती सम्राट दशरथ के पुत्र हैं और करोड़ों लोगों के आराध्य हैं। उनकी घनिष्ट मित्रता किससे है? उस निषादराज गुह से है जो आजकल के पौराणिक बन्धुओं की दृष्टि में निम्न जाति का है। अमर कोश में तो निषाद का अर्थ ही चाण्डाल होता है।
धर्म की मर्यादा का अक्षरशः पालन करने वाले भगवान राम ने लंका विजय के पश्चात् अपने राजतिलक में निषादराज गुह को विशेष रूप से आमन्त्रित किया था क्योंकि वे उनके अभिन्न मित्र थे। विश्ववन्द्य मर्यादा पुरुषोत्तम राम की चित्र-पूजा को ही सर्वोपरि मानने वाले उन लोगों को आत्म-मन्थन करना चाहिए जो जातीय संकीर्णता की अग्नि में दिन-रात धू-धू करके जलते रहते हैं।
2
भीलनी शबरी अपनी कुटिया की ओर आने वाले मार्ग को स्वच्छ कर रही है तथा मन ही मन चिन्तन भी करती जा रही है-
(स्वगत)- मुझे पूर्ण विश्वास है कि मेरे गुरुदेव का कथन अवश्य ही सत्य सिद्ध होगा और भगवान श्री राम मेरी कुटिया में निश्चित रूप से
पधारेंगे।
(झाड़ू लगाते हुए)- मैंने वन में बेर के एक-एक वृक्ष के फलों को खाकर यह परीक्षण किया है कि कौन से वृक्ष का फल मीठा है और कौन सा खट्टा ।
न जाने, वे दिन कब आयेंगे जब श्री राम यहां पधारेंगे और मैं उन्हें अपने मीठे बेर खिलाकर उनकी सेवा करुंगी ?
शबरी की इच्छा पूर्ण होती है। सीता की खोज करते-करते भगवान श्रीराम अपने अनुज लक्ष्मण के साथ उनकी कुटिया में पधारते हैं। प्रभु श्रीराम का दर्शन पाकर और उन्हें अपने मीठे बेर खिलाकर शबरी धन्य-धन्य हो जाती है।
रूढ़िवादिता तथा पाखण्ड के घने बादलों में वैदिक ज्ञान रूपी सूर्य के छिप जाने का ही यह परिणाम है कि स्वयं को श्रीराम का परम भक्त मानने वाले वैष्णव जन छूतछात को ही धर्म का विशेष अंग मानते हैं। इन्हीं के सन्दर्भ में स्वामी विवेकानन्द जी ने एक बार कहा था कि इनका उपास्यदेव है- ‘भात की हण्डी’ तथा मन्त्र है- ‘मुझे मत छुओ, मैं पवित्र हूँ’ ।
छुआछूत की कालिमा से बड़े-बड़े महापुरुष भी ग्रसित रहे हैं। काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के संस्थापक पण्डित मदन मोहन मालवीय तथा अत्मिक दृष्टि से विश्व बन्धुत्व (एकात्म मानववाद) का उद्घोष करने वाले पण्डित दीन दयाल उपाध्याय जन्मना ब्राह्मण थे, फिर भी ये दोनों महापुरुष एक दूसरे का छुआ हुआ नहीं खाते थे ।
वेद-विरोधी मान्यताओं के पोषक किसी जात्याभिमानी ब्राह्मण ने उत्तर काण्ड की रचना करके
‘वाल्मिकीय रामायण’
में मिलावट की है। उसने कल्पित शूद्र-शम्बूक का वध करवाकर मर्यादा पुरुषोत्तम राम के उज्ज्वल चरित्र को कलंकित करने का दुष्प्रयास किया है।
युद्ध काण्ड के 128 वें सर्ग के पूर्ण होते ही वाल्मीकीय रामायण सम्पूर्ण हो जाती है। इसके पश्चात् उत्तर काण्ड के प्रथम सर्ग का प्रारम्भ होना यही सिद्ध करता है कि यह किसी जाति-अभिमानी स्वार्थी विद्वान् की रचना है जिसमें शम्बूक की कहानी गढ़ कर शूद्रों को ध्यान-तपस्या के अधिकार से वंचित करने का षड्यन्त्र किया गया है।
‘वाल्मीकि रामायण’
में भगवान श्री राम स्वयं शबरी से पूछते हैं कि आपकी तपस्या में किसी प्रकार की कोई बाधा तो नही है ? क्या आपकी तपस्या दिन प्रतिदिन बढ़ रही है? शबरी कहती है कि आपके दर्शन से मुझे तपः सिद्धि प्राप्त हो गयी है। ऐसी स्थिति में तप करने वाले शम्बूक को भगवान राम स्वयं मृत्युदण्ड कैसे दे सकते है ? यदि वाल्मीकि ऋषि शबरी को सिद्धा और सिद्ध पुरुषों से पूजिता कह सकते हैं तो वे शम्बूक को तप करने के कारण मृत्यु का अधिकारी कैसे सिद्ध कर सकते है?
जब वैश्य पिता तथा शूद्रा माता से उत्पन्न हाने वाले वर्ण संकर श्रवण कुमार को
‘वाल्मीकि रामायण’
दृढ़ता पूर्वक ब्राह्मण और ऋषि कह सकती है तो मात्र तप करने से शम्बूक को अपराधी और वध्य नहीं माना जा सकता । इस प्रकार यह कहानी पूर्णतया मिथ्या सिद्ध होती है।
(सन्ध्या का समय है। महाराज दशरथ हिंसक पशुओं का शिकार करने के लिये सरयू के किनारे भ्रमण कर रहे हैं। श्रवण कुमार अपने प्यासे माता-पिता के लिये जल लेने हेतु सरयू नदी गये हुए हैं। वे जैसे ही कमण्डल को जल में डूबोते हैं, दशरथ जी को ऐसा लगता है कि कोई जंगली भैंसा जल पी रहा है। वे अपना शब्द भेदी बाण छोड़ देते हैं जिससे श्रवण कुमार घायल हो जाते हैं और क्रन्दन करने लगते हैं।)
श्रवण- मुझे किसने बाण मारा है? मैं तो वन के कन्द-मूल खाकर ऋपि-जीवन बिताता था । मैं तो वल्कल वस्त्र पहनने वाला जटाधारी तपस्वी हूँ ।
(सामने दशरथ जी को देखकर श्रवण कुमार कहते हैं) मेरे अन्धे माता-पिता प्यासे हैं । वे जल के लिये मेरी प्रतीक्षा कर रहे हैं। आप मेरे शरीर से बाण निकाल कर मेरे पिता को सूचना दे दीजिए अन्यथा वे आपको भयंकर श्राप दे देंगे।
श्रवण कुमार की मृत्यु के पश्चात् जब दशरथ उनके माता-पिता के पास जाकर सम्पूर्ण वृतान्त बताते है तो उनके मुख से सहसा ही निकल पड़ता है-
तपस्या में लगे हुए किसी ब्रह्मवादी मुनि के ऊपर जान बूझकर शस्त्र-प्रहार करने वाले पुरूष के मस्तक के सात टुकड़े हो जाते हैं। तुमसे अनजाने में ही यह पाप हुआ है, तभी तुम जीवित बच पाये हो। अब मुझे शास्त्रों की मधुर वाणी कौन सुनायेगा ?
उपरोक्त कथन यही दर्शाते हैं कि रामायण युग में वैश्यपिता तथा शूद्रा माता की सन्तान ब्रह्मवादी, ऋषि तथा तपस्वी कहलाने की शोभा धारण करती थी। श्रवण के माता-पिता भी तपस्यारत थे। ऐसी अवस्था में शम्बूक का प्रसंग पूर्णतया काल्पनिक सिद्ध होता हैं। उत्तर काण्ड के कई प्रसंग ऐसे हैं जो यही दर्शाते हैं कि यह वाल्मीकि जी के द्वारा नहीं लिखा गया है।
जन साधारण को तो सम्भवतः यह पता ही नहीं है कि महर्षि वाल्मीकि जन्मना ब्राह्मण नहीं थे। उन्होंने तप के द्वारा ब्रह्मर्षि का पद प्राप्त किया। वे मर्यादा पुरुषोत्तम राम के द्वारा भी सम्मानित रहे। भारतसार ग्रन्थ तो स्पष्ट रूप से दर्शाता है कि वाल्मीकि एक भीलनी के गर्भ से पैदा हुए तथा तप से ब्राह्मण बन गये (भिल्लिका गर्भ सम्भूतो वाल्मीकिश्च महामुनिः)।
इतना ही नहीं, मर्यादा पुरुषोत्तम राम के गुरु वशिष्ठ जी भी उर्वशी अप्सरा (गणिका) से उत्पन्न हुए थे और तप के द्वारा ही ब्राह्मणत्व को प्राप्त हुए थे। भविष्य पुराण, शिव पुराण, व्रजसूचि उ0 तथा भारतसार जैसे ग्रन्थ डिण्डिम घोष के साथ इसकी साक्षी देते हैं।
किन्तु! यह कैसी विडम्बना है कि वर्तमान समय में मांसाहारी, मद्यपायी और विषयी लोग स्वयं को जाति-अभिमान के कारण ब्राह्मण कहते हैं और आचरण से ब्राह्मणत्व को धारण करने वालों के प्रति द्वेष की भावना रखते है। ऐसे ही वेद विरोधी लोग शम्बूक की कल्पना करके सामाजिक समरसता को भंग करते है तथा
धार्मिक व्यवस्था को कलंकित करते हैं।
3
जिस महामनीषी की लेखनी से निकला हुआ वेदान्त दर्शन समस्त जगत को वैदिक सुगन्धि से भाव विभोर कर रहा है जिसके महाकाव्य महाभारत की अंश रूपा भगवदगीता सम्पूर्ण जगत का आध्यात्मिक मार्गदर्शन कर रही है, जिसने सांगोपांग वेदों का
अध्ययन करके अपने शिष्यों को पढ़ाया है, उस दिव्य व्यक्तित्व के स्वामी कृष्ण द्वैपायन वेद व्यास की माता भी शूद्रा (मल्लाहनी) ही थी।
जन्मना जातीय अभिमान के कीचड़ में नासिका पर्यन्त डूबे हुए पौराणिक बन्धुओं को यह स्वीकार ही नहीं था कि उनके आदर्श पुरुष वेदव्यास जी को एक शूद्रा माता की सन्तान माना जाय, अतः उन्होंने उपरिचर राजा की काल्पनिक कहानी गढ़ ली कि मानव के वीर्य से मछली का गर्भाधान हो गया। चिकित्सा विज्ञान का सामान्य ज्ञान रखने वाला भी यह जानता है कि अण्डज मछली में जरायुज मानव का गर्भ नहीं रह सकता।
प्रश्न यह भी होता है कि जब मछुआरों के द्वारा मछली का पेट फाड़ने पर एक बालक और एक बालिका दोनों ही निकले, तो राजा ने मात्र बालक को ही क्यों रखा? उसने सत्यवती नामक बालिका को क्यों धीवर को सौंप दिया ?
सम्पूर्ण वैदिक वाङ्मय में मात्र कर्म के आधार पर ही वर्ण का निर्धारण होना लिखा है, जन्म के आधार पर नहीं। यदि कारण है कि वेद व्यास जी के द्वारा नियोग विधि से अम्बिका एवं अम्बालिका से उत्पन्न होने वाले
धृतराष्ट्र और पाण्डु क्षत्रिय माने गये तथा दासी से उत्पन्न होने वाले महाज्ञानी विदुर जी धृतराष्ट्र के महामन्त्री बने ।
वेदादि दस विद्याओं का पण्डित महर्षि पुलस्त्य का पौत्र एवं विश्रवा मुनि का पुत्र रावण अपने बुरे कर्माें के कारण राक्षस कहलाया जबकि उसी युग में चाण्डाल कुल में जन्मे मतंग ऋषि ब्राह्मणत्व को प्राप्त हुए तथा विश्वामित्र जी ने अपने तपोबल से
‘ब्रह्मर्षि’
का पद प्राप्त किया।
स्वर्ग में देवराज इन्द्र के दरबार में उर्वशी, मेनका, धृताची, रम्भा आदि सैकड़ो अप्सरायें नृत्य किया करती थीं। उर्वशी से जहां वशिष्ठ जी की उत्पत्ति होती है, वही वह पुरुरवा की पत्नी बनती है। पुनः वह अर्जुन से प्रणय-याचना करती है। अर्जुन के द्वारा माता कहने पर वह क्रोधित होकर उन्हें नपुंसक होने का श्राप भी देती है। उसकी दृष्टि में अप्सरायें तो सबका मनोरंजन करने वाली गणिकायें हैं।
वेद व्यास जी के पिता महर्षि पराशर जहां चाण्डाली के पुत्र हैं, वहीं वेद व्यास जी के पुत्र योगिराज शुकदेव जी घृताची अप्सरा (गणिका) के पुत्र हैं। ये सभी विभूतियां विश्व वन्दनीय हैं, भले ही इन की मातायें निम्न कुलों से क्यों न रही हैं।
महर्षि वाल्मीकि भृगुवंशीय प्रचेता ऋषि के दशवें पुत्र थे किन्तु उनका विवाह एक शूद्रा स्त्री से हुआ था जिससे उनकी बहुत अधिक सन्तानें हुई। किरातों की संगति में ही उन्होंने दस्यु वृत्ति धारण की।
जन्मना जाति के भेदभाव से परिपूर्ण, घृणा के दावानल मे जलने वाले वर्तमान हिन्दू-समाज को यह आत्म-मन्थन करना पड़ेगा कि वह वेद-विरुद्ध मान्यताओं के पोषण में लगकर मानव जाति को खून के आंसू बहाने के लिये क्यों विवश कर रहा है?
4
हे सर्वशक्तिमान! सकल गुण निधान! सर्व ज्ञान प्रकाशक! सच्चिदानन्द स्वरूप परब्रह्म! तू तो दया, करुणा एवं प्रेम का सागर कहलाता है किन्तु तेरी छत्रछाया में बनी हुई इस सृष्टि में यह कैसी विचित्रता है कि एक ही मानव जाति में कोई दलित कहलाता है तो कोई सवर्ण। जब गीता के द्वारा तू स्वयं कहलाता है कि ब्राह्मण में, गाय, में कुत्ते में और चाण्डाल में जो एक ही समान चैतन्यता का अनुभव करता है, वही पण्डित है।
किन्तु यह अज्ञानी संसार तेरे उपदेशों का कितना पालन कर रहा है ? पत्थर के नारायण को तो 56 भोग लगाया जाता हैं किन्तु किसी दलित को एक सवर्ण अपने पास बैठाकर खाना खिलाने में भी कष्ट का अनुभव करता है। शालिग्राम और तुलसी के पौधे का तो विवाह रचाया जाता है किन्तु तेरे मन्दिर में प्रवेश करने मात्र से ही मन्दिर को भी अशुद्ध मान लिया जाता है।
तूने तो गीता के किसी भी श्लोक में नहीं लिखा है कि मैं किसी जड़ मन्दिर में रहता हूँ । तूने दोनों सेनाओं के मध्य गीता का उपदेश करने वाले श्री कृष्ण जी के द्वारा कहलाया है कि
‘ईश्वरः सर्वभूतानां हृद्देशेऽर्जुन तिष्ठति’
जब प्रत्येक प्राणी का हृदय ही मन्दिर है तो मानव-मानव में अस्पृश्यता का भाव क्यों है? मात्र सवर्ण को ही पुजारी बनाना और दलित को मन्दिर में प्रवेश तथा प्रसाद से भी वंचित करना कहां का न्याय है ?
जिस देश के गुरुकुलों में
‘ईशावास्यमिदं सर्वं यत् किंच जगत्यां जगत्’
का उद्घोष होता है, उस देश में
‘दलित’
और
‘सवर्ण’
शब्द कहाँ से आ गये ? दलित शब्द का अर्थ ही है- त्यागा हुआ ।
अपनी सत्ता से सर्वत्र व्यापक रहने वाला सर्व शक्तिमान परमात्मा भी जब एक अणु-परमाणु का भी त्याग नहीं कर सकता तो काल-कर्म के बन्धनों में फसे हुए इन तथा कथित स्वयम्भू पौराणिक धर्मगुरुओं को यह अधिकार किसने दे दिया कि वे अपने ही भाई बन्धुओं को
‘दलित’
कहकर तिरस्कृत करें ?
सवर्ण का आशय समान वर्ण से है। यदि मात्र ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य ही सवर्ण हैं तो जन्म के आधार पर किसी को भी शूद्र या दलित कैसे कहा जा सकता है ? क्या वह मानव नहीं है ?
द्वापर के उतरार्द्ध तथा महाभारत के पश्चात् जनमानस में होने वाली तमोगुण की वृद्धि ने आलस्य और प्रमाद का विस्तार किया, जिसके परिणाम स्वरूप वेदार्थ का सूर्य अस्ताचल को चला गया और चारों ओर वाममार्ग की घनघोर काली घटायें घिर गयीं। वर्तमान समय में धर्म की उज्ज्वल चादर पर कालिमा के जो धब्बे दिखायी दे रहे हैं, उस वाममार्ग के ही ये व्यक्त स्वरूप हैं।
अपनी पक्षपात् पूर्ण मानसिकता के कारण पौराणिक विद्वान् यजुर्वेद 31/11 के इस मन्त्र
‘ब्राह्मणोऽस्य....अजायत’
का अर्थ ऐसा करते हैं कि उस परमात्मा के मुख से ब्राह्मण, भुजाओं से क्षत्रिय, पेट से वैश्य तथा पैरों से शूद्रों की उत्पत्ति हुई । वे इस आधार पर यही करते हैं कि ब्राह्मण जन्मना श्रेष्ठ हैं क्योंकि वे मुख से उत्पन्न हुए हैं तथा शूद्र पैरों से उत्पन्न होने के कारण निम्न ही रहेगा ।
वस्तुतः इस मन्त्र में रूपक अलंकार के माध्यम से सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड को ब्रह्म का स्थूल शरीर (पुरुष रूप) माना गया है जिसमें रहने वाले मनुष्यों को उपमा अलंकार के माध्यम से चार वर्णों में बांटा गया है।
मुख में पांचों ज्ञानेन्द्रियों का निवास होता है। अतः समाज के जिस व्यक्ति में ज्ञान के ग्रहण करने और प्रसारित करने की सबसे अधिक क्षमता होती है, वह ब्राह्मण है।
हाथों के समान जिसमें रक्षा का गुण हो, वह क्षत्रिय है। जिस प्रकार उदर के द्वारा सम्पूर्ण भोजन का पाचन करके रस, रक्त आदि धातुओं से शरीर का पोषण किया जाता है, उसी प्रकार कृषि, व्यापार तथा अन्य उद्योगों के द्वारा अर्थाेपार्जन करके जो समस्त समाज का पालन करता है, वह वैश्य कहा जाता है।
जो बौद्धिक दृष्टि से तो न्यून हो किन्तु प्रत्येक शारीरिक कार्य में दक्ष हो, वह शूद्र कहा जाता है। जिस प्रकार पैरों के ऊपर ही सम्पूर्ण शरीर का बोझ अवलम्बित रहता है, उसी प्रकार शारीरिक कार्यों में दक्ष लोगों के द्वारा ही सामाजिक व्यवस्था सुचारू रूप से चलती है।
5
आज से लगभग 6000 वर्ष पूर्व वंशानुगत वर्ण व्यवस्था की जो नींव रखी गयी थी, उसने दीमक का रूप धारण कर हिन्दू-समाज को जर्जरित करने का कार्य किया है। सृष्टि के प्रारम्भ से चली आ रही कर्मानुसार वर्णव्यवस्था को परिवर्तित कर वंशानुगत करना राष्ट्र का दुर्भाग्य था ।
इस विचारधारा के पोषक विद्वानों ने ऋषियों के नाम से मिथ्या ग्रन्थों की रचना की तथा अपने अपराधों की कालिमा को छिपाने के लिये अपनी वंशानुगत श्रेष्ठता का दावा किया । उन्होंने अपने ग्रन्थों में यहां तक लिख दिया कि यदि शूद्र के कान में वेद मन्त्र का एक अक्षर भी पड़ जाय, तो उसके कान में शीशा पिघलाकर डाल देना चाहिए और यदि स्त्री वेदोच्चारण करती है तो उसकी जिह्वा काट लेनी चाहिए ।
इस प्रकार का कथन वेद और ऋषियों की आड़ में अपने पाप का साम्राज्य खड़ा करने वालों ने किया । उनका केवल एक ही कुतर्क रहता था कि ब्रह्मा जी के मुख से पैदा होने के कारण ब्राह्मण प्रत्येक स्थिति में सर्व श्रेष्ठ है और पैरों से प्रकट होने के कारण जितेन्द्रिय तथा विद्वान् शूद्र भी सम्मान का अधिकारी नहीं है।
सर्वव्यापक सत्ता वाले उस विष्णु रूप परमात्मा के चरणों से निकलने वाली गंगा को यदि पवित्र तथा पाप नाशिनी माना जाता है तो उन्हीं चरणों से उत्पन्न होने वाले शूद्र को तुच्छ क्यों समझा जाता है ?
पवित्र-अपवित्र के सम्बन्ध में इस प्रकार की यह कैसी दोहरी मानसिकता है ?
माता-पिता, आचार्य, गुरु एवं महान् पुरुषों के चरणों को छूकर ही प्रणाम किया जाता है, मुख को नहीं । क्या कोई पूज्य जनों के मुख या मस्तक को छूने का साहस कर सकता हैं ?
यह तो सर्व विदित है कि मनुष्य की उत्पत्ति गर्भाशय से ही होती है। यदि पुरुष रूप परमात्मा या ब्रह्मा जी के मुख से ब्राह्मणों की उत्पति हुई है तो ब्राह्मणों का शरीर मुख की तरह गोल होना चाहिए। इसी प्रकार क्षत्रियों का शरीर हाथों की भांति, वैश्यों का पेट की तरह और शूद्रों का पैरों के समान होना चाहिए ं
जिस प्रकार उपमा अलंकार की भाषा में कहा जाता है कि सभी उपनिषदें गायों के समान है। उनका दूध दुहने वाले भगवान श्री कृष्ण हैं तथा पीने वाला बछड़ा रूप बुद्धिमान् अर्जुन है। इस प्रकार गीता अति कल्याणमयी अमृत स्वरूप दूध है।
क्या उपरोक्त कथन का बाह्य अर्थ लेकर कटोरे में गीता को रखकर किसी को पीने के लिये दिया जा सकता है?
यदि नहीं तो
‘ब्राह्मणोऽस्य मुखम्’
मन्त्र का बाह्य अर्थ क्यों किया जाता है? वस्तुतः वेदादि सभी ग्रथों मंे कहीं भी मुख आदि अंगों से चारों वर्णों की उत्पत्ति का वर्णन नहीं हैं । इस मन्त्र में मुख ज्ञान का प्रतीक है तो हाथ शक्ति का । इसी प्रकार उदर अर्थोपार्जन का और पैर सेवा कार्य रूप अवलम्बन का प्रतीक है। समाज के जिस व्यक्ति में जिस प्रकार का गुण हो, उसको उसी वर्ण का माना जाना चाहिए यदि किसी प्राचार्य (प्रिंसिपल) के पुत्र में अपने पिता का गुण नहीं है तो उसे किसी भी स्थिति में प्रिसिपल नहीं माना जा सकता । इसी प्रकार यदि किसी अभियन्ता (इन्जीनियर) का पुत्र अनपढ़ रहने पर भी स्वयं को इन्जीनियर कहता है तो उसकी मूर्खता ही कही जायेगी ।
महाभारत का स्पष्ट कथन है कि ब्रह्मा जी के हृदय से महर्षि भृगु जी उत्पन्न हुए, जिनकी वंश परम्परा में शुक्राचार्य, च्यन, और्व, ऋचीक, यमदग्नि तथा परशुराम का जन्म हुआ। इस प्रकार मुख से उत्पन्न न होने के कारण तो इन्हें ब्राह्मण कहा ही नहीं जा सकता ।
विवस्वान के यम तथा मनु दो पुत्र हुए । ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र आदि सभी मनुष्य मनु से ही उत्पन्न हुए हैं। इसी से इन्हें मानव कहा जाता है।
भागवतकार की दृष्टि में भी ब्रह्मा जी की गोद से नारद जी, अंगूठे से दक्ष, प्राणों से वशिष्ठ, त्वचा से भृगु, हाथ से क्रतु, नाभि से पुलह, कर्ण से पुलस्त्य, मुख से अंगिरा, नेत्रों से अत्रि और मन से मरीचि की उत्पत्ति हुई। ब्रह्मा जी की छाया से देवहुति के पति या कपिल जी के पिता कर्दम ऋषि प्रकट हुए।
विष्णु पुराण की भी मान्यता के अनुसार ब्रह्मा जी ने अपने चार मानसी पुत्रों सनकादि के अतिरिक्त भृगु, पुलस्त्य, पुलह आदि 9 मानसी पुत्रों को उत्पन्न किया । पुनः उन्होंने मनु और शतरूपा को प्रकट किया जिन्होंने सृष्टि का विस्तार किया ।
यथार्थता तो यह है कि मनु एवं शतरूपा का वर्णन आलंकारिक है।
‘मनु’
जीव का प्रतीक है और
‘शतरूपा’
प्रकृति की। जिसके सैकड़ों रूप है, वह शतरूपा है। ब्रह्म के निर्देशन में जीव तथा प्रकृति के योग से सृष्टि का विस्तार हुआ है जिसे पौराणिक साहित्य में मनु एवं शतरूपा के नाम से दर्शाया गया है। वेद इसी तथ्य को पारिभाषित करते हैं कि ब्रह्म के संकल्प से सबसे पहले सांकल्पिक सृष्टि उत्पन्न हुई। इस प्रकार यह पूर्ण रूप से प्रमाणित होता है कि वेदादि ग्रन्थों में कहीं भी ब्रह्मा जी या ईश्वर रूप पुरुष के मुख आदि अंगों से ब्राह्मण आदि वर्णों की उत्पत्ति नहीं हुई है, अपितु सम्पूर्ण मानवीय सृष्टि सर्व प्रथम संकल्प से पैदा हुई है तथा चारों वर्णों का निर्धारण मात्र कर्म से है। जन्म के आधार पर किसी का भी कोई वर्ण नहीं माना जा सकता ।
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अपमान की पीड़ा क्या होती है, इसे द्रौपदी, कर्ण और दुर्योधन अच्छी तरह जानते हैं। महाभारत के युद्ध के मुख्य कारणों में जहां धृतराष्ट्र की राज्य लिप्सा एवं शकुनि का वैर भाव दिखायी देता है, वही यह भी है कि यदि द्रौपदी ने इन्द्रप्रस्थ में दुर्योधन से यह नहीं कहा होता कि अन्धे के पुत्र अन्धे ही होते हैं और भीम, अर्जुन आदि ने कर्ण को बार-बार सूत-पुत्र नहीं कहा होता तथा द्यूत क्रीड़ा के पश्चात् द्रौपदी को भरी सभा में अपमानित नहीं किया जाता तो सम्भवतः महाभारत के युद्ध की भूमिका तैयार नहीं होती, भारतवर्ष का अधःपतन नहीं होता और 47 लाख से अधिक लोगों की युद्ध में मृत्यु भी नहीं होती ।
रावण ने अपने भाई विभीषण को लात मार कर लंका से निकाला, जिसका परिणाम क्या हुआ ? लंका का विनाश । अपनी कथाओं में इस प्रसंग की बारम्बार चर्चा करने वाले पौराणिकों ने कुछ भी नहीं सीखा । इनकी स्थिति उस कबूतर की तरह बनी रही जो सामने आती हुई बिल्ली को देखकर इस भावना से आंखें मूंद लेता है कि बिल्ली तो है ही नहीं । आलस्य एवं प्रमाद में डूबे इन पौराणिकों तथा वाममार्गियों ने ऋषियों के नाम से मिथ्या स्मृतियों की रचना की जिसमें शूद्रों को सभी सम्माननीय
अधिकारों से वंचित कर दिया गया एवं उन्हें पद दलित करके ठुकरा दिया गया ।
पराशर स्मृति, वशिष्ठ स्मृति, गौतम धर्म सूत्र तथा अग्नि स्मृति आदि इन्हीं पौराणिकों की पक्षपात् पूर्ण लेखनी की उपज है। वेदानुकूल कही जाने वाली मनुस्मृति में भी इन्होंने ही प्रक्षिप्त श्लोकों की झड़ी लगाकर उसे भी घृणा का पात्र बना दिया । वेद, दर्शन, उपनिषद्, महाभाष्य तथा निरुक्त के ज्ञान से कोसों दूर रहकर थोडी सी संस्कृत एवं कर्मकाण्ड सीख जाने वाले इन पौराणिकों ने शूद्रों पर अत्याचार की जो कर्मनाशा नदी बहायी है, उसमें शताब्दियों से भारत डूब रहा है।
अपने पराभव की पीड़ा से सिसकता हुआ भारत जनमानस इन वाममार्गियों तथा पौराणिकों से पूछ रहा है कि हमने विगत ढाई हजार वर्षों में यूनानियों, शकों, हूणों, मुगलों, पठानों, तुर्कों तथा अफगानांे के बर्बर आक्रमणों को झेला है। इन्होंने इस देश में खून की नदियां बहायी हैं, अबलाओं की अस्मिता लूटी गयी है, किन्तु तुम या तो अपने मठों और मन्दिरों में चादर तानकर सोते रहे हो या मात्र कर्मकाण्डों में डूबकर अपने को धन्य-धन्य समझते रहे हो । जब विदेशी मुगल, अफगान और तुर्क आक्रान्ता भारतीयों के शिरों की मीनारें बनाकर अट्ठाहास करते थे तब भी तुम्हारा पत्थर हृदय कभी नहीं पिघला कि जातीयता की घृणा को समाप्त कर अब भी तो हम एक हो जायँ ।
वंशानुगत श्रेष्ठता के अहंकार में दग्ध रहने वाले पौराणिकों! तुम्हें तो वृहदारण्यक उपनिषद् में वर्णित महर्षि याज्ञवल्क्य के इस कथन की स्मृति ही नहीं रही कि जो ब्रह्म आत्मा में अन्तर्यामी रूप से विद्यमान है, किन्तु आत्मा को उसका बोध नही हैं। यही कारण है कि जिस परमात्मा को तुम मिट्टी, पत्थरों एवं धातुओं की मूर्तियों में खोजते हो, वह तो उन्हीं प्राणियों के हृदय-मन्दिर में वास करता है जिन्हें तुम शूद्र और दलित कहकर तिरस्कृत करते हो तथा अपने पास भी बैठने देना नहीं चाहते ।
तुमने परमात्मा के बनाये हुए अखण्ड मन्दिरों की अवहेलना की और वैदिक ज्ञान की अमृत-धारा को तिलांजलि देकर गप्पों से भरी पौराणिकता की ऐसी आंधी बहायी कि सारा देश अज्ञानता के अन्धकार में डूब गया। चारों ओर कुकुरमुत्ते की तरह एक हजार से अधिक सम्प्रदायों एवं 1200 से अधिक जातियों की उत्पत्ति हो गयी। इनमें होने वाला संघर्ष दीमक की तरह देश को निगल रहा हैै किन्तु इस विनाश लीला से तुम्हारा क्या प्रयोजन है? तुमने तो आलस्य और प्रमाद के पलंग पर पक्षपात् का गद्दा लगाकर कुम्भकर्णी नींद में सोना ही अपने जीवन का लक्ष्य बना रखा है।
यह सृष्टि का सर्वमान्य सिद्धान्त है कि प्रत्येक क्रिया की विपरीत दिशा में प्रतिक्रिया होती है। हजारों वर्षों से उपेक्षित, तिरस्कृत एवं सताये जाने वाले दलितों के एक वर्ग का आक्रोश अब विकृत मानसिकता के रूप में उभरने लगा है। वह मिथ्या एवं विकृत साहित्य को पढ़कर नास्तिकता तथा उग्रता का शिकार होता जा रहा है। उसके मन में श्री राम, कृष्ण और वेदों के लिये कोई सम्मान नहीं रह गया है। उसे स्वयं पता नहीं है कि वह किस प्रकार वामपन्थियों तथा भारतीय संस्कृति से घृणा करने वालों के षड्यन्त्रों का शिकार बन रहा है। उसकी कुछ झलक इस प्रकार है-
4 सितम्बर 1977 को संसद में राष्ट्रपति के द्वारा मनोनीत फ्रैंच एन्थोनी ने मांग की थी कि संविधान के आठवें परिशिष्ट में परिगणित भारतीय भाषाओं की सूची में से संस्कृत को निकाल देना चाहिए क्योंकि यह विदेशी आक्रान्ताओं (आर्यों) द्वारा लायी जाने के कारण विदेशी भाषा है।
सन् 1978 के प्रारम्भ में भारत ने अपना पहला उपग्रह अन्तरिक्ष में छोड़ा था । उसका नाम भारत के प्राचीन वैज्ञानिक आर्यभट्ट के नाम पर रखा गया था। इस अवसर पर 23 फरवरी 1978 को द्रमुक पार्टी के प्रतिनिधि के. लक्ष्मणन् ने राज्य सभा में मांग की थी कि भारतीय उपग्रह का नाम आर्यभट्ट नहीं रखा जाना चाहिए था, क्योंकि यह विदेशी नाम है।
कुछ वर्षों पूर्व तमिलनाडु के सलेम नामक नगर में मर्यादा पुरुषोत्तम राम के आर्य होने के कारण उनकी मूर्ति के गले में जूते का हार पहनाकर झाडुओं से मानते हुए बाजारों में जलूस निकाला गया था।
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विदुर जी दासी पुत्र (शूद्र) हैं, किन्तु वेद-शास्त्रों के मर्मज्ञ हैं। धृतराष्ट्र स्वयं यह स्वीकार करते हैं कि वर्तमान समय में विदुर जैसा कोई नीतिज्ञ नहीं हैं। विदुर जी का आभा मण्डल इतना तेजस्वी है कि धर्मराज युधिष्ठिर सहित सभी पाण्डव उनके चरणों में अपना शीश झुकाना गौरव समझते हैं। इन गुणों के साथ-साथ वे हस्तिनापुर के महामन्त्री भी है। यह विदुर जी के व्यक्तित्व की महानता ही है कि योगेश्वर श्री कृष्ण मेवा-मिष्टान के भोजन से भरपूर दुर्योधन का निमन्त्रण ठुकराकर बिना बुलाये विदुर जी के घर पहुंच जाते है और उनकी पत्नी से कहते है कि बहुत भूख लगी है, भोजन कराओ ।
किन्तु, क्रूरकाल के पंजों से भला भारत का भाग्य भी कैसे अछूता रह सकता था? क्या आज के लोकतान्त्रिक युग में ऐसी कल्पना की जा सकती है जो उस समय हुई थी। हस्तिनापुर के भरे दरबार में भीष्म पितामह, द्रोणाचार्य, कृपाचार्य धृतराष्ट एवं कर्ण के सामने उदण्ड एवं दुष्ट दुर्योधन को कोई (शूद्र) फटकार लगाने का साहस कर सके। यह साहस केवल विदुर जी में था। भीष्म पितामह जैसा वयोवृद्ध ज्ञानी भी उनके वचनों का सम्मान करता था।
मनुस्मृति1 का कथन है कि जो धर्म शास्त्र वेद-विरुद्ध हैं और मिथ्या तर्कों से युक्त हैं उन्हें निष्फल एवं तामसिक जानना चाहिए। वेदों का यथार्थ ज्ञाता जिस सिद्धान्त का प्रतिपादन करें उसे ही सत्य (धर्म) समझना चाहिये किन्तु दस हजार अज्ञानी व्यक्ति भी यदि धर्म का स्वरूप दर्शायें तो उसे नहीं मानना चाहिये।
ईश्वरीय ज्ञान होने के कारण वेदों को स्वतः प्रमाण माना जाता है। ऋग्वेद में 1 बार, यजुर्वेद में आठ बार तथा अथर्ववेद में सात बार शूद्र शब्द का प्रयोग हुआ है।
यदि निष्पक्ष रूप से चारों वेदों का अवलोकन किया जाय तो उनमें कहीं भी शूद्रों की न तो निन्दा की गयी है और न उन्हें वेदाध्ययन अथवा यज्ञाधिकार से वंचित ही किया गया है। पराशर, वशिष्ठ, अग्नि, मनु, गौतम आदि सभी ऋषि-मुनि वेदानुयायी थे । वे स्वप्न में भी कभी भी वेद विरुद्ध कोई सिद्धान्त नहीं लिख सकते थे । वंशानुगत जाति-अभिमानी स्वार्थी वाममार्गियों एवं पौराणिकों ने इन ऋषियों के नाम से स्मृतियां बनाकर शूद्रों को नीचा सिद्ध किया है तथा उन पर अत्याचार किया है। इन्हीं लोगों ने मनुस्मृति में प्रक्षिप्त श्लोकों को मिश्रित कर उसे भी दूषित कर दिया है।
वर्तमान समय में समाज के जिन वर्गों को अति शूद्र कहा जाता है, वेदों में उन्हें भी प्रणाम किया गया है- शिल्पकारों (बढ़ई आदि) को प्रणाम हैं। रथों का निर्माण करने वालों को प्रणाम हैं। कुम्भकारों को प्रणाम है। लौहकारों को प्रणाम है। निषादों विभिन्न भाषाओं मेें प्रवीण, कुत्तों को शिक्षा देने वालों तथा वन में हरिण आदि पशुओं की चाहना करने वालों का सम्मान है।
वेद में कहीं भी किसी जाति विशेष का वर्णन नहीं है अपितु कोई भी मनुष्य किसी भी प्रकार के व्यवसाय को अपना सकता है। वनों एवं पर्वतों में रहकर दुष्ट जीवों को ताड़ना देने वाला
‘निषाद’
है। यह अमर कोश में वर्णित निषाद नहीं है जिसे चाण्डाल या धीवर (मल्लाह) कहा जाता है। इसी प्रकार रथकार कोई जाति विशेष नहीं है अपितु विभिन्न प्रकार के वाहनों (रथों, यानों) आदि का निर्माण करने वाला रथकार है। इसी प्रकार शिल्प विद्या को जानने वाला शिल्पकार है। उसकी कोई विशेष जाति नहीं है। कोई भी व्यक्ति किसी भी प्रकार का व्यवसाय अपनाने अथवा उसे छोड़कर नया व्यवसाय ग्रहण करने के लिये पूर्णतया स्वतन्त्र है।
किरात भी कोई जाति नहीं है अपितु जो पर्वतों की गुफा आदि में रहने वाला वनवासी है, वह किरात है। जो स्वर्ण आदि धातुओं का कार्य करे वह
‘स्वर्णकार’
है। इसी प्रकार चाण्डाल भी कोई जाति विशेष नहीं है, बल्कि निम्न कार्य करने वाला चाण्डाल है। जो जल में नौका चालन करता है, वह कैवर्त है। जो नदी, समुद्र आदि में तैरने की क्रिया करता है, वह धीवर है। जो बकरियों की रक्षा करे, वह अजपाल है। नृत्य कार्य का विशेषज्ञ ही सूत है। यह कोई जाति विशेष नहीं है। जो मनुष्यों की प्रशंसा करे वह मागध है।
चारों वेदों में कहीं भी कोई ऐसा कथन नहीं है जिससे कि यह स्पष्ट हो सके कि नीच, निकृष्ट, अस्पृश्य तथा अयज्ञिय व्यक्ति को शूद्र कहते हैं, अपितु चारों वर्णों के लिये वेदों में परमात्मा की ओर से समान आशीर्वाद एवं अधिकार है। चारों वर्णों में समान रूप से प्रेम व्यवहार का निर्देश है।
वैदिक मान्यता में बहुत अधिक साहसी, कठिन कार्य करने वाले परम पुरुषार्थी व्यक्ति को शूद्र कहते हैं। दुर्गम हिमालय पर्वत से औषधियों को लाने, रात्रि जागरण कर दुष्टों से ग्राम एवं नगरवासियों की रक्षा करने, तथा परोपकार के अन्य बड़े-बड़े साहसिक कार्यों को करने वाला शूद्र कहा जाता है। जो श्रेष्ठ एवं कठिन कार्य किसी से भी न हो उसे सम्पादित करना तप कहा जाता है। ऐसा तपश्चरण करने वाला ही शूद्र है।
जो दूसरों के दुःख से द्रवित होकर उससे निवृत्ति के लिये पुरुषार्थ करता है, वही शूद्र है। जिस प्रकार पैर अपने शरीर के मुख, बाहुओं एवं उदर का सम्पूर्ण बोझ ढोते हैं, उसी प्रकार शूद्र भी सम्पूर्ण मानव समाज का बोझ ढोते हैं और नाना क्लेश सहकर भी सबका हित चाहते हैं। इनके बिना समाज अधूरा और असहाय है।
जब शैशव अवस्था में मां अपने बच्चे के मल-मूत्रादि को स्वच्छ करती है तो बड़ा होने पर वह शिशु सर्वदा ही उसके उपकारों को याद रखता है और उसके चरण छूकर प्रणाम करता है किन्तु समाज में स्वच्छता का कार्य करने में संलग्न किसी भंगी को घृणा की दृष्टि से क्यों देखा जाता है? क्या मात्र इसीलिये कि उससे रक्त (वंश) का कोई सम्बन्ध नहीं है? यदि हमने किसी का सम्मान करना नहीं सीखा है तो हमें उससे घृणा करने का अधिकार किसने दे दिया है ?
धर्म की चादर ओढ़कर पौराणिकों तथा वाममार्गियों ने जातीय आधार पर शूद्रों के प्रति कृत्रिम ग्रन्थों में जो घृणास्पद विचार लिखा हैं, उस अपराध का कोई प्रयाश्चित् नहीं है। ऐसे सड़े गले विचारों का बोझ समाज कब तक ढोता रहेगा? इन्हीं सड़े गले विचारों की दुर्गन्ध ने इस देश को हजार वर्षों तक दासता की बेड़ियों में जकड़े रखा ।
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आचार्य शंकर दिग्विजय प्राप्त कर चुके हैं। सम्पूर्ण भारतवर्ष में उनके ज्ञान का डंका बज रहा है। जिस प्रकार सूर्य के उदित होने पर समस्त तारागण छिप जाते हैं, उसी प्रकार आचार्य शंकर के सम्मुख शास्त्रार्थ करने की साहस किसी भी विद्वान् में नहीं रह गया है।
प्रातःकाल का समय है। शंकराचार्य गंगा स्नान कर अपने कुछ शिष्यों के साथ लौट रहे हैं। मार्ग में एक चाण्डाल अपने कुत्तों के साथ विपरीत दिशा से आ रहा होता है जिसके कारण मार्ग अवरुद्ध हो जाता है। दोनों पक्ष रूक जाते हैं। शंकराचार्य को बोलना पड़ता है-
शंकराचार्य- चाण्डाल! हमें मार्ग दो। हम गंगा स्नान करके आ रहे हैं।
चाण्डाल- मैं कहां जाऊँ ?
आचार्य- तुम सामने से हट जाओ । तुम अपवित्र हो !
चाण्डाल- भला ब्रह्म को ब्रह्म के सामने से हटने की आवश्यक्ता ही क्या है? क्या एक ब्रह्म पवित्र और एक ब्रह्म अपवित्र हो सकता है ?
शंकराचार्य कुछ सोचने लगते हैं। चाण्डाल पुनः बोलने लगता है- आप ही तो सर्वत्र इस सिद्धान्त का प्रचार कर रहे हैं कि मात्र ब्रह्म ही सत्य है। जगत् स्वप्नवत् मिथ्या है। जीव और ब्रह्म दो नहीं है।
(शंकराचार्य चुपचाप सुनते रहते हैं)
जब एक ही सूर्य का प्रतिबिम्ब गंगा में पड़ता है, और गन्दे नाले में भी पड़ता है किन्तु सूर्य के मूल स्वरूप में तो कोई विकार नहीं होता है। इसी प्रकार आपके अन्तःकरण में विद्यमान चिदाभास और मेरे अन्तःकरण में विद्यमान चिदाभास में क्या अन्तर है? क्या मेरे इस शरीर के चाण्डाल के वंश में उत्पन्न होने कारण मेरे चिदाभास में अपवित्रता दिखायी दे रही है? क्या इससे आपके निर्गुण, एकरस ब्रह्म में विकार दृष्टिगोचर हो रहा है? यदि ऐसा है तो आप
‘सर्वम् खल्विदम् ब्रह्म’
का उद्घोष क्यों करते फिरते हैं? ब्राह्मण और चाण्डाल में भेद बुद्धि होने पर आपका अभेदता का सिद्धान्त भला कैसे स्थित रह सकता है?
शंकराचार्य लज्जित होकर अपना शिर चाण्डाल के चरणों में रख देते हैं।
क्या शंकराचार्य के अनुयायी वर्तमान शंकराचार्य, महामण्डलेश्वर एवं अन्य पौराणिक सन्यासी अपनी भूल सुधार कर अछूतों, दलितों को गले लगाने के लिये तैयार हैं? क्या वे सर्वसम्मति से यह घोषणा करने का साहस रखते हैं कि सम्पूर्ण मानव जाति एक है। कर्मानुसार ही चारों वर्ण हैं, जन्मना नहीं।
अपने जातीय अभिमान को पुष्ट करने तथा वेदानुकूल कर्मानुसार वर्णव्यवस्था को पूर्णतया समाप्त करने की इच्छा से पौराणिकों ने शंकराचार्य जी के द्वारा की गयी वेदान्त दर्शन की टीका में भी मिश्रण कर दिया। वह मिश्रित अंश इस प्रकार है-
यदि शूद्र वेद का श्रवण करता है तो उसके कानों में गर्म शीशा पिघला कर डाल देना चाहिए। यदि जिह्वा से वेद का उच्चारण करे तो उसकी जीभ कटवा देनी चाहिए। यदि वह वेद पढ़ कर विद्वान भी बन जाय तो उसे फांसी की सजा देनी चाहिए या शिर काट डालना चाहिए।
किन्तु वहीं शंकराचार्य बृहदारण्यक उपनिषद् की टीका में लिखते हैं- यह शूद्र वर्ण पूषण अर्थात् पोषण करने वाला है और साक्षात् इस पृथ्वी के समान है, क्योंकि जिस प्रकार पृथ्वी सबका भरण पोषण करती है वैसे ही शूद्र भी सबका भरण-पोषण करता है।
दोनों कथनों के घोर विरोधाभाष को देखते हुए यही निर्णय करना पड़ेगा कि ब्रह्मसूत्र की टीका में शूद्रों को जिस प्रकार वेदाधिकार से निर्ममता पूर्वक प्रतिबन्धित किया गया है, वह पौराणिक स्वार्थी विद्वानों की देन है, आदि शंकराचार्य की नहीं।
यजुर्वेद के 26 वें अध्याय के दूसरे मन्त्र में परमात्मा के द्वारा स्वयं कहा गया है कि मैंने इस वेदवाणी का उपदेश सम्पूर्ण मानव जाति अर्थात् ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र, सेवक, स्त्री तथा अति शूद्रादि के लिये किया है।
जब स्वतः प्रमाण भूत ईश्वरोक्त वेदों में शूद्रों तथा अति शूद्रों (महादलितों) के लिये भी वेदाध्ययन का अधिकार है तो मानव कृत ग्रन्थों (स्मृतियों) के कथन को प्रामाणिक कैसे माना जा सकता हूँ।
यदि सूक्ष्म दृष्टि से देखा जाय तो वेद व्यास कृत ब्रह्मसूत्रों में वेदाध्ययन में जन्मजात शूद्र के अनाधिकार का प्रसंग नहीं है अपितु आचार्य द्वारा यह निर्णय करना है कि यह बालक ईर्ष्या, द्वेष, ब्रह्मचर्यहीनता, उदण्डता,
अध्ययन में रूचि हीनता तथा मति मन्दता आदि दोषों से युक्त तो नहीं है। ब्राह्मण और शूद्र पद गुणवाचक हैं, जाति वाचक नहीं, शास्त्रों में कहा गया है कि ब्रह्मवादी वेदाध्यापक भले ही विद्या को अपने साथ लेकर मर जाय किन्तु घोर संकट में भी अयोग्य व्यक्ति मंे इसे न बांटे। रावण, दुर्योधन, शकुनि तथा वाममार्गी इसी श्रेणी में आते हैं।
क्या ऐतरेय महीदास और विदुर जी ने वेदाध्ययन नहीं किया था? क्या शूद्र कुल में उत्पन्न होने पर भी इन्होंने अपने तप, त्याग तथा वेदाध्ययन से ब्राह्मणत्व को प्राप्त नहीं किया था ?
उपरोक्त दोनों सूत्रों में तो कहीं भी शूद्र शब्द ही नहीं है। जो व्यक्ति शील, तप और बुद्धि आदि गुणों से रहित है, उसे वेदाध्ययन न कराकर शारीरिक श्रम मंे लगाना चाहिये। यहां जातिगत चयन का केाई प्रसंग ही नहीं है। ब्राह्मण के पुत्र में शूद्रत्व (विद्याहीनता) का दोष आ सकता है और शूद्र के पुत्र में ब्राह्मणत्व का गुण आ सकता है। द्विजत्व अपने तप, त्याग तथा पुरुषार्थ का परिणाम है। अनधिकारी होते हुए भी वंशानुगत अधिकार के कारण रावण ने वेदाध्ययन तो अवश्य किया किन्तु वह राक्षस रहा और संसार के लिये बहुत कष्टकारी हुआ । इसी प्रकार दासी पुत्र होते हुए भी विदुर जी ने वेदाध्ययन के द्वारा समाज का मार्ग दर्शन किया ।
यद्यपि जनश्रुति क्षत्रिय (राजा) था फिर भी रैक्व मुनि ने परीक्षणार्थ उसे शूद्र कहा जिससे यह पता चल जाय कि उसमें सहनशीलता और विनम्रता आदि गुण हैं कि नहीं। इनके बिना वह ब्रह्मविद्या का अधिकारी कैसे बन सकता था ?
गीता भी यह निर्देश देती है कि ब्रह्मविद्या को पाने की पात्रता मात्र गुणों पर निर्भर करती है। इस पर वंशानुगत या जातिगत अधिकार का दावा नहीं किया जा सकता । गीता के शब्दों में- यह आध्यात्मिक ज्ञान ऐसे व्यक्ति को कभी भी नहीं देना चाहिए जो तपस्वी न हो, विद्या के प्रति भक्ति न रखता हो, आचार्य की सेवा करने के लिये उत्सुक न हो और परमात्मा के प्रति आस्तिक बुद्धि रखने वाला न हो ।
इसी प्रकार श्वेताश्वतरोपनिषद् का भी यही उद्घोष है कि यह परम आध्यात्मिक रहस्य ऐसे व्यक्ति को नहीं देना चाहिए जो शान्त न हो, उदण्ड हो, जो आज्ञाकारी न हो, असंयत हो तथा श्रद्धाहीन हो।
सभी आर्ष ग्रन्थों में ज्ञान के अधिकारी-अनधिकारी का इसी प्रकार विश्लेषण है। कहीं भी वंशानुगत अधिकार का निर्देश नहीं है। मद्य-मांस का सेवन करने वाला, परस्त्रीगामी रावण यदि दस विद्याओं का पण्डित नहीं होता तो सम्भवतः इतना शक्तिशाली नहीं होता और संसार को इतना
अधिक दुःखी भी नहीं कर पाता ।
इसी प्रकार मद्य-मांस के सेवन तथा विषय-भोग में लिप्त वाममार्गियों के पास वैदिक ज्ञान नहीं होता तो सम्भवतः राष्ट्र का पतन भी नहीं हुआ होता। महात्मा का वेष धारण करके ही रावण सीता का अपहरण करने में समर्थ हो सका था । किसी सामान्य व्यक्ति के चारित्रिक पतन से उतनी हानि नहीं होती है जितनी कि किसी विद्वान व्यक्ति के चारित्रिक पतन से होती है।
नेपाल, असम तथा बंगाल आदि प्रान्तों में ब्राह्मण भी मद्य-मांस, मछली का सेवन करते हैं तथा गर्व से स्वयं को ब्राह्मण कहते हैं। ऐसे लोग यदि वेदमन्त्रों को कण्ठस्थ भी कर लें तो भी वे न तो मन्त्रद्रष्टा ऋषि बन सकते हैं और न वास्तविक ब्राह्मण ।
कुछ वर्षों पूर्व पुरी के शंकराचार्य निरंजन देव तीर्थ ने यह वक्तव्य दिया था कि ब्राह्मण को छोड़कर अन्य किसी को भी संस्कृत पढ़ने का अधिकार नहीं है। इसी विकृत मानसिकता ने ही विश्वगुरु भारत को ‘अनपढ़ों का देश’ बनने के लिये विवश कर दिया। इस तरह की सोच रखने वाले धर्माधिकारियों ने देश के लगभग 80 प्रतिशत जनमानस को वेदादि सत्य शास्त्रों के ज्ञान से दूर कर दिया। अपाला, घोषा, विश्ववारा, गार्गी आदि को जन्म देने वाली यह भारतभूमि अशिक्षित नारियों के आंसुओं से गीली हो गयी। शूद्र तथा नारी के तिरस्कार ने इस अखण्ड भारत को रसातल में पहुंचा दिया, फिर भी कूप-मण्डूक धर्माधिकारियों की चेतना नहीं जगी। उनकी सारी ऊर्जा अस्पृश्यता, भेदभाव एवं अशिक्षा की वृद्धि में लगी रही । पराधीनता की पीड़ा से कराहती भारत माता की पुकार इन्हें कभी सुनायी ही नहीं पड़ी ।
जिस प्रकार परमात्मा के बनाये हुए सूर्य-चन्द्रमा के प्रकाश, जल वायु तथा वनस्पतियों के सेवन का अधिकार सम्पूर्ण प्राणी मात्र को है, उसी प्रकार वैदिक ज्ञान को ग्रहण करने का अधिकार सम्पूर्ण मानवमात्र को है। इसमें वंशानुगत अथवा जातिगत भेद नहीं किया जा सकता ।
अपनी तुच्छ मानसिकता से ग्रसित इन वाममार्गियों तथा पौराणिकों ने मनुस्मृति में प्रक्षिप्त श्लोकों तथा अन्य स्मृतियों की रचना के द्वारा शूद्र तथा नारी की शिक्षा पर कुठराघात किया । यदि कोई शूद्र या नारी वेद अथवा गायत्री मन्त्र पढ़ ले, तो उसके लिये मृत्युदण्ड का विधान बनाना अत्याचार की पराकाष्ठा है। इन्होंने मनुस्मृति में लिखा-
यदि शूद्र द्विजातियों को अत्यन्त कठोर वाणी में आक्षेप करे तो उसकी जीभ को काट देना चाहिए क्योंकि वह नीच स्थान से उत्पन्न हुआ है।
नाम और जाति का कथन करते हुए यदि शूद्र इन द्विजों को द्रोह पूर्वक कठोर वचन कहे तो जलती हुई दश अंगुल लम्बी लोहे की शलाका उस शूद्र के मुख में डाल देना चाहिए।
यदि शूद्र अहंकार में आकर द्विजों को धर्म का उपेदश करे तो राजा तपाया हुआ तेल शूद्र के मुख और कानों में डलवा दे ।
हाथ अथवा हाथ से डंडा उठाकर प्रहार करने पर शूद्र का हाथ कटवा देना चाहिए। क्रोध पूर्वक पैर से प्रहार करने पर पैर काट देना चाहिए।
यदि कोई शूद्र अपने से श्रेष्ठ ब्राह्मण के साथ एक समान आसन पर बैठने की कोशिश करे तो उसे कमर में दगवाकर देश से निष्कासित कर देना चाहिए तथा उसके नितम्ब (चूतड़) को कटवा देना चाहिए।
इस प्रकार का दण्ड विधान बनाने वाले अत्यन्त क्रूर हृदय के रहे होंगे। यह तो निश्चित है कि मनु महाराज या कोई भी वैदिक विद्वान इस प्रकार की बातें नहीं लिख सकता। शुद्ध मनु स्मृति का तो कथन है-
ब्राह्मण, क्षत्रिय तथा वैश्य के घर में जन्म लेने पर यदि किसी का गुण, कर्म और स्वभाव उसके अनुकूल नहीं है (शूद्र जैसा है) तो वह शूद्र हो जाय। इसी प्रकार शूद्र-कुल में जन्म लेने पर भी यदि उसका गुण, कर्म और स्वभाव ब्राह्मण, क्षत्रिय अथवा वैश्य के अनुकूल है तो उसे उस वर्ण (ब्राह्मण, क्षत्रिय अथवा वैश्य) में माना जाय।
वैदिक ज्ञान से शून्य स्वार्थी तथा पक्षपाती विद्वानों ने शंकराचार्य कृत वेदान्त सूत्रों की टीका एवं मनुस्मृति में मिलावट (प्रक्षिप्त) करके शूद्रों पर अत्याचार करवाने की जो भूमिका तैयार की है, वह मानवता के नाम पर कलंक है। इस कलंक गाथा के कारण ही इन ग्रन्थों की स्थिति खीर में नमक डालने जैसी हो गयी है। जाति के नाम पर होने वाले तिरस्कार की पीड़ा को मात्र भुक्त भोगी ही जान सकता है।
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अपनी शीतल किरणों से समस्त संसार को आनन्दित करने वाले पूर्णमासी के चन्द्रमा में भी कुछ धब्बे होते हैं, ऐसे ही वैदिक काल में भी कुछ ऐसी घटनायें हो गयीं जो वैदिक मान्यताओं के पूर्णतया विपरीत थीं।
पुण्य सलिला सरस्वती के पावन तट पर द्वादशी से प्रारम्भ होकर पूर्णिमा तक चलने वाले वैदिक यज्ञ का समारोह मनाया जा रहा था। उसमें भाग लेने भृगु आदि महर्षियों के मध्य कवष ऐलूष भी थे जिन्हें वंशानुगत आधार पर कुछ लोग शूद्र समझते थे। उन लोगों ने कवष ऐलूष से कहा कि तुम दासी पुत्र हो। हम तुम्हारे साथ कैसे भोजन करेंगे ?
इस अपमान से पीड़ित होकर कवष दूर जाकर मरुस्थल में समाधिस्थ हो गये जिससे उन्हें ऋग्वेद के 10 वे मण्डल के 30 वें सूक्त (अपोनप्त्रीयसूक्त) का साक्षात्कार हुआ। वहां पर्याप्त वर्षा भी हुई तथा सरस्वती नदी भी पास आकर प्रवाहित होने लगी। इस घटना के पश्चात् यज्ञकर्ता ऋषियों को अपनी भूल का आभास हुआ और उन्होंने सार्वजनिक रूप से कवष ऐलूष से क्षमा मांगी। ऋग्वेद के 10 वें मण्डल में कितव सूक्त है जिसमें द्यूत क्रीडा की निन्दा एवं कृषि की प्रशंसा की गयी है। इसके भी मन्त्र द्रष्टा ऋषि कवष ऐलूष ही हैं।
यह वृतान्त जिस ऐतरेय ब्राह्मण में वर्णित है, उसके रचनाकार भी महर्षि महिदास ऐतरेय हैं, जो जन्मना शूद्र थे। वे इतरा नामक दासी के पुत्र थे। इनके पिता का नाम यज्ञवल्क था। यज्ञवल्क ऋषि की दो पत्नियां थीं। पहली पत्नी से चार पुत्र थे जो बहुत अधिक विद्वान थे। ऐतरेय विद्वता से रहित होने के कारण पिता का प्रेम नहीं पा सके।
एक यज्ञ सभा में महर्षि यज्ञवल्क ने अपने अन्य चार पुत्रों को तो अपने पास बिठाया किन्तु पत्नी रूपा इतरा दासी से उत्पन्न होने वाले अविद्वान पुत्र ऐतरेय की उन्होंने अधिक उपेक्षा की जिससे माता इतरा तथा ऐतरेय को बहुत अधिक पीड़ा हुई। दासी होते हुए भी इतरा आध्यात्मिक भावों में डूबी हुई थी। उसने अपने पुत्र को साधना के मार्ग पर अग्रसर किया जिसके परिणाम स्वरूप महीदास ऐतरेय ऋग्वेद के 40 अध्यायों वाले ऐतरेय ब्राह्मण तथा ऐतरेय आरण्यक के रचनाकार बने ।
अपने ब्रह्मचर्य रूप तप के बल पर दासी पुत्र महीदास ऐतरेय ऋग्वेद के व्याख्याकार बने तथा 116 वर्ष की दीर्घ आयु प्राप्त किये। निराशा के भंवर में डूबकर स्वयं को दलित एवं आदिवासी मानने वाले बन्धुओं के लिये महीदास ऐतरेय का जीवन चरित्र अति प्रेरणादायी है।
ब्रह्माण्ड रूप पुरुष की भांति ही रूपक अलंकार में वेदमय पुरुष रूप शरीर की कल्पना की गयी है। जिसमें छन्द शास्त्र को पांव, कल्प को हाथ, ज्योतिष को नेत्र, निरूक्त को कान, शिक्षा को नासिका तथा व्याकरण को मुख कहा गया है। क्या अस्पृश्यता, घृणा एवं द्वेष के कीचड़ में आकण्ठ डूबे हुए लोग वेदांग कहे जाने वाले छान्दोशास्त्र का परित्याग करने के लिये तैयार हैं? यदि नहीं, तो गंगा, पृथ्वी और शूद्र को सहोदर भाई, बहन क्यों नहीं मानते ?
पौराणिक बन्धुओं की यह दोहरी मानसिकता देखने योग्य है। एक ओर जहां वे शूद्र को पैरों से उत्पन्न हुआ मान कर उसे त्याज्य बताते हैं तो दूसरी ओर उन्हीं पैरों से उत्पन्न होने वाली गंगा की महिमा का बखान करते हुए नहीं थकते हैं। वे गंगा में स्नान मात्र से मुक्ति मानते हैं। इतना ही नहीं वे तो ऐसा मानते हैं कि सौ योजन अर्थात् 400 कोश की दूरी से भी यदि कोई गंगा-गंगा का भी उच्चारण कर ले, तो वह सभी पापों से मुक्त हो जाता है।
यदि ग्रामों एवं नगरों की सम्पूर्ण गन्दगी को अपने में प्रवाहित करने वाली गंगा इतनी पवित्र है कि उसके दर्शन या नामस्मरण से भी मोक्ष और पाप निवृत्ति की कल्पना की जाती है तो जिस शूद्र के हृदय में नवीन वेदान्तियों का चिदाभास रूप ब्रह्म विराजमान है, पौराणिकों का नारायण विराजमान है, उससे घृणा क्यों? हम जिस पृथ्वी पर रहते हैं, वह पृथ्वी भी तो उसी से उत्पन्न हुई है। यदि अथर्ववेद में पृथ्वी को माता कहा जाता है तो प्रश्न यह है कि मात्र शूद्र के लिये ही सारी घृणा का बोझ क्यों ढोया जाता है ?
जब गंगा पौराणिकों को मां लगती है। उसके स्पर्श, एवं स्मरण मात्र से पवित्रता मिलती है तो शूद्र के शरीर से वह कैसी दुर्गन्ध निकलती है कि उसे अपने पास बैठा कर कोई भोजन भी नहीं करने देना चाहता? मुख, हाथ, उदर और पैर एक ही शरीर के अंग हैं। इस प्रकार ये सभी भाई-भाई हैं। इनमें पारस्परिक घृणा का होना विनाश को निमन्त्रण देना है।
एक पिता के चार पुत्र हैं। पहला प्रशासनिक अधिकारी (आई. ए. एस) बनता है तो दूसरा चिकित्सक । तीसरा महाविद्यालय में व्याख्याता बनता है और चौथा भाई कृषि कार्य करता है। प्रश्न यह होता है कि क्या अलग-अलग व्यवसाय अपनाने मात्र से वे आपस में पास बैठकर भोजन भी नहीं करेंगे और क्या पूर्व के तीन भाई कृषि करने वाले अपने चौथे भाई को समाज से यह कहकर बहिष्कृत कर देंगे कि तुम मेरे भाई ही नहीं हो।
यदि दुर्भाग्यवश प्रशासनिक व्यक्ति का पुत्र अनपढ़ और व्यसनी होने से प्रशासनिक सेवा परीक्षा (आई. ए. एस.) को उर्तीण नहीं कर पाता है तो क्या मात्र आई. ए. एस. का पुत्र होने से उसे भी आई. ए. एस. ही कहा जायेगा।
इसी प्रकार यदि कृषक का पुत्र अपने कठोर परिश्रम के बल पर आई. ए. एस. की परीक्षा उत्तीर्ण कर लेता है, और
‘साक्षात्कार’
(इण्टरव्यू) में भी सफल हो जाता है तो क्या मात्र इसी कारण से उसे प्रशासनिक अधिकारी नहीं बनाया जायेगा कि वह एक समान्य कृषक का पुत्र है? उसे इस
अधिकार से क्या महाप्रलय होने तक वंचित रखा जायेगा ?
वास्तविक न्याय तो यही है कि चारो भाईयों में जिसका भी पुत्र आई. ए. एस. की परीक्षा उत्तीर्ण कर लेगा, वही प्रशासनिक अधिकारी बनेगा। अनुतीर्ण रहने वाला पुत्र कृषि या अन्य किसी व्यवसाय का मार्ग अपनायेगा। वंशानुगत आधार पर किसी के भी लिये कोई भी व्यवसाय आरक्षित नहीं हैं कोई भी व्यक्ति अपनी योग्यता के आधार पर किसी भी व्यवसाय को अपनाने के लिये स्वतन्त्र है।
ऋषियों ने इसी न्याय व्यवस्था के पालन का निर्देश दिया है। आपस्तम्ब के सूत्रों में कहा गया है कि धर्म का आचरण करने से निकृष्ट वर्ण वाला मनुष्य अपने से उत्तम वर्ण को प्राप्त होता है। इसी प्रकार अधर्म का आचरण करने से उत्तम वर्ण वाला मनुष्य अपने से नीचे-नीचे वाले वर्ण को प्राप्त होता है।
इस प्रकार जब वंशानुगत न होकर मनुष्य के गुण, कर्म एवं स्वभाव के अनुसार ही वर्ण व्यवस्था निर्धारित होती है तभी वर्णो की शुद्धता रहती है और सभी के साथ न्याय होता है।
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ऋषि उतथ्य और उनकी भृगुवंशीया पत्नी ममता से दीर्घतमा ऋषि का जन्म हुआ। वे जन्म से ही अन्धे थे किन्तु अपनी साधना द्वारा उन्होंने ऋग्वेद के मन्त्र द्रष्टा ऋषि होने का गौरव प्राप्त हुआ। ऋग्वेद के प्रथम मण्डल के 140 वे सूक्त से लेकर 164 वे सूक्त तक के सभी मन्त्रों के द्रष्टा दीर्घतमा ऋषि ही हैं।
ऋषि के विश्वासघाती सेवकों ने उनकी हत्या का असफल प्रयास किया। उनके हाथ-पैर बांधकर नदी में डुबो दिया किन्तु वे बहते-बहते अंगदेश पहुँचे जहां उन्हें नव जीवन प्राप्त हुआ। वहां राजमहारानी की दासी
‘उशिज’
से उनका विवाह हुआ जिससे उन्हें कक्षीवान् नामक पुत्र प्राप्त हुआ।
कक्षीवान् ने ब्रह्मचर्य व्रत धारण कर सांगोपांग वेदों का अध्ययन किया। गुरुकुल से लौटते समय वे एक वन में विश्राम कर रहे थे। इसी समय भावयव्य का पुत्र
‘स्वनय’
नामक राजा वहीं से गुजरा। ब्रह्मचारी कक्षीवान् के दिव्य सौन्दर्य से प्रभावित होकर राजा ने अपनी कन्याओं के विवाह हेतु उससे माता-पिता तथा गोत्र का नाम पूछा । कक्षीवान् ने निःसंकोच होकर बता दिया कि उसके पिता दीर्घतमा ऋषि हैं तथा माता उशिज नामक दासी है।
उसने यह भी बताया कि गुरुकुल में कई वर्ष रहने के पश्चात् अब मैं अपने घर अंगदेश जा रहा हूं। इस प्रकार का सत्य उत्तर पाकर राजा बहुत प्रसन्न हुआ तथा उसे अपनी राजधानी लाकर अपनी दस कन्याओं का विवाह भी उससे कर दिया। भेंट स्वरूप उसने दस रथ, विपुल आभूषण तथा पशु धन भी प्रदान किया ।
यह वैदिक कालीन भारतीय संस्कृति की महानता है कि ब्राह्मण दम्पती से पैदा हुआ एक ऋषि शूद्रकन्या से विवाह करता है और उससे होने वाले पुत्र से एक क्षत्रिय राजा अपनी दस पुत्रियों का विवाह करता है।
वस्तुतः उस समय आजकल की तरह जन्म आधारित जाति व्यवस्था थी ही नहीं। वृ. उ. का तो यह स्पष्ट कथन है कि सृष्टि के प्रारम्भिक काल में मात्र एक ब्राह्मण वर्ण ही था। सृष्टि की वृद्धि के साथ-साथ व्यवसायों की भी उन्नति होती गयी । जैसे-जैसे मनुष्यों की संख्या और उसकी आवश्यकतायें बढ़ती गयीं तथा ऋषियों ने वेदों के आधार पर कर्मानुसार वर्णो की रचना की।
यदि सूक्ष्म दृष्टि से देखा जाय तो आज का रुढ़िवादी समाज वेद और गीता के इस सार्वभौम कथन को स्वीकार करने में अपना अपमान समझता है- हे परमात्मा! मुझे ब्राह्मणों, क्षत्रियों, वैश्यों तथा शूद्र आदि सभी जनों में प्रिय बनाइये ।
सबको अपने समान समझने वाला, समानता का व्यवहार करने वाला व्यक्ति इस लोक में सौ वर्षों तक जीवित रहे तथा उसकी शोभा भी मुझमें व्याप्त हो जाय ।
पहले वर्णों में कोई अन्तर नहीं था । केवल ब्राह्मण वर्ण ही था । तत्पश्चात् विभिन्न कर्मों के कारण उन में वर्ण भेद हो गया ।
चारों वर्णो की रचना गुण, कर्म और स्वभाव के आधार पर ब्रह्मके द्वारा की गयी है ।
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प्राचीन काल में वत्स तथा मेधातिथि दोनों ही कण्व वंश के विद्वान थे। वत्स की माता शूद्रा थी, अतः मेधातिथि वत्स को हीन भावना से देखते थे, किन्तु विद्वता एवं आध्यात्मिक साधना की दृष्टि से वत्स बहुत आगे थे ।
एक बार यज्ञमण्डप में वत्स तथा मेधातिथि दोनों ही विद्यमान थे । श्रेष्ठता के विषय में दोनों के मध्य वार्तालाप हुआ-
मेधातिथि- तुम्हारी माता शूद्रा है। अतः तुम ब्राह्मण नहीं हो । इस प्रकार मैं तुमसे श्रेष्ठ हूँ ।
वत्स- जन्म से क्या होता है? जिसका आचरण और ज्ञान श्रेष्ठ है, वही श्रेष्ठ माना जाता है।
मेधातिथि- मैं इस सिद्धान्त को नहीं मानता । उच्च कुल में पैदा होने वाला व्यक्ति दासी पुत्र से सर्वदा ही श्रेष्ठ होता है।
वत्स- इस विवाद के निर्णय के लिये हम एक परीक्षा का आयोजन करें। अग्नि की जलती हुई लपटों के मध्य से जो बिना जले हुए निकल जाय, उसे ही श्रेष्ठ माना जाय ।
मेधातिथि- ठीक है। इस प्रकार की परीक्षा के लिये मैं प्रस्तुत हूँ ।
(अग्नि की प्रचण्ड लपटों के मध्य से वत्स सुरक्षित निकल जाते हैं। उनका एक भी रोम नहीं जलता है। मेधातिथि भी अग्नि की ज्वालाओं को पार तो कर लेते हैं किन्तु उनकी आंखों की भौंहों के बाल झुलस जाते हैं)
वत्स- प्रिय मेधातिथि! इस अग्नि-परीक्षा में तुम पराजित हो गये हो। इससे सिद्ध होता है कि वंशानुगत श्रेष्ठता की अपेक्षा ज्ञान तथा कर्म की श्रेष्ठता अधिक होती है।
मेधातिथि- (क्रोध पूर्वक) तुम दलित शूद्रा की सन्तान हो, इसलिये तुम किसी भी प्रकार मुझसे श्रेष्ठ नहीं हो सकते ।
वत्स- यदि तुम्हारे मन में ऐसा है तो दूसरी परीक्षा ली जाय ।
इस रथस्पा नदी पर बिना भीगे हुए चलकर दिखाना होगा । जो इसमें सफल होगा, वही श्रेष्ठ माना जायेगा ।
मेधातिथि- मुझे यह परीक्षा स्वीकार है।
(वत्स बहुत ही सरलता पूर्वक नदी को पार कर लेते हैं। उनके शरीर का कोई भी अंग भीगता नहीं है। मेधातिथि किसी प्रकार नदी को पार तो कर लेते हैं किन्तु जिस गाड़ी की सहायता से वे नदी पार करते है, उसके पहिये भीगे हुए पाये जाते हैं।)
वत्स- अब तो तुम्हें अपनी पराजय स्वीकार कर लेनी चाहिए ।
मेधातिथि- कदापि नहीं । भला शूद्र की सन्तान कैसे श्रेष्ठ हो सकती है ?
अब तीसरी परीक्षा इस प्रकार कि होगी कि जो कुछ जीवों का सृजन कर दे, वही श्रेष्ठ माना जायेगा ।
वत्स- मुझे यह भी परीक्षा स्वीकार है ।
(वत्स कुछ पशुओं की तत्काल ही सृष्टि करके प्रदर्शित कर देते हैं किन्तु मेधातिथि तत्काल सफल नहीं हो पाते हैं। वे एक वर्ष तक सम्पूर्ण प्रयास करके भी मात्र कुछ ही पशुओं को उत्पन्न कर पाते हैं। इस प्रकार उनकी हार हो जाती है और वे वंशानुगत श्रेष्ठता की अपेक्षा ज्ञान तथा कर्म की श्रेष्ठता को स्वीकार कर लेते हैं।)
वत्स दलित माता की सन्तान होने पर भी एक महान ऋषि थे । ऋग्वेद के आठवें मण्डल में बहुत से मन्त्रों के वे मन्त्रार्थ द्रष्टा ऋषि थे ।
प्राचीन वैदिक कालीन भारत और आज के पौराणिक मान्यताओं वाले भारत में कितना अन्तर है? उस समय जहां एक तथाकथित दलित भी ऋषि-महर्षि बन सकता था वहीं आज देश में अनेक मन्दिर हैं, जहां दलितों के प्रवेश पर ही रोक हैं। काल भैरव मन्दिर, वाराणसी, लिंगराज मन्दिर भुवनेश्वर, जागेश्वर धाम अल्मोड़ा तथा बैजनाथ मन्दिर बागेश्वर में आज भी दलितों के प्रवेश पर रोक है। कुछ वर्षों पूर्व हिमाचल प्रदेश के एक काली मन्दिर में दलितों के प्रवेश करने पर रोक लगा दी गयी थी। इसी प्रकार काशी विश्वनाथ मन्दिर में केन्द्रीय मन्त्री जगजीवन बाबू के दर्शन कर लेने के पश्चात् सम्पूर्ण मन्दिर परिसर को ही पण्डों द्वारा धोया गया था ।
चारों वेदों, उनकी व्याख्यान स्वरूप 1127 शाखाओं, ब्राह्मण, आरण्यक, उपनिषद् तथा दर्शन ग्रन्थों में कहीं भी काल भैरव, लिंगराज तथा काली आदि देवी-देवताओं की मूर्ति बनाकर मन्दिर में रखने और उनकी पूजा का कोई उल्लेख नहीं है।
श्री राम, शिव एवं अनुमान जी तो विश्व वन्द्य महापुरुष हैं। इनके गुणों की पूजा ही इनकी वास्तविक पूजा है। मार्कण्डेय पुराण में दुर्गा जी की जो कहानी है, वह मात्र एक आख्यायिका है जिसमें यह दर्शाया गया है कि किस प्रकार सभी देवी-देवताओं के शरीर से एक तेज निकलता है जो दुर्गा देवी का रूप धारण कर महिषासुर राक्षस का संहार करता है।
प्रत्येक प्राणी में दैवी तथा आसुरी दोनों ही शक्तियां विद्यमान होती हैं, जिसकी विवेचना गीता के 16 वें अध्याय में विस्तार पूर्वक की गयी है। महिषासुर ही वह अज्ञान रूपी राक्षस है जिसका वध दस इन्द्रियों सहित मन को जीतने वाली (सिंहवाहिनी दस भुजा वाली) दुर्गा जी के द्वारा किया जाता है।
रक्तबीज राक्षस को मारने के लिये दुर्गा जी को अपनी विभूति से काली को उत्पन्न करना पड़ता है। लौकिक वासना का सूक्ष्ममात्र बीज भी जीव के जन्म-मरण का कारण बनता है। रक्तबीज के शरीर की यदि एक बूंद भी गिर जाती थी तो उससे पुनः नया रक्तबीज पैदा हो जाता था । ब्रह्मज्ञान की तलवार से अज्ञान रूपी रक्तबीज के शिर को काटकर उसके रक्त को पी जाने अर्थात् समाधि की अग्नि में वासनाओं के संस्कारों को दग्ध करने से जन्म-मरण का चक्र समाप्त हो जता है।
इन आख्यायिकाओं का वास्तविक रहस्य न समझने के कारण दुर्गा जी एवं काली के मन्दिर बनाकर पूजा की जाती है। उनकी प्रसन्नता के लिये अनेक मन्दिरों में निरपराध मूक-पशुओं की बलि दी जाती है जो वेद शास्त्रों के पूर्णतया विपरीत है और पाप पूर्ण कार्य है। नेपाल के गढ़ी माई मन्दिर में जहां प्रतिवर्ष लाखों भैंसों को काटा जाता है, वहीं गौहाटी के कामाख्या मन्दिर, कलकत्ते के काली मन्दिर, तथा विन्ध्याचल के विन्ध्यवासिनी मन्दिर में भी पशुओं की बलि दी जाती है, जो आसुरी मान्यता है।
यदि इन तथाकथित मन्दिरों में दलित बन्धुओं के प्रवेश करने पर पौराणिकों के देवी-देवता और भगवान भी अशुद्ध हो जाते हैं औंर उन्हें अपमान झेलना पड़ता है तो दलितों को चाहिये कि वे इन मन्दिरों में जाने की इच्छा ही न करें और अपने-अपने घर पर यज्ञकुण्ड बनाकर गायत्री मन्त्र से हवन करें। यह अधिकार तो स्वयं आदि शंकराचार्य ने दिया हुआ है जो पौराणिकों के आदर्श पथ प्रदर्शक कहे जाते है-
ज्ञान सत्य दोनों ही धर्म है। अतः यह ज्ञान और अनुष्ठान रूप धर्म शास्त्रज्ञ तथा अशास्त्रज्ञ दोनों का ही नियमन करता है। वह क्षत्रियों का भी क्षत्र है, नियन्ता है। अतः उसका अभिमान रखने वाला अज्ञानी पुरुष उसके किसी विशेष रूप का अनुष्ठान करने के लिये ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य अथवा शूद्ररूप किसी निमित्त विशेष में अभिमान करने लगता है। ये ब्राह्मण आदि चारों वर्ण प्राकृतिक रूप से ही कर्म के अधिकार (कर्माधिकार) के कारण हैं।
इस प्रकार यहां शूद्रों को भी ज्ञान और यज्ञादि अनुष्ठान का अधिकारी प्रतिपादित किया गया है।
12
सामवेद के गहनतम् रहस्यों में डुबकी लगाने वाले सुदक्षिण क्षैमि एक शूद्र ऋषि थे । ये प्राचीन शालि तथा दो जाबाल बन्धुओं के साथ गुरूकुल में रहकर वेदाध्ययन किया करते थे । सुदक्षिण जहा वेदार्थ चिन्तन में मग्न रहने वाले थे, वही उनके सहपाठी रटने में तल्लीन थे । सुदक्षिण के द्वारा पूछे गये प्रश्नों का उत्तर न दे सकने की स्थिति में उनके सहपाठी उनसे द्वेष भाव रखने लगे थे ।
एक दिन सुदक्षिण द्वारा प्रश्न किये जाने पर उनके तीनों सहपाठी आक्रोशित हो गये और बोले-हे अल्पज्ञ शूद्र! तुम क्यों व्यर्थ में बकवाद करते रहते हो ?
उनके इस कथन पर सुदक्षिण ने उत्तर दिया कि जब करु-पांचाल देश के विद्वानों की गोष्ठी होगी तब इसका वास्तविक निर्णय होगा कि किसके पास कितना ज्ञान है ?
जब कुरु पांचाल देश के विद्वानों की गोष्ठी हुई तब सुदक्षिण द्वारा सामवेद के पूछे गये प्रश्नों का उत्तर उन तीनों सहपाठियों में से कोई भी नहीं दे सका । सुदक्षिण द्वारा पूछे गये प्रश्नों का सन्तोषजनक उत्तर उस समय गोष्ठी में उपिस्थित महान विद्वान् काण्डयिव से ही हो सका ।
उक्त घटना यह दर्शाती है कि महाभारत काल के समय तक गुरुकुलों में शूद्रों के लिये भी अध्ययन का समान अधिकार था । जन्मना जाति के आधार पर शूद्रों के शिक्षा एवं यज्ञ करने के अधिकार से वंचित करने का प्रसंग अधिकतर महाभारत के पश्चात् ही होता है।
महाभारत काल के पश्चात् शूद्र एवं स्त्री को वेदाध्ययन के
अधिकार से वंचित करना भारत के पतन का कारण बना। सुदक्षिण क्षैमि जैसे सामवेद के महान मन्त्रद्रष्टा ऋषि का प्रसंग दलित समाज के लिये गौरव का विषय है।
अपने ही बन्धुओं को दलित कहकर तिरस्कृत करने का दुष्परिणाम भीमा कोरेगांव में पेशवा और अंग्रेजों के मध्य होने वाले युद्ध में देखा गया। पेशवा के अत्याचारांे से महार जाति के लोग बहुत ही दुःखी थे । अंग्रेजों ने चतुरता पूर्वक महार जाति के लोगों को अपनी सेना में भर्ती किया था। अंग्रेजी सेना पेशवा की सेना से हार कर भागने ही वाली थी कि महारों की वीरता के कारण वह जीत गयी। छूतछात की दुर्गन्ध में ही प्रसन्नता का अनुभव करने वाले कट्टरवादी पौराणिकों ने राष्ट्रहित को अनदेखा कर दिया । यदि अंग्रजों से पेशवा की हार नहीं होती तो सम्भवतः भारत का इतिहास कुछ और होता ।
कश्मीर के राजा उदयन की मृत्यु के पश्चात् वहां की राजसत्ता इस्लामिक कट्टर पन्थियों के हाथ में चली गयी। वहंा तलवार के बल पर मन्दिरों को ध्वस्त किया गया ओर बलपूर्वक धर्मान्तरण कराया गया।
धर्मान्तरित होने वाले हिन्दुओं ने ताम्रपत्रों पर यह लिखकर जमीन में गड़वा दिया था कि हम विवशतावश इस्लाम स्वीकार कर रहे हैं। भविष्य में अवसर मिलने पर आने वाली पीढ़ियां अपने मूल धर्म में वापस आ जायें।
स्वतन्त्रता के बाद उन ताम्रपत्रों को पढ़कर बहुत से मुस्लिम अपने पूर्व
धर्म में वापसी चाहते थे किन्तु काशी के कर्मकाण्डी पौराणिक पण्डितों ने धमकी दे दी कि यदि इन्हें हिन्दू-धर्म में पुनः वापस लिया गया तो वे समुद्र में डूबकर आत्म हत्या कर लेंगे। इन कूप मण्डूक लोगों ने कभी यह सोचा ही नहीं कि धर्मान्तरण का परिणाम राष्ट्रान्तरण ही होता है। भारतीय संस्कृति में निष्ठावान् व्यक्ति जब किसी विदेशी पन्थ में दीक्षित होता है तो उसकी मान्यतायें भी बदल जाती है। वह राम, कृष्ण जैसे महापुरुषों को अपशब्दों से सम्बोधित तो करता ही है साथ ही साथ कल तक जिस गाय को वह मां के समान पूज्य मानता था, उसका मांस खाने में भी उसे झिझक नहीं होती ।
अपनी संकुचित दृष्टि के कारण इन पौराणिकों ने अपने ही भाइयों को दलित कहकर तिरस्कृत करना तो सीखा है, किन्तु अपनाना नहीं सीखा । इन्हें समुद्र की यात्रा करने में पाप लगता है किन्तु ये भूल जाते हैं कि मर्यादा पुरुषोत्तम राम ने तो समुद्र पर पुल बांध कर ही रावण को मारा था । श्री कृष्ण जी, अर्जुन तथा महर्षि अगस्त्य ने समुद्र में लम्बी-लम्बी यात्रायें की थीं । जब ये जल में वरुण देवता का वास मानते हैं तो समुद्र की यात्रा में इन्हें पाप क्यों लगता है? ऐसी अवस्था में जब ये समुद्र मन्थन से निकले हुए रत्नों (ऐरावत, लक्ष्मी तथा अमृत) का उपयोग करने में नहीं झिझकते हैं तो धर्माचार्यों की समुद्री यात्राओं पर प्रतिबन्ध क्यों लगाते हैं ?
13
वैदिक काल में सत्यकाम नामक एक बालक था जो एक शूद्रा (परिचारिका) का पुत्र था। उसके मन में वेदाध्ययन की इच्छा होती है। वह जाकर अपनी मां से अपने गोत्र के विषय में पूछता है-
सत्यकाम- मां ! मैं गुरुकुल में जाना चाहता हूँ किन्तु मुझे अपने पिता का कोई परिचय नहीं हैं। आचार्य श्री के द्वारा गोत्र पूछे जाने पर मैं क्या बताऊंगा ?
जबाला- प्रिय पुत्र! मैंने अपनी युवावस्था में अनेक घरों में सेवा करते हुए तुझे प्राप्त किया था, इसलिये मुझे तुम्हारे पिता का वास्तविक ज्ञान नहीं है। तुमने अपने आचार्य से यही कहना कि मेरा नाम सत्यकाम है और मेरी माँ का नाम जबाला है। सत्यकाम गुरुकुल में हारिद्रुमत गौतम ऋषि के पास जाता है। ऋषि उससे प्रश्न करते हैं-
वत्स! तुम्हारा गोत्र क्या है?
सत्यकाम! आचार्य! मेरा नाम सत्यकाम है और मेरी माता का नाम जबाला है। मैं अपने पिता का नाम बताने में असमर्थ हूं क्योंकि मां ने कहा है कि वह स्वयं उसके पिता का नाम नहीं जानती। उसने तो अनेक घरों में सेवा करते हुए मुझे प्राप्त किया था ।
गौतम- इस प्रकार की सत्यवादिता ब्राह्मण में ही होती है। तू समिधा ला। मैं तेरा उपनयन संस्कार करता हूँ।
गौतम ऋषि को यह अच्छी तरह पता था कि यह सत्यकाम सेवा कार्य करने वाली शूद्रा स्त्री (जबाला) का पुत्र है, फिर भी उसकी मां तथा पुत्र दोनों की ही सत्यभाषिता देखकर वे अत्यन्त प्रभावित हुए और गुणों के
आधार पर सत्यकाम को ब्राह्मण माना और ब्रह्मविद्या की शिक्षा दी ।
ऋषियों ने वैदिक ज्ञान को सुरक्षित रखने के लिये एक नियमावलि बनायी थी। शूद्र कोई जाति विशेष न थी और न वर्तमान में होेनी चाहिए, अपितु गुरुकुल में प्रवेश न कर अध्ययन से रहित व्यक्ति ही शूद्र कहलाता था किन्तु यदि उसका पुत्र गुरुकुल में प्रवेश करके शिक्षा ग्रहण करता है तो उसे अपनी योग्यता के अनुसार ब्राह्मण, क्षत्रिय अथवा वैश्य का पद प्राप्त होता था ।
जो पांच वर्ष की आयु से सोलह वर्ष की आयु तक गुरुकुल में प्रवेश कर छत्तीसवां अथवा अड़तालीस वर्ष की आयु तक विद्याध्ययन करता था, वह ब्राह्मण कहलाने का अधिकारी बनता था।
जो सोलह या अधिकतम बाईस वर्ष तक भी गुरुकुल में प्रविष्ट होकर अध्ययन करे वह क्षत्रिय कहलाता था ।
जो अधिकतम चौबीसवें वर्ष तक भी गुरुकुल में प्रविष्ट होकर अध्ययन करता था वह वैश्य कहलाता था । यद्यपि सबके लिये गुरुकुल में प्रवेश की अवधि पांच वर्ष से ही प्रारम्भ हो जाती थी । जो चौबीस वर्ष की आयु तक भी गुरुकुल में प्रवेश न करे, वही शूद्र कहलाता था, किन्तु उसकी वंशावलि को पुनः द्विजत्व (ब्राह्मण, क्षत्रिय अथवा वैश्य होने) प्राप्त करने का अधिकार था। इस प्रकार, शूद्र कोई जाति विशेष नहीं है अपितु अध्ययन से रहित व्यक्ति ही शूद्र है। इस प्रकार वर्ण व्यवस्था अध्ययन के आधार पर ही निर्धारित होती है।
वर्णों के परिवर्तन की एक लम्बी शृंखला है। संक्षेप में उसकी एक झलक कुछ इस प्रकार है।
मनु का पुत्र धोखे में गाय के वध से शूद्र हो गया । बाद में तप कर ब्राह्मणत्व को प्राप्त हो गया ।
मनु पुत्र करुष से महाबलिष्ठ क्षत्रिय उत्पन्न हुए ।
दिष्ट पुत्र नाभाग वैश्य हुए किन्तु इनकी सन्तान पुनः क्षत्रिय हो गयी। चक्रवती राजा मरुत का एक पुत्र नरिष्यन्त वैश्य हुआ जिसके वंश में अनेकों ऋषि हुए हैं। नाभागारिष्ट के दो पुत्र वैश्य से ब्राह्मण हुए । धृष्ट से धार्ष्ट क्षत्रिय हुए । पुनः वे ब्राह्मण हो गये । देवदत्त के पुत्र अग्निवेश्य हुए । कानीन (अविवाहिता स्त्री के पुत्र) जातूकर्ण ऋषि नाम से भी है। इनके वंश में अग्निवेश्य गोत्र वाला ब्राह्मणवंश उत्पन्न हुआ ।
नभाग के नाभाग, अम्बरीष, विरूप, पृषदश्व और रथीतर उत्तरोत्तर पुत्र हुए। यद्यपि ये सभी क्षत्रिय थे, किन्तु रथीतर गोत्र के ब्राह्मण हो गये ।
उस रथीतर के सन्तान विहीन होने पर पुत्रोत्पति के लिये प्रार्थित अंगिरा ने रथीतर की स्त्री से अनेक ब्रह्मवर्चस्वी पुत्रों की उत्पत्ति की। वे आङ्गिरस और हारीत गोत्र वाले ब्राह्मण हुए। रथीतर की अन्य स्त्रियों के पुत्र रथीतर गोत्र वाले क्षत्रिय हुए।
मान्धाता का पुत्र अम्बरीष हुआ। उसका पुत्र था युवनाश्व इसके वंश में हारीत हुए। हारीत से जो वंश चले वे अंगिरस और हारीत गोत्र वाले ब्राह्मण कहलाये।
गृत्समद का पुत्र सुनक हुआ। सुनक का पुत्र सौनक हुआ। इन सौनक से ब्राह्मण, क्षत्रिय वैश्य तथा शूद्र ये चारांे वर्ण कर्मानुसार बने।
वितथ के पांच पुत्र हुए-सुहोत्र, सुहोता, गय, गर्ग और कपिल सुहोत्र के महासत्व काशक और गृत्समति ये दो पुत्र हुए । गृत्समति की सन्तानें ब्राह्मण, क्षत्रिय तथा वैश्य वर्ण में हुई ।
वीतहव्य तथा काशिराज की सन्तानों में परस्पर युद्ध होता रहता था। सर्वनाश होने पर काशिराज दिवोदास भारद्वाज ऋषि की शरण में गये । भारद्वाज के यज्ञ कराने से दिवोदास को प्रतर्दन नामक एक पुत्र हुआ जिसने वीतहव्य के पुत्रों को युद्ध में मार गिराया।
वीतहव्य भागकर भृगु ऋषि के आश्रम में जा छिपे। वहां पर भी प्रतर्दन पहुँचे और भृगु से बोले कि आप के आश्रम में आये हुए वीतहव्य को दीजिए। भृगु ने उत्तर दिया कि यहां कोई भी क्षत्रिय नहीं है। यहां सभी द्विज ही हैं। यह सुनकर प्रतर्दन वहां से चले गये । इस प्रकार भृगु जी के वचनों से वे ब्रह्मर्षि हुए।
वीतहव्य का पुत्र गृत्समद भी ब्रह्मर्षि हुआ दिवोदास का पुत्र मित्रायु ब्रह्मर्षि हुआ। मित्रायु से सोम मैत्रायण हुए। इस प्रकार उस वंश का नाम मैत्रायण हुआ। यद्यपि ये क्षत्रिय वंश के थे, परन्तु बाद में भार्गव ब्राह्मण हुए।
भार्ग के पुत्र भार्गभू हुए। इससे चारों वर्णों की प्रवृत्ति हुई। काश के सभी पुत्र राजा हुए।
वेणु होत्र के पुत्र प्रजेश्वर भर्ग हुए। वत्स के पुत्र वत्सभूमि और भागर्व के भृगुभूमि। अंगिरा के ये पुत्र भृगुवंशी हुए । इनसे ब्राह्मण, क्षत्रिय तथा वैश्य तीनों प्रकार के वंश चले।
रम्भ का पुत्र रभस हुआ। रभस से गम्भीर और अक्रिय हुए । अक्रिय की स्त्री में ब्राह्मण कुल उत्पन्न हुआ।
हेम से सुतपा की उत्पत्ति हुई। उसका पुत्र बलि हुआ बलि के क्षेत्र में दीर्घतमा ने अंग, वंग, कलिंग, सुह्य और पुण्ड्र नामक पांच क्षत्रिय उत्पन्न किये । इनके नाम से पांच देश हुए ।
उपरोक्त विवरण यही दर्शाता है कि विद्या अध्ययन के आधार पर ही वर्ण व्यवस्था निर्धारित होती थी । वैदिक तत्ववेत्ता शौनक ऋषि ने गुण, कर्म और स्वभाव के आधार पर ब्राह्मण चारों वर्णों का पद दिया । भार्गभूमि एवं गर्ग आदि ऋषियों ने भी यही प्रक्रिया अपनायी। इस प्रकार ब्राह्मण वंश से शूद्र वंश तथा शूद्रवंश से ब्राह्मण वंश में परिवर्तन होता रहता था। ब्राह्मण आदि वर्ण कृत्रिम होते हैं, तभी इनमें परिवर्तन की सम्भावना रहती है।
ऐसी शंका की जा सकती है कि जिस प्रकार गाय एक जाति है जिससे गिरी, साहीवाल, थारपारकर एवं गंगातीरी आदि अनेक नस्लें होती हैं उसी प्रकार मनुष्य में ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र आदि जातियां होती हैं।
इसके समाधान में यही कहा जा सकता है कि जिस प्रकार किसी प्रशासनिक अधिकारी, चिकित्सक, प्राचार्य और कृषक की कोई जाति नहीं होती अपितु अपनी योग्यता के बल पर इन्हें प्राप्त किया जाता है, उसी प्रकार ब्राह्मण, क्षत्रिय आदि कोई जातियां नहीं है बल्कि अपने गुण, कर्म एवं स्वभाव से ही इन चारों वर्णों के पद को प्राप्त किया जाता है। इन्हें वंशानुगत मानना वेद की अवहेलना करना है।
भारत की गिरिगाय इजराइल में अधिक दूध देती है क्योंकि वहां खाने-पीने और चिकित्सा की विशेष सुविधायें रहती हैं। भारत की कम
दूध देने वाली बुन्देली नस्ल की गाय यदि इजराइल वाली सुविधा पाती है तो वह भी अधिक दूध दे सकती है। विदेशों की जर्सी तथा हालिस्टन आदि नस्लें भारत में कम दूध इसलिये देती हैं, क्योंकि यहां पर उनकी देख-रेख उतनी अच्छी नहीं होती, जितनी विदेशों में होती हैं।
इसका आशय यही है कि जब मनुष्य को उचित मात्रा में शिक्षा और संस्कार मिलते हैं तो वह अपने दिव्य गुणों को विकसित कर ब्राह्मण, क्षत्रिय आदि पद ग्रहण कर लेता है। शिक्षा एवं सत्ता से रहित होने पर ब्राह्मण अथवा क्षत्रिय के वंश में जन्म लेने वाला व्यक्ति भी दयनीय ही होता है। क्या गजनी, गोरी, तैमूर लंग, औरंगजेब एवं टीपू सूल्तान के सामने किसी ब्राह्मण या क्षत्रिय की कोई गरिमा थी? क्या कोलकाता में अंग्रेजों के बनाये हुए उस होटल में प्रवेश करने का अधिकार वंशानुगत ब्राह्मणों एवं क्षत्रियों को था जिसके मुख्य द्वार पर ही लिखा था- छवज वित जीम प्दकपंदे वत कवहेण्
साहीवाल, थारपारकर, गिरि तथा गंगातीरी आदि नस्लें अपने रुप-रंग, सींग आदि की आकृति में कुछ भिन्नता लिये हुए होती है, जिससे उनकी नस्लों का निर्धारण किया जाता है किन्तु, मानव जाति में ऐसा सम्भव नहीं है। जलवायु के कारण रूप रंग के आधार पर इण्डो-यूरोपियन, अफ्रीकन, मंगोलियन, अमेरिकन तथा मलय आदि अनेक मानवीय नस्लें तो मानी जा सकती हैं किन्तु इनमें शिक्षा के द्वारा जो अध्यापक, चिकित्सक, प्रशासनिक अधिकारी और कृषक होंगे उनकी कोई वंशानुगत जाति नहीं मानी जा सकती है।
भारत मंे भी कश्मीर में रहने वाले चारों वर्ण गोरे रंग के ही होंगे, जबकि तमिलनाडु में रहने वाले चारों वर्ण सांवले रंग के ही होगें। ऐसी अवस्था में ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य तथा शूद्र वर्ण को पद न मानकर वंशानुगत जाति मानना सत्य को झुठलाना ही है।
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प्राचीन काल में पैजवन सुदास एक शूद्र राजा हुए हैं जिन्होंने ऐन्द्राग्न यज्ञ की विधि से यज्ञ कर एक लाख पूर्ण पात्रों की दक्षिणा दी विश्वामित्र तथा वशिष्ठ जैसे महर्षि सुदास पैजवन के पुरोहित रह चुके हैं। पिजवन के पुत्र होने के कारण सुदास को पैजवन कहा जाता है।
राजा सुदास को दिवोदास का पौत्र माना जाता है। दिवोदास के वंश में मित्रायु नामक ब्रह्मर्षि हो चुके हैं। यह वंश बाद में भार्गव ब्राह्मण के रूप में प्रसिद्ध हुआ।
सुदास, पिजवन, दिवोदास, मित्रायु तथा सोम की वंशावली यही दर्शाती है कि इसमें कभी कोई शूद्र हुआ तो कोई क्षत्रिय और कोई ब्राह्मण।
वेद-विरुद्ध जड़-पूजा के विस्तार एव पक्षपात ने अशिक्षा का जो
अन्धकार फैलाया उससे 1000 से अधिक सम्प्रदायों और 1200 से अधिक जातियों का जन्म हुआ, जिसके परिणाम स्वरूप आज का भारत पिछले एक हजार वर्षां से जातीय घृणा- द्वेष की अग्नि में जल रहा है।
जिसके पास विद्यार्थी स्वयं चलकर पढ़ने जाता है, वह उपाध्याय कहलाता है। छः अंगों सहित चारों वेदों का अध्ययन करने वाला चतुर्वेदी कहलाता है। तीन वेदों का अध्ययन करने वाला त्रिवेदी, दो वेदों का अध्येता द्विवेदी एवं मात्र एक वेद का चिन्तन करने वाला पाठक कहलाता है। इन गरिमामयी उपाधियों का विकृत स्वरूप आज चौबे, तिवारी, दूबे और पाण्डेय के रूप में दिखायी देता है।
वैदिक ज्ञान से पूर्णतया शून्य अशिक्षित लोग इन उपाधियों को धारण कर अपनी वंशानुगत श्रेष्ठता का दम्भ भरते हैं और दूसरों को भी शिक्षा से रहित कर अज्ञानता का अन्धकार फैलाते हैं। दूसरे वर्णों से छूतछात का व्यवहार करने में ही इन्हें मुक्ति का साधन दिखता है। सम्भवतः इन्होंने आपस्तम्ब के उस कथन का अवलोकन ही नहीं किया होता है, जिसमें उन्होंने कहा है कि ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य का भोजन शूद्र ही बनाया करें। जिस देश में शबरी के बेरों और विदुर के साग की प्रसिद्धि हो, उस देश में छूतछात का प्रपंच फैलाना कितने आश्चर्य की बात लगती हैं ?
जो जन्म से ब्राह्मण होकर भी पतन की गर्त में गिराने वाले पाप कर्मों में फंसा हुआ है, और प्रायः दुष्कर्म परायण तथा पाखण्डी है, वह शूद्र के समान है।
इसके विपरीत जो शूद्र होकर भी शम, दम, सत्य तथा धर्म का पालन करने के लिये सर्वदा उद्यत रहता है, उसे मैं ब्राह्मण ही मानता हूँ क्योंकि मनुष्य सदाचार से ही द्विज होता है।
महाभारत के ये कथन उन लोगों की आंखे खोल देने वाले हैं जो आचरण से विहीन होने पर भी अपनी वंशानुगत श्रेष्ठता का ढोल पीटते रहते हैं।
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निषादराज हिरण्यधनु के प्रतिभा सम्पन्न, तेजस्वी पुत्र एकलव्य का स्मरण होते ही सबकी आंखों में वह दृश्य दिखने लगता है जब पक्षपात पूर्ण मानसिकता वाले, मोह से ग्रसित द्रोणाचार्य छलपूर्वक उसके दाहिने हाथ का अंगूठा मांग लेते हैं। अपने गुरुदेव के प्रति सच्ची निष्ठा एवं श्रद्धा रखने वाला एकलव्य मुस्कराते हुए अपने दाहिने हाथ का अंगूठा काटकर उन्हें समर्पित कर देता है।
यह घटना गुरु-शिष्य के निश्छल प्रेम पर दाग लगाती है, एकलव्य ने तो द्रोणाचार्य को अपना आदर्श गुरु मानकर पूर्ण श्रद्धा, विश्वास के साथ उनकी मूर्ति के सामने अटूट पुरुषार्थ किया, जिसके परिणाम स्वरूप वह
धनुर्विद्या के उच्च शिखर तक पहुँचा। उसकी इस योग्यता में द्रोणाचार्य का कोई योगदान नहीं था। उन्होंने तो निर्मम गुरु की भांति उसे शिक्षा देने से भी वंचित कर दिया । ऐसा ही व्यवहार उन्होंने कर्ण के भी साथ किया।
सम्भवतः द्रोणाचार्य उस वंशानुगत वर्ण व्यवस्था की मानसिकता के शिकार थे जो महाभारत से लगभग एक हजार वर्ष पहले प्रारम्भ हो गयी थी। वे मात्र क्षत्रिय राजकुमारों को ही धनुर्विद्या की शिक्षा देना चाहते थे। वे यह भी भूल गये थे कि अयोध्या की सेना में शूद्र भी हुआ करते थे।
द्रोणाचार्य एक राज्याश्रित आचार्य थे। अर्जुन ने द्रूपद को बन्दी बनाने के लिये आश्वासन दिया था। इसी प्रकार द्रोणाचार्य ने भी यह वचन दिया कि मेरा यही पूर्ण प्रयास होगा कि इस संसार में तुम्हारे समान कोई भी अन्य धनुर्धर न हो सके।
अर्थाभाव से पीड़ित द्रोणाचार्य कुरुराज्य के संरक्षण के बोझ तले दबे रहे। इसी कारण द्रोपदी के चीर हरण के समय भी वे कौरवों का विरोध करने का साहस न कर सके। द्रुपद से प्रतिशोध लेने के मोह में वे निष्पक्ष न्याय के मार्ग से भटक गये तथा अर्जुन को श्रेष्ठतम् बनाने के प्रयास में उन्होंने पक्षपात पूर्वक शुल्क के रूप में एकलव्य से उसके दाहिने हाथ का अंगूठा ही मांग लिया।
उनका यह कार्य वर्ण विद्वेष की भावना से नहीं था अपितु अपने प्रिय शिष्य अर्जुन को श्रेष्ठ बनाने की भावना से था। यदि एकलव्य के स्थान पर कोई क्षत्रिय भी होता तो वे उससे भी ऐसी ही दक्षिणा मांगते क्योंकि वे अर्जुन के अतिरिक्त अन्य किसी को श्रेष्ठतम धनुर्धर के रूप में देखना ही नही चाहते थे।
यह सर्वदा ध्यान रखने योग्य तथ्य है कि द्रोणाचार्य भारतीय संस्कृति का पूर्ण प्रतिनिधित्व नहीं करते हैं। वेद ही भारतीयता के प्राण हैं। जब वैदिक ग्रन्थ एक स्वर से शूद्र के उपनयन एवं वेदाध्ययन में अधिकार की घोषणा करते हैं तो द्रोणाचार्य जी की उस भूल को केन्द्र बनाकर सम्पूर्ण भारतीय संस्कृति को शूद्र विरोधी नहीं बनाया जा सकता।
पतंजलि ने अपने महाभाष्य ग्रन्थ में एक सूत का वर्णन किया है जो व्याकरण का महान विद्वान था। वेद व्यास जी के शिष्य रोमहर्षण सूत जी ने नैमिषारण्य क्षेत्र में ऋषियों को पुराणों की कथा सुनायी थी। यद्यपि पौराणिक दृष्टि से सूत जाति दलित मानी जा सकती है किन्तु धृतराष्ट्र को महाभारत के युद्ध का वृतान्त सुनाने वाले संजय भी सूत ही थे।
महाभारत के महान योद्धा कर्ण का लालन पालन भी सूत परिवार में ही हुआ था। कर्ण की दानवीरता की तुलना शिवि तथा दधीचि से की जाती है।
रामायणकालीन सुमन्त का सम्मान सभी मन्त्रियों से ऊपर था। राम लक्ष्मण सहित सभी भाई उन्हें पिता के समान सम्मान देते थे। जिस प्रकार महर्षि वशिष्ठ ने कैकेयी को फटकारा था, उसी प्रकार सुमन्त ने भी कैकेयी को फटकारते हुए कहा था कि मैं तुम्हें पति की हत्यारिन और कुलघातिनी मानता हूँ।
इतने कठोर शब्दों के प्रयोग का साहस करने वाले सुमन्त के लिये
अयोध्या के राज परिवार में कितना सम्मान रहा होगा, यह सहज ही जाना जा सकता है?
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वेदों सांगोपांग का अध्ययन कर वेदज्ञ कहलाने वाला समाज में अतिशय सम्मान का अधिकारी होता है किन्तु ऋषि की संज्ञा प्राप्त करने के लिये उसे समाधिस्थ होकर मन्त्रों के अर्थ का साक्षात्कार करना होता है। महर्षि का पद उससे भी श्रेष्ठ होता है किन्तु देवर्षि पद की शोभा तो मात्र नारद जी को ही मिली है। नारद शब्द का अर्थ होता है ‘ज्ञान देने वाला’।
यद्यपि भ्रान्तिवश कुछ लोग नारद जी को कलह प्रिय भी मानते हैं किन्तु यथार्थतः ऐसा नहीं है उनका प्रत्येक कार्य लोक कल्याण की भावना से ही सम्पादित होता रहा है। वे भक्ति और संगीत के महान आचार्य हैं। शास्त्रीय संगीत का गहन ज्ञान देने वाली पुस्तक
‘नारदय संहिता’
ही है। इतना ही नहीं, वे वेद व्यास जी के गुरुदेव भी हैं।
बहुत कम लोगों को पता है कि सभी देवगण भी जिन नारद जी को अपना ऋषि मानते हैं, और भगवान विष्णु अपना पार्षद मानते है, वे अपने पूर्व जन्म में दासी पुत्र (शूद्र) थे। श्रीमद्भागवत पुराण के शब्दों में उनकी आत्मकथा उनके ही श्रीमुख से सुनिये-
हे वेद व्यास! मैं पूर्व जन्म में वेद्यज्ञों की किसी दासी का पुत्र था। मैं बचपन से ही ऐसी योगियों की सेवा में लगा दिया गया था जो वर्षा ऋतु में एक ही स्थान पर रहा करते थे।
मुझमें बचपन से चंचलता का अभाव था। इन्द्रियों पर नियन्त्रण था। मेरी खेलकूद में रुचि नहीं थी। मेरे अन्दर आज्ञाकारिता, सेवा भावना तथा अल्पभाषिता की प्रवृत्ति थी। उन समदर्शी मुनियांे ने मेरे ऊपर बहुत कृपा की।
मेरी माँ एक पराधीन दासी होने के कारण मेरे लिये कुछ भी कर सकने में असमर्थ थी। यह संसार कठ पुतली के समान ईश्वर की सत्ता के अधीन है। मेरी माँ संसार में बहुत दिनों तक जीवित नहीं रह सकी। रात्रि में सर्प-दंश से उनकी मृत्यु हो गयी।
अब मैंने स्वयं को एक अनाथ बालक के रूप में अनुभव किया। वैराग्य की अधिकता से परमात्मा की खोज में उत्तर दिशा में चल पड़ा। एक निर्जन वन में पीपल के नीचे बैठकर मैं ध्यानवास्थित हो गया। गहन समाधि की अवस्था में मेरे हृदय-मन्दिर में परमात्मा का साक्षात्कार हुआ।
इस नये कल्प में ब्रह्मा जी के मानसी पुत्र के रूप में उत्पन्न हुआ हूँ। अब मैं परमात्मा की महिमा का गायन करते हुए निर्बाध रूप से तीनों लोकांे में विचरण करता हूँ।
वेदों का उद्घोष है कि हे मानव! तू अमृत पुत्र है। हे दलित भाइयो! आप स्वयं को असहाय एवं तिरस्कृत क्यों समझते हैं? क्या आप अमृत पुत्र नही हैं? क्या आपसे हमारा भातृत्व का मधुर सम्बन्ध नहीं है। आप में तो नारद जी, वाल्मीकि एवं वेद व्यास जैसे ऋषि-मुनियों का रक्त है? आपके साथ जो भी भेदभाव रूप अत्याचार हुआ है, वह मानवता के नाम पर कलंक हैं। संसार को इसका प्रायश्चित करना ही पड़ेगा किन्तु आप भी विरोध के नाम पर अति उग्रता के शिकार न होइये। किसी के बहकावे में आकर न तो आप राम, कृष्ण आदि महापुरुषों तथा वेद शास्त्र के लिये कटु शब्दों का प्रयोग कीजिए और न स्वयं को नास्तिकता तथा हिंसात्मक घृणा की अग्नि में झोंकिये। घृणा की अग्नि में यदि देश जलता है तो इसमें सबकी हानि हैं। लाभ तो उनको होगा जो इस देश की संस्कृति को जातीयता की ज्वाला में जलाकर नष्ट करना चाहते हैं।
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महाभारत युद्ध के पश्चात् युधिष्ठिर राज्य सिंहासन पर विराजमान होते हैं। तत्पश्चात् श्रीकृष्ण जी द्वारिका के लिये प्रस्थान करते हैं। मार्ग में उनका रथ उत्तंक ऋषि के आश्रम में रुकता है जो मरुस्थलीय प्रदेश में स्थित है। श्रीकृष्ण जी को देखकर उत्तंक ऋषि का मुख तमतमाया रहता है, यद्यपि वे श्रीकृष्ण जी का अभिवादन कर उनका स्वागत करते है।
उत्तंक- योगेश्वर! आप तो सामर्थ्यवान हैं। आपकी उपस्थित मंे कुरुक्षेत्र में इतना भयानक नर संहार कैसे हो गया ?
श्रीकृष्ण- मुनिवर! इसमें मेरा कोई भी दोष नहीं है। मैंने तो इस युद्ध को रोकने का पूरा प्रयत्न किया किन्तु वह हठी दुर्योधन बस एक ही बात कहता रहा कि बिना युद्ध किये सुई की नोंक के बराबर भी धरती नहीं दूंगा। आप द्यूत-क्रीड़ा में होने वाले छल को तो जानते ही है।
उत्तंक- सुना है, आपने अर्जुन को अपना विश्व रूप दिखाया है।
श्रीकृष्ण- ऐसा ही है ।
उत्तंक- क्या अनुग्रह पूर्वक आप मुझे अपने विश्व रूप का दर्शन करा सकते है?
श्रीकृष्ण- अवश्य! प्रत्यक्ष देख लीजिए।
(उतंक विश्वरूप देखकर श्रीकृष्ण जी के चरणों में नतमस्तक हो जाते हैं)
श्रीकृष्ण- आप मुझसे कोई वर मांगिए।
उत्तंक-आपके विश्वरूप दर्शन से कुछ भी श्रेष्ठ नहीं है। मेरी अब कोई भी इच्छा नहीं है।
श्रीकृष्ण- मेरा विश्वरूप दर्शन अमोघ है। आपको कोई न कोई वर मांगना ही होगा।
उत्तंक- प्रभो! इस मरुभूमि में जल अत्यन्त दुर्लभ है। आप मेरे लिये पर्याप्त जल का प्रबन्ध कर दीजिए।
श्रीकृष्ण- जब आपको प्यास लगे तो मेरा स्मरण कर लीजिएगा। जल की कोई न कोई व्यवस्था अवश्य हो जायेगी ।
एक दिन उत्तंक मुनि को तीव्र प्यास लगती है। वे श्रीकृष्ण जी का स्मरण करते हैं। इतने में ही उन्हें सामने एक चाण्डाल दिखायी देता है, जो नंग-धडं़ग था और उसके साथ कुत्तों का झुण्ड भी था। उसके हाथों में
धनुष- बाण तथा कमर में कटार दिखायी दे रही थी। चाण्डाल के हाथों में एक पात्र भी था जिसके छिद्र से जल का प्रचुर प्रवाह हो रहा था। वह चाण्डाल उत्तंक ऋषि के पास आकर बोलता है-
ऋषिवर! मुझे विदित है कि आप प्यास से व्याकुल हैं, आपकी व्याकुलता देखकर मुझे दया आ रही है। अतः मेरी इच्छा है कि आप मेरे जल से अपनी प्यास को शान्त करें।
उत्तंक- (मन ही मन सोचते हुए)- मैं ब्राह्मण कुल में जन्मा हूँ। भला मैं इस गन्दे चाण्डाल का जल कैसे पी सकता हूँ ?
चाण्डाल- मुनि जी! मेरे जल से अपनी प्यास तो बुझाइये। महाराज! मेरी जल की सेवा स्वीकार कीजिए।
उत्तंक- (मन ही मन)- भगवान श्रीकृष्ण को यदि अपना वरदान ही पूरा करना था तो इस चाण्डाल को ही क्यों भेजा? इसका जल पीकर मैं अपनी पवित्रता को क्यों नष्ट करुँ?
(चाण्डाल के बार-बार आग्रह करने पर भी जब उत्तंक ऋषि कुछ नहीं बोलते हैं तो वह चाण्डाल अदृश्य हो जाता है और उसके स्थान पर श्रीकृष्ण जी प्रकट हो जाते हैं। उन्हें देखते ही उत्तंक उलाहना भरे स्वरों मंे कहते हैं)
उत्तंक- प्रभो! आपने मुझ ब्राह्मण के पास इस गन्दे चाण्डाल के हाथों जल क्यों भिजवा दिया?
श्रीकृष्ण- मैंने इन्द्र से कहकर आपके पास जल के रूप में अमृत ही भेजा था। इन्द्र ने प्रतिरोध किया था कि अमृत मनुष्यों के लिये नहीं है। मेरे प्रबल आग्रह पर इन्द्र ने इस बात पर अमृत ले जाना स्वीकार किया कि मैं चाण्डाल वेश में ही जाऊंगा। यदि उत्तंग मुनि में ब्राह्मण और चाण्डाल में भेद दृष्टि रहेगी तो वे अमृतपान के अधिकारी नहीं होंगे। आपने अपनी भेद-बुद्धि के कारण अमृत को ठुकराकर बहुत बड़ा अपराध किया है।
सम्भवतः ऐसा हो सकता है कि योगदर्शन के विभूति पाद पर विश्वास न करने वाले इस घटनाक्रम को सत्य न मानें किन्तु पौराणिक बन्धु तो इसे अवश्य ही सत्य मानेंगे। स्वयं शंकराचार्य जी ने अपने ग्रन्थ
‘उपदेश साहस्री’
में लिखा है कि जिस प्रकार उत्तंक मुनि ने भ्रम मे अमृत को स्वीकार नहीं किया, उसी प्रकार प्राणी कर्मनाश के मिथ्या भय से आत्मज्ञान का ग्रहण नहीं करते हैं।
किन्तु यह घटनाक्रम इतनी शिक्षा तो अवश्य देता है कि यदि महाभारत के पश्चात् का भारतीय जनमानस
‘विद्या विनय सम्पन्ने....समदर्शिनः’
अर्थात् विद्या और विनम्रता से सम्पन्न ब्राह्मण, गाय, हाथी, कुत्ते तथा चाण्डाल में एक समान चैतन्यता का अनुभव करता तो वह आध्यात्मिक आनन्द रूपी अमृत को अवश्य प्राप्त कर लिया होता।
जड़ पूजा, कर्मकाण्ड तथा छूतछात के बन्धनों में जकड़े रहने वाले समाज के विषय में एक बार स्वामी विवेकानन्द जी ने कहा था कि भात की हण्डी ही इनका उपास्य देवता है और इनका मन्त्र है ‘मुझे मत छुओ, मै पवित्र हूँ ।
सच्चे ब्राह्मण का स्वरूप क्या है? इसे म. भा. की ये पक्तियां इस प्रकार व्यक्त करती हैं-
जो किसी भी वस्त्र (वल्कल आदि) से अपने शरीर को ढक लेता है तथा जो कुछ भी रूखा सूखा भोजन मिल जाय, उसी से सन्तुष्ट हो जाता है और कहीं भी आराम से सो जाता है, उसे ही विद्वतगण ब्राह्मण मानते हैं।
जो सर्प की भांति भीड़ से भयभीत रहता है, नरक के भय के समान मिष्टान्न जनित तृप्ति से विरत रहता है तथा स्त्रियों को शव के समान मानकर उनकी ओर से विरक्त रहता है, उसे ही देवगण ब्राह्मण कहते हैं।
जो अपमानित होने पर भी क्रोध नहीं करता और सम्मानित होने पर भी हर्षित नहीं होता तथा सभी प्राणियों को अभयदान देता है उसे ही देवता ब्राह्मण मानते हैं।
जो करने योग्य कर्मों को करना अपना कर्त्तव्य समझता है और उसका सम्यक् पालन न होने पर भय मानता है, सभी लोकों में सर्वत्र ब्रह्म की ही सत्ता देखता है तथा कहीं भी अपने कर्तृत्व का अहंकार नहीं करता, वह सच्चा ब्राह्मण है।
जिसके मन में कोई कामना नहीं हैं। जो किसी फल की आकांक्षा से कर्म प्रारम्भ नहीं करता, जो नमस्कार तथा स्तुति से परे रहता है, जिसका धर्म अक्षुण्ण है, किन्तु कर्म-बन्धनों का क्षय हो गया है, उस पुरुष को देवगण ब्राह्मण मानते हैं।
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यद्यपि पारसमणि जीर्ण-शीर्ण लोहे को भी स्वर्ण बनाने की क्षमता रखती है किन्तु सच्चिदानन्द परमात्मा की भक्ति उससे भी श्रेष्ठ है जो अभक्षणीय कुत्ते का मांस खाने वाले चाण्डाल को भी सम्माननीय बना देती है। इस सम्बन्ध में भागवत के ये कथन देखने योग्य हैं-
हे परमात्मा! वह चाण्डाल भी पूजनीय है जिसकी जिह्वा पर तेरा नाम होता है। जो भी तेरा नाम लेता है, उसके विषय में यह मान लेना चाहिए कि उसने सारी तपस्या कर ली, सारे यज्ञ कर लिये, सभी तीर्थों में स्नान कर लिया और सभी वेदों का अध्ययन भी कर लिया।
जब आपके नाम के स्मरण, श्रवण, कीर्तन तथा वन्दन से मांसभक्षी चाण्डाल भी सोमयाजी ब्राह्मण के समान पवित्र हो जाता है, तब आपके दर्शन से वह क्या नहीं हो सकता।
उस सर्वशक्तिमान परमात्मा को प्रणाम है जिनके भक्तों की शरण में आने से किरात, हूण, आन्ध्र, पुलिन्द, पुल्कस, आभीर, कंक, यवन, खस आदि जातियां और अन्य पापी व्यक्ति भी पवित्र हो जाते हैं।
जिस देश के धर्म ग्रन्थों में इतने उदात्त विचार मिलते हों, उस देश के निवासियों के विषय में विदेशी लेखकों के द्वारा इस प्रकार की भ्रान्ति फैलाना कि आर्य लोग मध्य एशिया से आये तथा यहां के मूल निवासियों (आदिवासियों) को हराकर दक्षिण में भेज दिया, हास्यापद है।
मैक्समूलर, मैकडोनल्ड जैसे वैदिक भाष्यकारों एवं वामपन्थी इतिहासकारों ने इस तरह की भ्रान्तियां पैदा की कि आर्यों ने यहां के निवासी द्रविणों को दस्यु अथवा शूद्र कहा तथा उन्हें पराजित कर दक्षिण भारत में निष्कासित कर दिया।
यदि आर्य बाहर से आये तो प्रश्न यह होता है कि उनके आने से पूर्व यहां के निवासियों की भाषा क्या थी और उनका मूल धर्म ग्रन्थ क्या था? क्या संसार में ऋग्वेद से भी अधिक प्राचीन ग्रन्थ था? क्या वैदिक संस्कृत से भी अधिक प्राचीन कोई भाषा थी? सृष्टि संवत् 1968053123 वर्ष का ज्ञान तो आर्ष ग्रन्थों ने दिया है, क्या यहाँ के मूल निवासियों का दिया हुआ सृष्टि संवत् कोई और है?
स्वयं को भारत का मूल निवासी घोषित करने वाले दक्षिण भारतीय अथवा आदिवासी लोग जब अपना आराध्य देव शिव को घोषित करते हैं तो प्रश्न यह होता है कि क्या शिव आर्य पुरुषों की सृष्टि में नहीं आते हैं? क्या वे पौराणिक त्रिदेव ब्रह्मा, विष्णु तथा शिव के समूह से अलग हैं ?
रावण को अपना आदर्श मानने वाला तथाकथित यह आदिवादी समाज क्या यह बताने का कष्ट करेगा कि रावण के पिता विश्रवा मुनि तथा पितामह महर्षि पुलस्त्य क्या आर्य नहीं थे? क्या रावण के बड़े भाई कुबेर आर्य नहीं थे ?
यदि रंग के आधार पर आर्य तथा अनार्य में भेद करना है तो प्रश्न यह होता है कि क्या राम, कृष्ण, वेदव्यास, शुकदेव तथा चाणक्य गोरे रंग के थे? क्या आप इन्हें आर्यों की श्रेणी मंे नहीं रखना चाहते? क्या आप गोरे रंग वाले कंस, जरासन्ध और दुर्योधन तथा शकुनि को आर्यों के वर्ग में रखना चाहते हैं ?
सत्य तो यह है कि सबसे पहले मानवीय सृष्टि हिमालय के मानसरोवर (कश्मीर) क्षेत्र में उत्पन्न हुई। वहीं से बढ़ते-बढ़ते भारत सहित विश्व के सभी देशों में फैल गयी।
पृथ्वी पर उत्पन्न होने वाली इस मानवीय सृष्टि में सर्वप्रथम् अपौरुषेय वेदों का प्रकटन चार ऋषियों के हृदय में हुआ जिनसे विस्तृत होता हुआ वह ज्ञान आज चारों ओर दृष्टिगोचर होता है। मानसरोवर क्षेत्र में होने वाली सृष्टि के मनुष्यों की संख्या जैसे-जैसे बढ़ती गयी वैसे-वैसे वे सम्पूर्ण उत्तर भारत में फैलते गये। उनके यहां आने से पहले इस देश में कोई भी नहीं रहता था।
आर्य कोई जाति सूचक शब्द नहीं है, अपितु एक गुणवाचक शब्द है। जिस व्यक्ति का गुण, कर्म और स्वभाव श्रेष्ठ है, धर्मानुकूल है, वह आर्य है। संसार का कोई भी व्यक्ति भले ही वह मुस्लिम, क्रिश्चियन या यहूदी ही क्यों न हो, यदि वह वेदानुकूल जीवन जीता है और उसके गुण, कर्म तथा स्वभाव श्रेष्ठ हों तो वह आर्य कहलाने का अधिकारी है।
‘कृण्वन्तो विश्वमार्यम्’
अर्थात् समस्त संसार को आर्य (उत्तम, गुण एवं स्वभाव वाला) बनाने का कथन इसी सन्दर्भ में हैं।
आर्यों में जो पतित होते थे, उन्हें अनार्य कहकर दण्ड स्वरूप दक्षिण भारत के वनों में भेज दिया जाता था। धीरे-धीरे इनका एक समूह बन गया जो स्वयं को अनार्य या द्रविड़ कहने लगा। यद्यपि अनार्यों के खान-पान में तमोगुण की प्रवृत्ति अवश्य थी किन्तु उनका भी मूल धर्म ग्रन्थ वेद ही था तथा यज्ञ कर्मों का सम्पादन वे भी किया करते थे।
जब वेद के पूर्व संसार में कोई ग्रन्थ ही नहीं था, तो वैदिक संस्कृत से पूर्व कोई भाषा भी नहीं थी। ऐसी स्थिति में तमिल को संस्कृत से प्राचीन कहना हास्यास्पद ही है। यदि तमिल भाषा संस्कृत से भी प्राचीन है तो तमिल भाषा का प्राचीनतम् ग्रन्थ क्या है? वेद तो सृष्टि के प्रथम मन्वन्तर से हैं अर्थात् वेदों की उत्पत्ति अब से लगभग 1 अरब 96 करोड़ 8 लाख 53 हजार 123 वर्ष पूर्व मानी जा सकती है।
वर्तमान समय में तमिल, मलयालम, कन्नड़ तथा तेलगू भाषी हिन्दू अपना मूल ग्रन्थ वेद को ही मानते हैं। इस प्रकार वैदिक संस्कृत से प्राचीन कोई भी भाषा नहीं मानी जा सकती है।
सिन्धु घाटी की सभ्यता तो महाभारतकालीन है। यह सर्वविदित है कि महाभारत का युद्ध आज से लगभग 5000 वर्ष पूर्व हुआ था। ऐसी अवस्था मंे विदेशियों के लेखों का आधार बना कर भारतीय संस्कृति को मात्र 25000 वर्ष के अन्दर सिमटा देना पक्षपात पूर्ण मानसिकता है।
आश्चर्य की पराकाष्ठा तो तब होती है जब संकीर्ण कट्टर पन्थी मानसिकता वाले लोग अपनी पत्र पत्रिकाओं एवं पुस्तकों में यह झूठ प्रचारित करते है कि यह भारत भूमि उनकी हैं जो इसके मूल निवासी हैं। वे ही इसके वास्तविक स्वामी हैं। इन्होंने ही दुनिया की सबसे प्राचीन सभ्यता हड़प्पा तथा मोहनजोदड़ो का निर्माण किया था। भारत के अधिकांश मुसलमान तथा ईसाई इन धरती पुत्रों से धर्मांतरित हैं। वे या तो दलित हैं या आदिवासी। सभी विदेशी आक्रमणों में वे ही लोग हैं जिन्होंने भारत की रक्षा की है। वे (आर्य लोग) भारत के नहीं है, अतः वे भारत से प्रेम नहीं करते हैं। वे विदेशी हैं, भीतर के शत्रु हैं। आर्यों (हिन्दुओं) के रूप में वे भारत के पहले विदेशी हैं। यदि मुस्लिम और ईसाई विदेशी हैं और उन्हें भारत से बाहर जाना चाहिए तो भारत के विदेशी के रूप में आर्यों (हिन्दुओं) का कर्त्तव्य है कि वे पहले बाहर निकलें। जो पहले आये, उन्हें पहले जाना चाहिये ।
मनुस्मृति में भारतवर्ष की स्थिति के सम्बन्ध में बताया गया है कि पूर्व समुद्र से लेकर पश्चिमी समुद्र पर्यन्त विद्यमान उत्तर में हिमालय और दक्षिण में रामेश्वर पर्यन्त विन्ध्याचल के भीतर जितने प्रवेश हैं, उन्हें आर्यावर्त कहते हैं।
संसार में पवित्र हिमालय की प्रसिद्धि है। इसमें आधा योजन (2 कोस) चौड़ा और पांच योजन घेरे वाला सुमेरु पर्वत है, जहां मनुष्यों की उत्पत्ति हुई। यहीं से ऐरावती, वितस्ता, विशाला, देविका और कुहू आदि नदियां निकलती हैं। देविका नदी के पश्चिमी किनारे पर मानसरोवर हैं, जहां सर्वप्रथम सांकल्पिक मानवीय सृष्टि की उत्पत्ति हुई। सृष्टि के प्रारम्भ मेें कुछ समय के पश्चात् यहीं से आकर लोग इस आर्यावर्त के मैदानी भाग में बसे।
हिमालय भारत वर्ष का ही एक भाग है। अतः आर्यों के मैदानी भाग में बसने के प्रसंग को किसी विदेश से आया हुआ कहना सत्य को झुठलाना है। आर्य न तो मध्य एशिया से आये और न ध्रुव प्रेदश या अफ्रीका से, अपितु भारत से आर्य संसार के अन्य सभी देशों (यूरोप, अफ्रीका, अरब, चीन आदि) में गये है। इस सम्बन्ध में मैक्समूलर का यह कथन बहुत ही महत्वपूर्ण है-
यह तो निश्चित है कि हम सब पूर्व (भारत) से ही आयें हैं। इतना ही नहीं, हमारे जीवन की जितनी भी प्रमुख और महत्वपूर्ण बातें है, सभी हमें पूर्व से ही मिली हैं। ऐसी स्थिति मंे जब हम पूर्व की ओर जायें तो हमें यह सोचना चाहिये कि अपनी पुरानी स्मृतियों को संजोये हुए हम अपने पुराने घर की ओर जा रहे हैं।
फ्रांस के महान सन्त एवं विचारक क्रूजे ने कहा है-
यदि कोई वास्तव मंे मनुष्य जाति का पालक होने अथवा उस आदि सभ्यता का जिसने विकसित होकर संसार के कोने-कोने में ज्ञान का प्रसार किया, स्रोत होने का दावा कर सकता है तो निश्चय ही वह भारतवर्ष है।
इसी प्रकार विलियम दुरां कहते हैं-भारत मनुष्य जाति की मातृभूमि है तथा संस्कृत भाषा यूरोपियन भाषाओं की जननी है। वह हमारे दार्शनिक ज्ञान की भी जननी हैं।
स्वयं को भारत का मूल निवासी कहने वाले द्रविड़ों के साहित्य में इस देश का नाम आर्यावर्त ही है। तमिल, मलयालम, तेलगू तथा कन्नड़ में 60-90 प्रतिशत तक शब्द संस्कृत के हैं जो यही दर्शाते हैं कि संस्कृत से ही ये भाषायें वैसे ही निकली हैं जैसे हिन्दी, मराठी, गुजराती, बंगला तथा असमिया आदि भाषायें। यदि यह माना जाय कि संस्कृत बाहर से आने वालों की भाषा है तो उनके आने से बहुत पहले से बसे हुए मूल आदिवासियों की भाषाा में 65-90 प्रतिशत शब्दों की उपस्थिति कैसे हो गयी?
स्वयं को आदिवासी कहने वाले लोग यदि शिव जी को अपना
आराध्य देवता मानते हैं तो पुराणों का कथन भी यही हैं कि भगवान शिव ही महर्षि दुर्वासा, परशुराम तथा भगवान राम के आराध्य देवता है। यह जनश्रुति भी है कि पाणिनि की तपस्या से प्रसन्न होकर भगवान शिव ने उन्हें अष्टाध्यायी के मूल 14 सूत्रों का ज्ञान दिया था। क्या ये आर्य नहीं है?
विदेशी शासकों ने अपनी बर्वरता को छिपाने एवं यहां फूट डालकर सबको लड़ाने के लिये आर्यों के बाहर से आकर बस जाने की कहानी गढ़ ली है। उसी का अनुसरण करते हुए आजकल जोर-शोर से यह झूठ फैलाया जा रहा है कि आर्य बाहर से आये हैं तथा यहां के मूल निवासियों को हराकर दक्षिण भारत में भेज दिया है। यह भी प्रचारित किया जाता है कि उत्तर भारत में भी रहने वाले आदिवासी और शूद्र ही यहां के मूल निवासी है, अन्य द्विज (आर्य) नहीं ।
पाश्चात्य विद्वान् म्यूर ने कहा है कि किसी भी संस्कृत ग्रन्थ में चाहे वह कितना भी पुराना क्यों न हो, आर्यों के विदेशी होने का उल्लेख नहीं है। ऋग्वेद में जिन दास, दस्यु एवं असुर जैसे नामों का उल्लेख है, वे अनार्य मूलक अर्थात् आदिम जातियों के लिये प्रयोग किये गये हों, इस प्रकार का कोई प्रमाण या संकेत उपलब्ध नहीं है।
विश्व विख्यात इतिहास विद् एलफशतन ने भी कहा है कि न तो मनुस्मृति में न वेदों में और न मनुस्मृति से पूर्व कालीन किसी अन्य ग्रन्थ में (भारत में आने से पूर्व) आर्यों के भारत से बारह अन्य किसी देश में रहने का उल्लेख है।
विक्रम विश्वविद्यालय में पुरातत्व विभाग के भूतपूर्व अध्यक्ष डा. विष्णु श्रीधर बाकणकर ने 30 विशेषज्ञों के सहयोग से सिन्धु घाटी से सम्बन्धित सामग्री का 20 वर्ष तक अध्ययन करके यह सिद्ध किया है कि मोहनजोदोड़ों तथा हड़प्पा की सम्भ्यता का मूल आर्य सभ्यता में था।
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विगत कुछ शताब्दियों से इस मिथ्या धारणा का बहुत जोर-जोर से प्रचार हो रहा है कि जब आर्य लोग इस देश में आये तो उन्होंने यहां के मूल निवासियों को शूद्र, अनार्य, दस्यु, दास आदि से सम्बोधित किया। उन्होंने दस्यु कहे जाने वाले यहां के आदिवासियों को परास्त करके दक्षिण भारत में जाने के लिये विवश कर दिया। इन अनार्यों का रंग काला था जो आज भी दक्षिण मंे रहते हैं और द्रविड़ कहलाते हैं।
पूर्व में यह दर्शाया जा चुका है कि आर्यों के इस देश में बसने से पूर्व यहां कोई भी नहीं रहता था। ऐसी स्थिति में किसी को आदिवासी कहा ही नहीं जा सकता। वर्तमान समय में देश में जो भी अति पिछड़े लोग रहते हैं, उन्हें वनवासी तो कहा जा सकता है, किन्तु आदिवासी कदापि नहीं।
ऋग्वेद में 85 बार दस्यु शब्द का प्रयोग हुआ है तथा 36 बार आर्य शब्द का। ऋग्वेद में शूद्र शब्द मात्र एक बार आया है, यजुर्वेद में 9 बार तथा अथर्ववेद में 7 बार ।
धार्मिक, विद्वान तथा गुण, कर्म और स्वभाव से श्रेष्ठ पुरुषों को आर्य कहते हैं जबकि विद्या से रहित व्यक्ति शूद्र कहलाता है। यह सर्वविदित है कि हिमालय पर्वत में दस्यु, म्लेच्छ कहे जाने वाले असुरों का आर्यों से युद्ध हुआ करता था जिसमें आयावर्त के महाराज दशरथ, दुष्यन्त तथा अर्जुन आदि ने सहयोग किया था। देवासुर संग्राम में महाराज दशरथ के साथ कैकेयी भी युद्ध क्षेत्र में गयी थी। इसी प्रकार अभिज्ञान शाकुन्तलम् में भी कहा गया है कि देवासुर संग्राम से लौटते समय महाराजा दुष्यन्त का रथ महर्षि कण्व के आश्रम में रूका था, जहा उनकी भेंट शकुन्तला एवं भरत (सर्वदमन) से हुई थी।
इससे यह स्पष्ट होता है कि इस आर्यावर्त देश के बाहर हिमालय के पूर्व, आग्नेय, दक्षिण, नैऋत्य, पश्चिम, वायव्य तथा उत्तर, ईशान देश में जो मनुष्य रहते हैं, उन्हीं का नाम असुर सिद्ध होता है। ये असुर लोग जब हिमालय प्रदेश में स्थित आर्यों पर आक्रमण करते थे तो मैदानी भाग के राजा महाराजा उनकी सहायता करते थे।
आर्यावर्त से भिन्न देश दस्युदेश या म्लेच्छ देश कहलाते हैं। इससे यह स्पष्ट होता है कि इन देशों के लोगों को दस्यु, म्लेच्छ तथा असुर कहते हैं। यह तो सर्वविदित है कि मध्य उशिया की शक, हूण तथा कुषाण आदि मंगोल जातियों के बर्बर लोग भारतवर्ष पर सर्वदा ही आक्रमण करते रहे हैं और यहां की संस्कृति को नष्ट-भ्रष्ट करने का प्रयास करते रहे हैं।
उपरोक्त कथन का यह आशय कदापि नहीं समझना चाहिए कि आर्यावर्त के बाहर के सभी देशों के सभी लोग असुर, दस्यु या म्लेच्छ ही हैं। वेद सार्वभौमिक ग्रन्थ हैं। उनके अनुसार दस्यु, असुर या राक्षस शब्द गुण वाचक शब्द है, जाति वाचक नहीं। प्रत्येक देश में कुछ अच्छे एवं कुछ बुरे लोग होते ही हैं।
पूर्वोक्त देशों को असुर या म्लेच्छ देश कहने का भाव यह है कि इन देशों में मलेच्छ या असुर प्रवृत्ति के लेाग अधिक संख्या में रहते रहे हैं। आज भी इन देशों में मांसाहार, शराब तथा विषय भोगों की बहुलता है। इसके विपरीत भारतवर्ष गौतम, कपिल, कणाद, व्यास, जैमिनि, और पतंजलि जैसे महान योगियों, दार्शनिकों तथा ऋषियों की कर्मभूमि रहा है। यह याज्ञवलक्य, अवश्पति और जनक जैसे ब्रह्मज्ञानियों, शिवि तथा दधीचि जैसे महा दानियों एवं हरिश्चन्द्र जैसे सत्यवादियों की धरती रहा है।
योगेश्वर श्रीकृष्ण एवं मर्यादा पुरुषोत्तम राम जैसे व्यक्तित्व का प्रकटन संसार में मात्र भारत भूमि में ही हुआ है, इसलिये इसे देव भूमि कहते हैं। विद्वानों को ही देवता कहा जाता है। जो सत्य का आचरण करते हैं, वे देवता कहलाते हैं तथा झूठ का व्यवहार करने वाले मनुष्य। इस दृष्टि से देवता और आर्य शब्द समानार्थक शब्द प्रतीत होते हैं।
यद्यपि भारतीय संस्कृति में ऐसी मान्यता है कि मनुष्य अपनी
आध्यात्मिक शक्तियों को विकसित कर देवत्व को प्राप्त कर लेता है। संक्षेप में जिनमें सत्वगुण विशेष रूप से अधिक होता है, वे देवता कहे जाते हैं। रजोगुणी व्यक्ति मनुष्य कहलाता है तथा तमोगुणी व्यक्ति असुर कहलाता है।
यद्यपि रावण महर्षि पुलस्त्य का पौत्र एवं विश्रवा मुनि का पुत्र था, फिर भी वाल्मीकि रामायण में उसे सर्वत्र राक्षसराज अथवा राक्षसेन्द्र ही कहा गया है। उसे कही भी ब्राह्मण, ऋषि अथवा मनीषी नहीं कहा गया। इसका मूल कारण यह है कि वह मांसाहारी, मद्यपायी और पर स्त्रीगामी था, जबकि उसका सगा बड़ा भाई कुबेर देवता कहा जाता है। उसे देवताओं का
धनाध्यक्ष बनाया गया था। उसी प्रकार रावण का छोटा भाई विभीषण भी भक्तों की श्रेणी में आता है।
संसार में विघ्नकारी, पाप स्वरूप या उद्वेग करने वाला व्यक्ति दास कहलाता है। इसी प्रकार दस्यु शब्द का भी ऐसा ही अर्थ है। ऐसे व्यक्ति को वैदिक साहित्य में राजा द्वारा दण्डनीय घोषित किया गया हैं।
जब दासों को अपने अधीनस्थ करके उन्हें सेवा कार्य में प्रयोग किया गया, तो स्वामी-सेवक के मध्य मधुर सम्बन्ध स्थापित होने से दास शब्द का पूर्व आशय परिवर्तित हो गया। यहां तक कि परमात्मा की भक्ति में तल्लीन लोग भी स्वयं को दास कहने लगे, जैसे- सूरदास, तुलसीदास, कबीरदास जी आदि।
वेद में
‘शूद्र’
शब्द बहुत सम्माननीय अर्थ रखता है चारों वेदों में एक भी शब्द ऐसा नहीं मिलेगा, जिसमें शूद्र का अर्थ दास या निकृष्ट होता हो। वेद में कहीं भी ऐसा नहीं कहा गया है कि शूद्रों को नष्ट करो या शूद्रों को वश में करो क्योंकि ये बड़े नीच, कर्महीन, और व्रतहीन हैं।
वेद में ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र सबके लिये परमात्मा से समान प्रार्थना है और समान आशीर्वाद है शूद्र आर्य हैं, जबकि दास अनार्य हैं। शूद्र वर्ण है, व्यवसायी है, पूज्य है, माननीय है, यज्ञ किन्तु दास का अधिकार रखता है चोर, डाकू और हन्तव्य है।
कालान्तर में स्मृति काल में शूद्र को ही दास कहा जाने लगा, जो कि वेद विरुद्ध है। वैदिक काल में दास और दस्यु शब्द एकार्थवाची थे। मनुस्मृति तथा अन्य स्मृतियों के अनुसार शूद्र स्त्री में ब्राह्मण से उत्पन्न पुत्र निषाद कहलाता है। इस आधार पर तो वेद व्यास जी को भी निषाद होना चाहिए किन्तु वे तप से ब्राह्मण कहलाये। मनुस्मृति का यह कथन तथा चारों वर्णों का शर्मा, वर्मा, पाल और दास कहा जाना प्रक्षिप्त प्रतीत होता है क्योंकि प्राचीन किसी भी वर्ण में ये उपाधियां नहीं मिलतीं। उस समय वर्ण निर्धारण शिक्षा और कर्म के आधार पर ही होता था, जन्म के आधार पर नहीं।
क्षत्रिय राजा किसी अन्य क्षत्रिय राजा को पराजित कर उसे अपना दास बना सकता है किन्तु शूद्र तो एक स्वतन्त्र वर्ण है जो बौद्धिक दृष्टि से निर्बल तथा शारीरिक दृष्टि से बलवान के कारण कर्मठ कार्य रूप तप करता है और अपनी इच्छानुसार व्यवसाय करता है।
शुनःशेप को भाई न मानने के अपराध में विश्वामित्र के श्राप से उन्हीं के 50 पुत्र दासत्व को प्राप्त हो गये। इस प्रकार क्षत्रिय से ब्राह्मण बने विश्वामित्र ने आज्ञा न मानने रूप अपराध के कारण उन्हें दस्यु प्रवृत्ति वाली नीच जातियों के मनुष्य बने। यह कथन यहीं दर्शाता है कि शूद्र वर्ण इनसे अलग है क्योंकि वह यज्ञ, भक्ति तथा ज्ञानार्जन का भी अधिकार रखता है।
वेद का दस्यु या दास शब्द ब्राह्मण ग्रन्थों का असुर है। ब्रह्मर्षि विश्वामित्र के पुत्रों का दस्यु (असुर) बनना यह सिद्ध करता है कि यह कोई जाति वाचक शब्द नहीं अपितु गुण वाचक शब्द है। इस प्रकार यहां के मूल निवासियों को असूर, दास या राक्षस कहना अनुचित है।
दस्युओं के बड़े भाई अर्थात् उनसे कुछ अधिक पापी लोग राक्षस कहे जाते हैं। ये लोग सर्वदा ही रात्रि के समय दूसरों को मारने-पीटने एवं लूटने का पाप किया करते हैं। ये कभी-कभी मनुष्य का भी मांस खा जाते हैं। इनके लिये दूसरों की हिंसा ही परम धर्म है। ये कच्चा मांस तक खा जाते है और गधे की भांति चिल्लाते हैं। इनके नाम से ही पता चलता है कि घृणित कार्य करने वाला ही राक्षस या पिशाच कहा जाता है।
उपरोक्त समीक्षा से यह स्पष्ट होता है कि शूद्र, अनार्य, और द्रविड़ कोई जाति नहीं है अपितु अपने कर्माें से ही कोई भी आर्य-अनार्य कहा जाता है। पतित आर्यों को ही दण्ड स्वरूप नर्मदा के दक्षिण में भेजा गया। तत्पश्चात् महर्षि अगस्त्य आदि ने उन्हें पुनः वैदिक संस्कारों से युक्त किया इस प्रकार आर्य और द्रविड़ (अनार्य) दो जातियां नहीं है अपितु ये गुणवाचक शब्द हैं।
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वन में एक सुन्दर सरोवर दृष्टिगोचर हो रहा है। युधिष्ठिर आते हैं और अपने चारों भाईयों को मूर्छित देखकर हतप्रभ रह जाते हैं। वे मन ही मन सोचने लगते हैं मेरे चारों भाई आज मूर्छित क्यों दिखायी पड़ रहे हैं। ये तो अजेय है किन्तु वह कौन सा व्यक्ति है, जिसने इनकी ऐसी अवस्था कर रखी है।
(कुछ देर चारों ओर देखने के पश्चात्)- मुझे बहुत प्यास लगी है। पहले मैं स्वयं जल पी लूं, इसके पश्चात् इन्हें उठाने का प्रयास करुंगा ।
युधिष्ठिर जैसे ही तालाब का जल पीना प्रारम्भ करते हैं, एक ध्वनि आती है-
पहले मेरे प्रश्नों का उत्तर दो, तब जल पीने का प्रयास करो । यदि तुमने मेरे प्रश्नों का उत्तर दिये बिना जल पीने की कोशिश की तो तुम्हारी भी वहीं स्थिति होगी जो तुम्हारे भाईयों की हुई है।
युधिष्ठिर- मैं आपके प्रश्नों का उत्तर देने के लिये सहर्ष तैयार हूँ, किन्तु आप अपने वास्तविक रूप में आइये (युधिष्ठिर के समक्ष एक यक्ष दृष्टिगोचर होता है।)
यक्ष- ब्राह्मणत्व का आधार क्या है कुल, आचार, स्वाध्याय या शास्त्र श्रवण ?
युधिष्ठिर- ब्राह्मणत्व का आधार एक मात्र शुद्ध आचरण ही है। आचरण के नष्ट होते ही व्यक्ति भी नष्ट हो जाता है। जो मात्र शास्त्र चिन्तन में ही लगा रहता है किन्तु आचरण से रहित है, तो वह व्यसनी ही कहा जा सकता है। जो ज्ञान को आचरण में परिणत करता है, वही पण्डित है। चारों वेदों का विद्वान भी यदि आचरण से रहित दुराचारी है तो वह शूद्र से भी गया गुजरा है। जो व्यक्ति अग्निहोत्र करता है और जितेन्द्रिय है, वही ब्राह्मण कहलाने की शोभा प्राप्त करता है।
क्या आज का रुढ़िवादी समाज महाभारत में वर्णित इस कड़वे सत्य को सुनने के लिये तैयार है? तमिलनाडु के तिलकधारी ब्राह्मण मांसाहारी होते हुए भी अपने ब्राह्मणत्व का अभिमान करते हैं। इसी प्रकार बंगाल, आसाम एवं हिमालय के पर्वतीय भागों के भी जन्मना ब्राह्मण वर्ग में मद्य-मांस की अधिकता है किन्तु वे गर्व से स्वयं को सर्व श्रेष्ठ कहते है। उन्हें युधिष्ठिर के कथनों पर विचार करके आत्म-मन्थन करना चाहिये कि उनके द्वारा अपने मुख से अपनी प्रशंसा और दूसरों को जन्म के आधार पर तुच्छ समझना स्वयं के पैर पर कुल्हाड़ी मारना है। जब त्रेतायुग में मद्य-मांस के सेवन एवं दुराचार में प्रवृत्त रावण, कुम्भकर्ण तथा मेघनाद ब्राह्मण नहीं कहला सके तो कलियुग में आचार भ्रष्ट, वैदिक ज्ञान एवं भक्ति से रहित कोई भी व्यक्ति मात्र जन्म के आधार पर कैसे ब्राह्मण कहला सकता है?
इसी प्रकार का प्रश्नोत्तर रूप वार्तालाप राजा नहुष एवं युधिष्ठिर के
मध्य होता है-
नहुष- ब्राह्मण कौन है और इस जगत में जानने योग्य तत्व क्या है?
युधिष्ठिर- जिसमें सत्य, दान, क्षमा, शील, अक्रूरता, तप और दया जैसे गुण हों, वहीं ब्राह्मण है। इस संसार में जानने योग्य तत्व परब्रह्म ही है जो दुःख तथा सुख दोनों से परे है।
नहुष- किन्तु शूद्रों में भी तो सत्य, दान, अक्रोध, करुणा, अहिंसा और दया के भाव होते हैं।
युधिष्ठिर- यदि ये लक्षण शूद्र में हैं तो वही ब्राह्मण है किन्तु जन्मना ब्राह्मण में यदि ये लक्षण नहीं हैं तो उसे ब्राह्मण कहलाने का कोई अधिकार नहीं है।
नहुष- जब आचरण ही ब्राह्मणत्व की कसौटी है तब तो उसके अनुरुप आचरण न होने पर जाति की व्यर्थता ही सिद्ध हो जाती है-
युधिष्ठिर- यज्ञ में यजमान किसी भी वर्ग का हो सकता है। अतः तत्वदर्शी विद्वान शील की ही प्रधानता बताते है और उसे ही अभीष्ट मानते हैं।
स्वायम्भुव मनु ने कहा है कि जब तक बालक का संस्कार कर
वेदाध्ययन नहीं कराया जाता है तब तक वह शूद्र के समान ही रहता है।
यदि सभी वर्णों में संस्कार कर भी दिया जाय, किन्तु उनमें सदाचार का अभाव रहा तो उनमें वर्णसंकरता ही प्रबल मानी जायेगी। अतः जिस भी व्यक्ति में सुसंस्कृत चरित्र दिखायी दे, वही ब्राह्मण है।
नहुष तथा युधिष्ठिर की वार्ता का यह प्रसंग उस रूढ़िवादी समाज की आंखें खोल देने वाला हैं जो जन्म के आधार पर भारतीय जनमानस को 1200 से अधिक जातियों में बांट चुका है। यह जातीय विद्वेष 1000 वर्षों से इस देश को पराधीनता की बेड़ियों में जकड़े रहा है। इतने समय तक दुःख और अपमान के कड़वे घूंट पीकर भी यदि यह सावचेत नहीं होना चाहता तो उसे क्या कहेंगे विधि की विडम्बना या मूर्खता की पराकाष्ठा? क्या आगामी पीढ़िया इस जड़वादी मानसिकता को जड़ से उखाड़ कर वेदानुकुल मार्ग पर चलने के लिये तैयार हैं?
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यद्यपि चारों वर्णों में ब्राह्मण वर्ण श्रेष्ठ है किन्तु उसकी श्रेष्ठता के
निर्धारण का मापदण्ड क्या है? क्या जीव ब्राह्मण है अथवा शरीर, जाति, ज्ञान या कर्म के आधार पर किसी को ब्राह्मण माना जा सकता है?
यदि यह कहा जाय कि जीव ही ब्राह्मण है तो यह सम्भव नहीं है क्योंकि अतीत तथा भविष्य में अनेक शरीरों में जीव का स्वरूप एक ही रहता है। एक ही जीव कर्मवश अनेक शरीरों में जाता है किन्तु सभी शरीरों में जीव का स्वरूप एक ही रहता है। अतः जीव को ब्राह्मण नहीं कहा जा सकता।
यदि यह कहा जाय कि शरीर ब्राह्मण है तो यह भी उचित नहीं है क्योंकि चाण्डाल पर्यन्त सभी मनुष्यों का शरीर पंचभौतिक होने के कारण एक समान है। सबमें वृद्धावस्था, मृत्यु और धर्म-अधर्म आदि समान ही होते हैं।
यदि ऐसा कहें कि ब्राह्मण का रंग श्वेत वर्ण का होता है, क्षत्रिय का वर्ण लाल, वैश्य का पीला तथा शूद्र का रंग काला होता है तो यह भी मिथ्या धारणा है। कश्मीर के सभी शूद्र भी गौरवर्ण के होते हैं जबकि तमिलनाडु के ब्राह्मण भी काले रंग के होते हैं।
यदि शरीर को ही जीव मानते हैं तो मरे हुए माता-पिता के शरीर को जलाने पर पुत्र को ब्रह्महत्या लगनी चाहिए। इस प्रकार शरीर के आधार पर भी किसी को ब्राह्मण नहीं कहा जा सकता है।
जाति के आधार पर भी किसी को ब्राह्मण नहीं कह सकते क्योंकि विजातीय प्राणियों में अनेक जातियों में उत्पन्न होने वाले ऋषि विद्यमान हैं जैसे हरिणी से ऋष्यशृंग, कुश से कौशिक, शृंगाल से जम्बूक, वल्मीक (चीटिंयों की बनाई हुई मिट्टी के ढेर) से वाल्मीकि, मल्लाह की कन्या से व्यास, शशक (खरगोश) से गौतम, उर्वशी से वशिष्ठ तथा कलश (घड़े) से अगस्त्य ऋषि उत्पन्न हुए।
इस प्रकार ऋषियों की कोई जाति नहीं है और जाति के आधार पर किसी को भी ब्राह्मण नहीं कहा जा सकता।
मात्र ज्ञान के आधार पर भी किसी को ब्राह्मण नहीं माना जा सकता है क्योंकि क्षत्रिय, वैश्य एवं शूद्रादि में भी अनेक परमार्थदर्शी विद्वान होते हैं। यदि ऐसा होता तो परमज्ञानी जनक को क्षत्रिय नहीं अपितु ब्राह्मण माना जाता।
क्या कर्म से कोई ब्राह्मण होता है? नहीं, ऐसा नहीं होता। सभी प्राणी अतीत में संचित कर्म के फल से प्रेरित होकर अपना कार्य करते हैं। जब सभी वर्णों के लोग प्रारब्ध चक्र में ही बंधे हुए है तब वर्ण का भेद कैसे हो सकता है? यदि ब्राह्मण अपनी कथित वर्णगत श्रेष्ठता के आधार पर अपने पूर्व संचित कर्म को अतिक्रान्त करने में समर्थ होता तो उसकी श्रेष्ठता समझ में आती। जब ऐसा नहीं होता तो मात्र कर्म से ब्राह्मण का निर्धारण होना उचित नहीं है।
कुछ विद्वानों का कथन है कि पाण्डित्य से ब्राह्मणत्व होता है किन्तु ऐसा नहीं है क्योंकि क्षत्रियों, वैश्यों एवं शूद्रों में भी उच्च स्तर के विद्वान पाये जाते है।
कुछ विद्वान धर्म को ही ब्राह्मणत्व का पर्याय समझते है किन्तु, ऐसा नहीं है क्यांेकि क्षत्रियों, वैश्यों और शूद्रों में भी बहुत से लोग इष्ट और पूर्व अर्थात् यज्ञ एवं उद्यान आदि के निर्माण जैसे परोपकार के कार्य करते हैं।
तो क्या धार्मिक कार्य से कोई ब्राह्मण होता है? नहीं, क्योंकि क्षत्रिय, वैश्य एवं शूद्र भी दान आदि शुभ धार्मिक कार्यों को करते हैं।
ऐसी स्थिति में प्रश्न यह होता है कि तब ब्राह्मण किसे माना जाय? वही व्यक्ति ब्राह्मण कहलाने के योग्य है जो अपने हाथ में आंवले की भांति सभी दोषों से रहित, सत्य, ज्ञान एवं अनन्त आनन्द के स्वरूप, निर्विकल्प, पूर्ण, कल्पाधार, सम्पूर्ण प्राणियों में विद्यमान, आकाश की भांति अन्दर-बाहर व्याप्त उस परब्रह्म को जानता है तथा जो स्वयं काम, रागादि दोषों से रहित है, जो शम दम आदि गुणों से सम्पन्न है, जो ईष्या, तृष्णा, आशा तथा मोह आदि गुणों अवगुणों से रहित है, जो दम्भ, अहंकार आदि दोषों से बचा हुआ है। इन सभी लक्षणों से युक्त व्यक्ति ही ब्राह्मण है। इन लक्षणों से हीन व्यक्ति में ब्राह्मणत्व नहीं हो सकता है।
अपने पाण्डित्य के अभिमान में डूबे रहने वाले, वंशानुगत श्रेष्ठता का दम्भ भरने वाले, सन्यास के वस्त्र धारण कर लेने पर भी जातीय उन्माद के मनोविकार से ग्रसित तथा कथित हिन्दू क्या वज्रसूची उपनिषद् के इन कथनों को स्वीकार करने के लिये प्रस्तुत है? यदि नहीं हैं तो वे किस आधार पर स्वयं को हिन्दू कहते हैं। आज से 2000 वर्ष पूर्व के संस्कृत ग्रन्थों में तो कहीं भी हिन्दू शब्द ही नहीं है। यह विदेशियों के द्वारा उच्चारित शब्द है। स्वयं को आर्य कहने में संकोच क्यों होता है? क्या पौराणिक विकृतियों का बोझ ढोते रहना ही हिन्दुत्व है और क्या इसे ही सनातन धर्म कहते है? वस्तुतः सनातन काल से चले आ रहे वेदांे की मर्यादा का जो उल्लंघन करता है, उसे किसी भी दृष्टि से हिन्दू कहलाने का कोई अधिकार ही नहीं है ?
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यदि इस ब्रह्माण्ड को ब्रह्म का स्थूल रूप मानकर आलंकारिक रूप से पुरुष रूप में कल्पित किया जाय तो व्यष्टि रूप में एक मानव तन के अन्दर भी चारों वर्णों के गुणों का होना स्वाभाविक है।
जब कोई व्यक्ति प्रातःकाल ध्यान एवं वेद का स्वाध्याय करता है तो वह ब्राह्मण है। वही व्यक्ति जब व्यायाम करता है तो क्षत्रियत्व को धारण करता है। अर्थोपार्जन के समय वह वैश्य की शोभा से युक्त है तो अतिथियों के स्वागत सत्कार एवं सेवा के समय शूद्र कहा जाता है।
यद्यपि प्रत्येक मनुष्य में चारों वर्णों का गुण होता है किन्तु जिस गुण की विशेष प्रधानता होती है, उसे उसी वर्ण के अन्तर्गत माना जाता है। जिस प्रकार किसी व्यक्ति के अन्दर मुख, भुजा, उदर एवं पैर के होने पर ही उसकी पूर्णता है, उसी प्रकार समाज में सभी वर्णों की उपयोगिता है। किसी भी वर्ण को वंशानुगत आधार पर तुच्छ समझना समाज को विध्वंस की खाई में गिराने जैसा है।
वेदानुसार न तो कोई व्यक्ति केवल ब्राह्मण हो सकता है और न केवल शूद्र। जो व्यक्ति शूद्र शब्द से भी घृणा करता है तो उसे सोचना चाहिये कि क्या वह अपने पैर को भी काट देगा? क्या वह अपने माता-पिता तथा आचार्य के चरण स्पर्श भी नहीं करेगा? गंगा और पृथ्वी की भी उत्पत्ति तो पैर से ही हुई है। तो क्या वह गंगा में स्नान भी नहीं करेगा? यदि वह पृथ्वी का भी परित्याग कर देगा तो ब्रह्माण्ड में कहाँ रहेगा ?
किसी भी समाज का तभी पूर्ण विकास हो सकता है जब प्रत्येक मनुष्य चारों वर्णों के गुणों को अपने में धारण करने का प्रयास करें। विश्वामित्र, वशिष्ठ, अगस्त्य आदि महर्षि जहां वेदों के मन्त्र द्रष्टा थे, वहीं असुरों के उन्मूलन में भी सक्रिय थे। उनके आश्रमों में ऐश्वर्य भी था और वे दीन असहायों की सेवा में भी संलग्न थे। इस प्रकार उनमें न्यूनाधिक्य चारों वर्णों के गुण थे।
हमारे राष्ट्रनायक महाराणा प्रताप, छत्रपति शिवा जी, गुरु गोविन्द सिंह एवं महाराजा छत्रशाल की सेना में चारों वर्णों के लोग थे। महाराणा प्रताप के संकट काल में भीलों ने उनकी भरपूर सहायता की थी। गुरु गोविन्द सिंह ने अपने खालसा पन्थ में जाति भेद नहीं रखा। उनके पंचप्यारों में भी छोटी जाति के लोग थे। उनके पंचप्यारों में द्वारिका का धोबी मोहकम चन्द्र था तो बीदर का नाई साहब चन्द था। इसी प्रकार जगन्नाथपुरी का रसोइया हिम्मतराय भी था। बुन्देल केशरी महाराजा छत्रशाल के अनन्य सद्गुरु श्री प्राणनाथ जी अपनी तारतम वाणी में कहते हैं-
एक भेख जो विप्र का, दूजा भेख चंडाल ।
जाके छुए छूत लागे, ताके संग कौन हवाल ।।
चंडाल हिरदे निरमल, खेले संग भगवान ।
देखलावे नहीं काहूं को, गोप राखे नाम ।।
अब कहो काके हुए, अंग लागे छोत ।
अधम तम विप्र अंगे, चंडाल अंग उद्दोत ।।
विप्र भेख बाहेर दृष्टि, खट करम पाले वेद ।
स्याम खिन सुपने नहीं, जाने नहीं ब्रह्म भेद ।।
निम्न वर्ग को देखते ही नाक भौं सिकोड़ने वाले और छुआछूत को ही अपना परम धर्म समझने वाले रुढ़िवादी समाज को आत्म-मन्थन करना चाहिए कि वह किस दिशा में जा रहा है? शूद्र के हाथ की रोटी खाने से यदि कोई ब्राह्मण शूद्र हो जाता है तो क्या ब्राह्मण की रोटी खाने से कोई शूद्र ब्राह्मण हो सकता है? यदि नहीं हो सकता तो इसका यही अर्थ है कि शूद्र की रोटी में ब्राह्मण की रोटी से अधिक शक्ति है जो वर्ण परिवर्तन करा देती है।
सृष्टि के प्रारम्भिक काल से लेकर महाभारत काल तक के किसी भी ग्रन्थ में ऐसा वर्णन नहीं है कि यज्ञ के लिये आये हुए ब्राह्मण अपना अलग भोजन बनाते हों। अलग-अलग जातियों के लोगों द्वारा अलग-अलग भोजन बनाने की मानसिकता ने हिन्दू समाज को कभी एकजूट नहीं होने दिया।
विदेशी आक्रान्ता बाबर और अब्दाली ने भारतीय सैनिकों को जातीय आधार पर अलग-अलग भोजन बनाते हुए देखकर ही अपनी विजय सुनिश्चित कर ली थी। यदि भरतपूर का जाट राजा सूरजमल जातीय
आधार पर रुष्ट होकर मराठा सेना से अलग नहीं हुआ होता तो सम्भवतः पानीपत के युद्ध में देश को पराजय का मुख नहीं देखना पड़ता ।
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राजकुमार वर्धमान की उम्र 30 वर्ष है। वे सन्यास के लिये अपने महल से निकलकर राजपथ पर जा रहे हैं। उनके साथ राजपरिवार के प्रायः सभी लोग हैं, मन्त्रीगण हैं तथा प्रजावर्ग भी। सामने से हरिकेश नामक एक चाण्डाल आ रहा है। उसे देखते ही सभी लोग चिल्लाने लगते हैं-
(समवेत स्वर में)- अरे, रोको उसे, रोको! कही यह चाण्डाल वर्धमान का स्पर्श न कर ले।
वर्धमान- नहीं, उसे कोई भी न रोके। उसे मेरे पास आने दो।
हरिकेश पास आकर वर्धमान के चरणों को छूना चाहता है किन्तु उसके ऐसा करने से पहले ही वर्धमान उसके हाथ पकड़ कर गले लगा लेते हैं। सभी लोग आश्चर्य से यह दृश्य देखते रहते हैं।
वर्धमान- सबकी आत्मा एक समान है। मानव-मानव में कोई भी भेद नहीं है। यह भेद-भाव एक सामाजिक आडम्बर है।
अपने अश्रुपूरित नेत्रों से हरिकेशबल वर्धमान के इस प्रेम व्यवहार को देखता रह जाता है।
12 वर्षों के तप के पश्चात् वर्धमान को कैवल्य ज्ञान प्राप्त होता है। हरिकेशबल पुनः उनके चरणों में जाता है। वर्धमान अब महावीर स्वामी के रूप में जाने जाते हैं। वे हरिकेशबल को दीक्षा देकर श्रमण (सन्यासी) बना देते है। अब हरिकेशबल अपनी कठोर साधना से महामुनि के रूप में प्रसिद्ध होते हैं।
एक गन्दा नाला सरोवर में प्रवेश चाहता था। सरोवर ने उसे यह कहते हुए दूत्कार कर भगा दिया कि तुम्हारे स्पर्श से मैं भी गन्दा हो जाऊंगा। गन्दा नाला एक सतत प्रवाहिनी नदी में जा मिला। नदी ने उसे आश्रय दिया और अपने साथ लेकर उसे अनन्त जलराशि वाले महासागर से मिला दिया। नदी के साथ महासागर में मिलकर नाले को भी महासागर कहलाने की शोभा मिला।
महापुरुष उस बहती हुई नदी के समान होते हैं, जो समाज से उपेक्षित एवं परित्यक्त व्यक्ति को भी गले लगाते हैं और उसे अनन्त परब्रह्म के प्रेम मार्ग पर चला देते हैं। उनके हृदय से बहने वाली करुणा रूप नदी की अखण्ड धारा प्रत्येक परित्यक्त को अपने निर्मल जल में स्नान कराती है और उसके आसूं पोंछकर उन लोगों से भी महान बना देती है जिन्होंने उसे दुत्कारा होता है। बुद्ध और महावीर ऐसे विश्ववन्द्य महापुरुष हैं जिनके हृदय से प्रवाहित होने वाली करुणा में न जाने कितने दलितों ने स्नानकर परमशान्ति को प्राप्त किया है।
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राजगृह में सुनीत नामक एक भङ्गी रहते थे । वे राजमार्ग की सफाई करके अपनी जीविका चलाते थे। उस समय भगवान बुद्ध राजगृह मंे प्रवास कर रहे थे। वे जिस समय अपने शिष्यों के साथ भिक्षा के लिये निकले, उसी समय सुनीत मार्ग में कचरे को वाहन में रख रहे थे।
अचानक ही अपने समीप बुद्ध जी को पाकर सुनीत हक्के बक्के रह जाते हैं और अभिवादन की मुद्रा में अपने दोनों हाथ जोड़ देते हैं। भगवान बुद्ध उन्हें इस अवस्था में देखकर पूछते हैं-
बुद्ध जी- सुनीत! तुम्हारे लिये यह हीन पेशा उपयुक्त नहीं है। क्या तुम अपने घर को छोड़कर संघ में सम्मिलित हो सकते हो?
सुनीत- मुझे आपकी स्वीकृति चाहिए । जब आप अपने महल को छोड़कर आ सकते हैं तो मैं क्यों नही आ सकता?
बुद्ध जी- आज से तुम भिक्षु हो। तुम्हें आज ही भिक्षु की दीक्षा दी जायेगी।
उसे उपदेश देते हुए भगवान बुद्ध कहते हैं- सदाचार, संयम और आत्मानुशासन से ही मनुष्य निष्पाप, पवित्र तथा पूज्य बनता है।
समय पाकर सुनीत एक महान भिक्षु बनते हैं। उनके मुख से निकले हुए उद्गार इस प्रकार है- मैं पहले नीच कुल में उत्पन्न हुआ था। दरिद्रता के कारण मुझे उचित भोजन भी नहीं मिल पता था। मुझे मैला एवं कूड़ा करकट फेंकने का कार्य करना पड़ता था। एक दिन मैंने राजगृह में भिक्षुक संघ के साथ भगवान बुद्ध को देखा। मैं उस समय मार्ग की सफाई कर रहा था । मैं झाडू छोड़कर उनकी वन्दना में लग गया। बुद्ध ने मेरे ऊपर अपार कृपा की। मैंने उनसे दीक्षा की याचना की। करुणा के मूर्तिमान स्वरूप ने स्नेह पूर्वक कहा-आ भिक्षु! मेरे लिये यही सबसे बड़ी निधि है।
सोपक श्रावस्ती का सात वर्षीय चाण्डाल बालक था। एक दिन भगवान बुद्ध श्मशान के पास से गुजर रहे थे। सोपक ने उन्हें देखकर निर्भयता पूर्वक दीक्षा देने की प्रार्थना की। भगवान बुद्ध कहते हैं- ‘तुम अभी बालक हो। संघ में प्रवेश से पूर्व पिता की अनुमति आवश्यक है’ सोपक अपने पिता को बुलाकर लाता है।
उसका पिता बुद्ध को प्रणाम करता है और अपने पुत्र को प्रव्रज्या की अनुमति देता है। बुद्ध सोपक को अपने साथ लेते जाते हैं। उसे दीक्षा मिलती है और चाण्डाल सोपक अपनी साधना से आध्यात्मिक सफलता के शीर्ष पर पहुंच जाता है। सोपक की बहन सुप्पिया भी भगवान बुद्ध के चरणों में आकर महान भिक्षुणी (थेरी) बन गयी।
अमूर्त करुणा बुद्ध के रूप में मूर्तिमान हो उठी थी। भगवान बुद्ध ने सालवती गणिका के गर्भ से उत्पन्न उस जीवक को भी अपने चरणों में रखा जिसे जन्म लेने के बाद ही कूड़े पर फेंक दिया गया था। अपने राजपरिवार के नाई उपाली को भी दीक्षा देकर भिक्षु बना दिया। प्रकृति नामक उस चाण्डाल कन्या को भी भिक्षुणी बना दिया जो आनन्द के प्रति आसक्त हो गयी थी। 999 व्यक्तियों की हत्याकर उनकी अंगुलियों की माला पहनने वाले अंगुलिमाल की ललकार पर भी जो नहीं रूका, वह बुद्ध अपने शिष्य को नहलाने के लिये रूक जाता है। मल-मूत्र से सने हुए असहाय भिक्षुक को स्वयं अपने हाथों से नहला धूलाकर स्वच्छ करना एक अभूतपूर्व कार्य था। संसार में यह कार्य आज तक सम्भवतः किसी ने भी नहीं किया था ।
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जन्म के आधार पर मानव-मानव में धधकने वाली घृणा की दावाग्नि को बुझाने के लिये भगवान बुद्ध के मुखारविन्द से जो अमृत वर्षा हुई उसने संसार को धन्य-धन्य कर दिया। उस अमृत वर्षा की कुछ बूंदें इस प्रकार है-
जो ध्यानी है, निर्मल हृदय है, कृत्कृत्य है, चिन्त के मलों से रहित है, जिसने परम सत्य को पा लिया है, उसे मैं ब्राह्मण कहता हूँ।
कोई भी व्यक्ति न तो जटायें रखने से ब्राह्मण होता है, न गोत्र से और न जन्म से ही ब्राह्मण होता है। जिसमें सत्य और धर्म है, वही पवित्र है और वही ब्राह्मण है।
जो अपने चित्त को दुषित किये बिना ही किसी के अपशब्दों को सहन करता है और क्षमा का बल ही जिसके बल का सेनापति है, उसे मैं ब्राह्मण कहता हूँ।
जो क्रोध से रहित है, शीलवान है, बहुश्रुत है, संयमी है, और इसी शरीर से अर्थात् इसी जीवन में मोक्ष प्राप्त करने वाला है, उसे मैं ब्राह्मण कहता हूँ ।
कमल के पत्ते पर स्थित जल और आरे की नोक पर विद्यमान सरसों की भांति जो विषय भोगों में लिप्त नहीं होता, उसे मैं ब्राह्मण कहता हूँ।
जो इसी जन्म में दुःखों के विनाश को जान लेता है, कर्मों के बोझ को उतार कर फेंक देता है और जो आसक्ति से रहित हो जाता है, उसे मैं ब्राह्मण कहता हूँ।
जो गम्भीर प्रजा वाला, मेधावी, मार्ग- और अमार्ग का ज्ञाता है, जिसने उत्तम पदार्थ (सत्य) को पा लिया है, उसे मैं ब्राह्मण कहता हूँ।
जन्म से न तो कोई ब्राह्मण होता है और न जन्म से अब्राह्मण। कर्म से ही मनुष्य ब्राह्मण होता है और कर्म से ही अब्राह्मण ।
जो मनुष्य क्रोधी, वैर बांधने वाला, बहुत ईर्ष्यालु, मिथ्या दृष्टि वाला और मायावी है, उसे अनार्य (वृषल) जानना चाहिए।
जो योनिज या अण्डज किसी भी प्राणी की हिंसा करता है, जिसमें प्राणियों के प्रति दया नहीं है, उसे वृषल (नीच) जानना चाहिये।
जो ग्राम अथवा अरण्य में दूसरों की सम्पत्ति को चोरी से ले लेता है, उसे वृषल जानना चाहिये।
जो किसी वस्तु की इच्छा से मार्ग में चलते हुए व्यक्ति को मारकर कुछ ले लेता है, उसे वृषल जानिये।
जो माता-पिता, भाई-बहन या सास को मारता है या दुवर्चनपूर्वक
क्रोध करता है, उसे नीच (वृषल) समझना चाहिये।
जो मोह से मोहित होकर किसी वस्तु को चाहते हुए उसे पाने के लिये झूठ बोलता है, उसे अनार्य समझें।
जो मात्र अपनी ही बड़ाई करता है, दूसरों की निन्दा करता है और अपने स्वाभिमान से गिर जाता है, उसे वृषल जानना चाहिये।
जो क्रोधी, कंजूस, बुरी इच्छा वाला, शठ, निर्लज्ज और असंकोची है, उसे नीच (वृषल) समझना चाहिये।
जन्म से कोई भी वृषल (अनार्य) नहीं होता है और न जन्म से कोई ब्राह्मण ही होता है। कर्मों से ही कोई अनार्य होता है और कर्मांे से ही ब्राह्मण।
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लौकिक संस्कृत के गद्य साहित्य रूपी आकाश में बाण भट्ट द्वारा रचित
‘हर्ष रचित’
एवं
‘कादम्बरी’
की शोभा उस जगमगाते हुए सूर्य की तरह है जिसके प्रकाश से अन्य गद्य ग्रन्थ चन्द्रमा के समान शोभायमान होते हैं। संस्कृत भाषा पर अपना जन्मसिद्ध अधिकार मानने वाला पौराणिक ब्राह्मण समाज यह भूल जाता है कि बाणभट्ट जैसे विद्वान की दूसरी माता शूद्रा ही थी।
बाणभट्ट का परिवार सोननदी के किनारे स्थित प्रीतिकूट गांव में रहता था। उनका जन्म वात्स्यायन वंश में सम्पन्न ब्राह्मण कुल में हुआ था। इनके पिता का नाम चन्द्रभानु तथा माता का नाम राजदेवी था। उनकी दूसरी माता शूद्र परिवार की थी, जिनसे चन्द्रसेन एवं मातृषेण नामक दो भाइयों का जन्म हुआ था। बाणभट्ट को अपने इन दोनों भाइयों के प्रति अगाध स्नेह था।
बाल्यकाल में ही बाणभट्ट की माता का देह त्याग हो गया था। 14 वर्ष की आयु में पिता भी मृत्यु को प्राप्त हो गये। इसके पश्चात् बाणभट्ट अपने दोनों भाइयों एवं मित्रों के साथ जगह-जगह भ्रमण करने लगे। बाणभट्ट के घनिष्ट मित्रों में चण्डक, चामीकर, कुमारदत्त, जीमूत और दामोदर आदि थे जो दलित वर्ग से आते थे।
हर्ष रचित में वर्णित है कि अपनी बहन राज्यश्री की खोज में जब हर्ष विन्ध्याटवी पहुंचते हैं तो उनकी भेंट उस वन प्रान्त के सामन्त शरभकेतु के पुत्र व्याघ्रकेतु से होती है जो हर्ष का परिचय एक शबर-युवक से कराता है। शबर जाति उस भिल्ल जाति के अन्तर्गत आती है जिसे बाणभट्ट ने चाण्डाल की श्रेणी में रखा है।
हर्षवर्धन उस शबर युवक के साथ बहुत ही स्नेह पूर्वक बात करते हैं तथा राज्यश्री के मिल जाने के पश्चात् उसे वस्त्र, अलंकार आदि देकर विदा करते हैं।
कादम्बरी में वर्णित चाण्डाल कन्या के साथ रहने वाला वृद्ध चाण्डाल भी आर्यों के समान शुभ्र वस्त्र धारण करने वाला था। बाणभट्ट ने चाण्डाल कन्या की उपमा लक्ष्मी, मोहिनी, उमा, रति, कालिन्दी और कात्यायनी से की है।
ऐतिहासिक रूप से देखा जाय तो सम्राट हर्षवर्धन का कार्यकाल लगभग ईसा की सातवी शताब्दी में होता है अर्थात् आज से लगभग 1300 वर्ष पूर्व। इन दोनों ग्रन्थों से यही विदित होता है कि उस समय जन्मगत जाति के नाम भर छूतछात का कोई स्थान ही नहीं था। विगत एक हजार वर्षों की दासता ने जन्म के आधार पर होने वाली वर्ण व्यवस्था में घृणा की ऐसी ज्वाला प्रज्ज्वलित की है कि अबसे लगभग 100 वर्ष दक्षिण भारत में पूर्व निम्न दलित वर्गों को मार्ग में चलते समय अपनी कमर में झाडू या घण्टा आदि बांधना पड़ता था।
दलितांे के नेत्रों से बहते आंसुओं ने भारतवर्ष को पराधीनता की बेड़ियों में जकड़े रहने का श्राप दिया। क्या वर्तमान में अपनी जातीय-श्रेष्ठता का दम्भ भरने वाले लोग इतिहास से कुछ सीखने का प्रयास करेंगे ?
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कश्मीर में एक समय भगवान त्रिभुवन स्वामी के मन्दिर का निर्माण कार्य चल रहा था। उस मन्दिर की सीमा के अन्दर एक चर्मकार की झोपड़ी का अधिग्रहण अनिवार्य था किन्तु राज्य के अधिकारियों के द्वारा बार-बार समझाने और उचित मूल्य देने पर भी वह चर्मकार अपनी झोपड़ी दोड़ने के लिये तैयार नहीं था।
महाराज चन्द्रापीड़ अपने महल में सिंहासन पर बैठे हैं। एक अधिकारी आकर मन्दिर निर्माण सम्बन्धी सूचना देता है-
‘महाराज! एक चर्मकार की झोपड़ी मन्दिर के क्षेत्र में स्थित है। बार-बार समझाने पर भी वह चर्मकार किसी भी स्थिति में अपनी झोपड़ी को छोड़ने के लिये तैयार नहीं है।
चन्द्रापीड़- इस स्थिति के लिये तुम स्वयं दोषी हो। उस चर्मकार से स्वीकृति लिये बिना तुमने मन्दिर का निर्माण कार्य प्रारम्भ ही क्यों किया? अब या तो तुम मन्दिर का निर्माण कार्य बन्द कर दो या किसी अन्य स्थान पर मन्दिर बनाओ। यदि राजा की ओर से ही अधर्म होगा तो न्याय के मार्ग पर कौन चलेगा?
इस समस्या के समाधान के लिये मन्त्री-परिषद् की ओर से एक दूत भेजा जाता है। दूत सूचना देता है कि चर्मकार महाराज से मिलना चाहता है। अन्ततोगत्वा अब चर्मकार चन्द्रापीड़ के समक्ष प्रस्तुत होता है।
चन्द्रापीड़- यदि आप अपनी झोपड़ी के स्थान को मन्दिर के निर्माण हेतु समर्पित कर देते हैं तो राजकोश से आपके लिये एक सुन्दर महल दूसरे स्थान पर बना कर आपको भेंट किया जायेगा ।
चर्मकार- महाराज! यदि मैं कुछ कटु सत्य कहूं तो आपको क्रोध नहीं करना चाहिए। मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्रीराम ने एक कुत्ते का भी न्याय किया था। न तो आप भगवान राम से अधिक महान हैं और न मैं एक कुत्ते से तुच्छ हूँ। अट्टालिकाओं से भरी हुई राजधानी जिस प्रकार आपको प्यारी है, उसी प्रकार मुझे भी बहुत छिद्रों से युक्त अपनी कुटिया प्यारी है।
मेरे जन्म से लेकर आज दिन तक यह कुटिया माता के समान मेरे सुख-दुःख की साक्षी रही है। मैं इसे नष्ट होते हुए नहीं देख सकता हूँ। मनुष्य का घर छिनने पर उसे जो कष्ट होता है, उसकी अनुभूति केवल दो ही व्यक्ति कर सकते हैं- एक तो राज्य को खोया हुआ राजा तथा दूसरा अपने विमान से गिरा हुआ देवता ।
किन्तु यदि आप मेरे यहां आकर याचना करें तो शिष्टाचार के नाते मैं आपको अपनी झोपड़ी दे सकता हूँ।
इसके पश्चात् राजा चन्द्रापीड़ उस चर्मकार के घर जाते हैं और धन देकर उसकी झोपड़ी खरीद लेते हैं। उनके इस प्रजापालन रूप न्याय से गद्गद होकर चर्मकार कहता है- जिस प्रकार धर्मराज ने कुत्ते के रूप में
युधिष्ठिर की परीक्षा ली थी, उसी प्रकार मैंने भी आपकी परीक्षा ली हैं आपका कल्याण हो। आप चिरकाल तक निर्विघ्न राज्य करते रहें।
राजतरंगिणी में वर्णित यह घटनाक्रम यही दर्शाता है कि वर्तमान समय में घृणित समझे जाने वाले दलितों का भी आज से 1500 वर्ष पूर्व इतना सम्मान था कि स्वयं राजा को भी एक दलित की झोपड़ी पर जाना पड़ता है। आज कल तो ऐसा भी देखा जाता है कि लोकतन्त्र की दुहाई देने वाली सरकारें अपने पुलिस बल की सहायता से गरीबों की भूमि पर बलपूर्वक
अधिकार भी कर लेती हैं।
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वैदिक काल में वर्ण व्यवस्था विद्याध्ययन के आधार पर निर्धारित होती थी। धीरे-धीरे आलस्य-प्रमाद और पक्षपात के कारण वर्ण व्यवस्था वंशानुगत हो गयी। विद्या और शील से हीन व्यक्ति भी स्वयं को श्रोत्रिय, पाठक,
उपाध्यय, द्विवेदी, चतुर्वेदी आदि उपाधियों से अलंकृत करते रहे।
ऐसे ही नकली ब्राह्मणों ने नामधारी राजाओं के साथ मिलकर शेष अन्य वर्णों को शूद्र कहना प्रारम्भ किया। इन पुराण पन्थियों ने स्वर्णकार, लौहाकार, कुम्भकार, गोप, माली, कायस्थ तथा नापित आदि अनेक वर्णों में जो पारम्परिक रूप से उपनयन हुआ करता था, उसे बन्द करवा दिया जिससे शिक्षण कार्य रसातल में चला गया।
कालान्तर में विदेशी आक्रान्ताओं के शासन काल में
‘जजिया’
कर से बचने के लिये ब्राह्मणों एवं क्षत्रियों ने अपनी बालिकाओं का भी यज्ञोपवीत संस्कार बन्द कर दिया। कोढ़ में खाज की तरह इसका दुष्परिणाम यह हुआ कि 75 प्रतिशत जनसंख्या अशिक्षित हो गयी। शेष बचे हुए पुरुष वर्ग ब्राह्मणों एवं क्षत्रियों में नाममात्र की औपचारिक शिक्षा रह गयी। स्वतन्त्रता से पहले तो ऐसी स्थिति थी कि यदि डाकखाने से कोई पत्र आता था तो पूरे गांव में उसे पढ़ने में केवल पटवारी ही सक्षम था।
विश्वगुरु भारत की ऐसी दुर्दशा क्यों हुई? शिक्षा और संस्कारों से हीन होकर यह सम्पूर्ण देश मात्र जड़ पूजा, छूतछात और वंशानुगत जाति व्यवस्था में डूब गया। 1200 जातियों में स्वयं को श्रेष्ठ और दूसरों को नीचा दिखाने की घोर प्रवृत्ति बनी रही, जिसने सम्पूर्ण भारत को विनाश के दहकते हुए ज्वालामुखी के मुख पर बैठा दिया। परिणाम सबके सामने है। मुहम्मद बिन कासिम से लेकर इस्ट इण्डिया कम्पनी तक जो भी विदेशी आक्रान्ता आये, हमारे ऊपर पाद प्रहार करते रहे (लात मारते रहे) और हम उन्हें अपना भाग्य विधाता मान कर शिर नीचा किये हुए सहते रहे। हमारे मन में केवल यही धारणा बन गयी कि यही हमारी नियति है और हमारा जन्म भी मात्र इसी के लिये हुआ है।
यदि हम अपने स्वर्णिम इतिहास के पृष्ठों को पलटें तो हमें यह पता चलेगा कि उस युग में चारों वर्णों में विवाह की परम्परा थी। यह देश चिरकाल तक महर्षि दयानन्द का ऋणी रहेगा जिन्होंने वेदों की टिमटिमाती हुई ज्योति को एक विशाल ज्योति के रूप में परिवर्तित कर दिया। आज आर्य समाज के बहुसंख्यक गुरुकुल एवं विश्वविद्यालय बिना किसी भेदभाव के सम्पूर्ण मानव जाति को (निम्न वर्णों को भी) चारों वेदों की शिक्षा देने के लिये तैयार हैं। पण्डित बुद्धदेव विद्यालंकार तथा चौधरी चरण सिंह ने अपनी सभी पुत्रियों का विवाह दूसरी जातियों में किया था जिससे वंशानुगत वर्ण व्यवस्था समाप्त होकर कर्मानुसार हो जाय।
आज से लगभग 340 वर्ष पूर्व श्री महामति प्राणनाथ जी अपने 5000 अनुयायियों के साथ देश के अनेक प्रान्तों में ज्ञानोपदेश करते हुए पन्ना जी पधारे। वहां महाराजा छत्रसाल जी ने उनका शिष्यत्व स्वीकार किया। श्री महामति जी ने अपने सभी अनुयायियों को ब्रह्मज्ञान का उपदेश देकर उनके आत्मिक स्वरूप की पहचान करायी और कहा कि तुम परमधाम से आये हो। तुम्हारा निजस्वरूप इस संसार के चारों वर्णों से परे है। उनके अनुयायियों ने उनके कथनों को अक्षरशः स्वीकार किया। आज भी सभी स्वयं को धामी कहते हैं और बिना-किसी भेदभाव के आपस में विवाह सम्बन्ध स्थापित करते हैं, जबकि मूलतः उनमें दलित (फरास) से लेकर ब्राह्मण तक सभी जातियों के लोग थे। रुढ़िवादिता के अन्धकार से भरपूर उस औरंगजेबी शासन में इस प्रकार का क्रान्तिकारी निर्णय अनुकरणीय है।
वैदिक काल में प्रत्येक गृह चारों वर्णों से युक्त था। किसी का पिता अपने गुणों की अधिकता से ब्राह्मण कहलाता था तो उसके पुत्रों में कोई कोई ब्राह्मण था, तो कोई क्षत्रिय। कोई वैश्य था तो कोई शूद्र। किसी का पिता यदि शूद्र था तो उसके पुत्र ब्राह्मण थे। वैदिक मान्यता के अनुसार साहसी, तपस्वी, महान वीर एवं तन, मन, धन से समाज की सेवा करने वाले का नाम शूद्र है। बड़े-बड़े ऋषि एवं महात्मा चारों वर्णों में थे। ब्राह्मणत्व की प्रधानता से वे ब्राह्मण कहलाते थे।
उस समय इस बात की कभी चर्चा ही नहीं होती थी कि किसका विवाह कहां हो? अपने गोत्र को छोड़कर कन्या जहां भी जिसको पसन्द कर लेती थी, वहां उसका विवाह हो जाता था। ऋषि-मुनि भी दस्यु अथवा दासों की कन्याओं से विवाह कर लेते थे और उन्हें योग्य ऋषिका बना देते थे। निकृष्ट दस्यु या दास की कन्या अक्षमाला तथा शारङ्गी का विवाह ऋषि वशिष्ठ एवं मन्दपाल से हुआ था जिससे ये सबके लिये परम पूज्या बन गयीं। इनके अतिरिक्त अन्य बहुत सी निकृष्ट पुरुषों की कन्यायें अपने-अपने स्वामी के गुणों से उत्कृष्टता को प्राप्त हुई।
ऐतरेय और कवष जैसे महर्षि भी दासीपुत्र थे। महाभारत के समय तक भी अन्तर्जातीय विवाहों को बूरा नहीं समझा जाता था। मनुष्य का मांस खाने वाले महापतित हिडिम्ब राक्षस की बहन हिडिम्बा का विवाह भीमसेन के साथ हुआ था। मनु जी ने भी कहा है पतित कुल से भी स्त्री रत्न को ग्रहण कर लेना चाहिए।
अन्तर्जातीय विवाह के अन्तर्गत अनुलोम एवं प्रतिलोम विवाह आते हैं। जब उच्च वर्ण का कुमार अपने से निम्न वर्ण की कुमारी से विवाह करता है तो उसे अनुलोम विवाह कहते हैं। इसी प्रकार निम्न वर्ण के कुमार का उच्च वर्ण की कुमारी से विवाह करना प्रतिलोम विवाह कहलाता है अर्थात् क्षत्रिय कुमार का ब्राह्मण कुमारी से, वैश्य कुमार का क्षत्रिय तथा ब्राह्मण कुमारी से और शुद्र कुमार का वैश्य, क्षत्रिय एवं ब्राह्मण कुमारी से विवाह होना प्रतिलोम विवाह है।
महाराज ययाति का ब्राह्मण कुमारी देवयानी से प्रतिलोम विवाह हुआ था। महाभारत तथा भागवत आदि में यह वर्णन आता है। जब वंशानुगत वर्ण व्यवस्था हो गयी तो प्रतिलोम विवाह की निन्दा होने लगी, फिर भी उतना बूरा नहीं माना जाता था, जितना आजकल माना जाता है।
क्षत्रिय पुरुष से ब्राह्मण की कन्या में जो बालक होता है, वह सूत कहलाता है। रामायण कालीन सुमन्त जी सूत ही थे जो महाराज दशरथ के सारथी एवं मन्त्री थे। धृतराष्ट्र को महाभारत का आंखों देखा दृश्य वर्णित करने वाले संजय भी सूत ही थे। यही नहीं, ऋषि मुनियों को महाभारत तथा पुराण आदि की कथा सुनाने वाले भी सूत (उग्रश्रवा) थे ।
प्रतिलोम विवाह का नाम सुनते ही क्रोध से अंगारा बन जाने वाले पौराणिक बन्धु यह भूल जाते हैं कि उनके आचार्य (आदर्श) भी प्रतिलोम विवाह की ही देन है। सृष्टि के प्रारम्भ से लेकर आज दिन तक अन्तर्जातीय विवाहों की एक लम्बी श्रृंखला है। वशिष्ठ और विश्वामित्र जैसे ब्रह्मर्षि, परशुराम जैसे ब्रह्मचारी, इसी के अन्तर्गत आते हैं। सांख्य दर्शन के रचनाकार कपिल जी ब्राह्मण होने पर भी क्षत्रिय मनु जी के दौहित्र हैं। वेद व्यास जी निषाद कन्या से उत्पन्न हुए। वेद के तत्ववेत्ता ऋषि ऐतरेय भी दासी पुत्र हैं। ऐलूष कवष भी दासी पुत्र ही है। धृतराष्ट्र, पाण्डु, विदुर तथा पांचों पाण्डव भी नियोग के द्वारा ही पैदा हुए हैं। सम्राट चन्द्रगुप्त का विवाह भी यवन कन्या हेलेना से आचार्य चाणक्य के निर्देश पर ही हुआ था।
इतिहास की निष्पक्ष समीक्षा से यही निष्कर्ष निकलता है कि एक वर्ण (व्यवसायी) का दूसरे वर्ण (व्यवसायी) में विवाह होने पर होने वाली सन्तान शारीरिक, मानसिक तथा आध्यात्मिक दृष्टि से शक्तिशाली होती है।
जातीय विद्वेष की अग्नि में जलकर पराधीनता एवं खण्डित होने का दंश झेलने वाले भारत के लिये यह आवश्यक है कि वह गुण- कर्म के अनुसार ही वर्णव्यवस्था एवं विवाह को मानें और अन्तर्जातीय विवाहों पर धर्म भ्रष्टता का आरोप लगाकर भयानक स्थितियां पैदा करने वाले रूढ़िवादी पौराणिकों की बातों को अनसुना करे। वेद-विरुद्ध किसी का भी कथन त्याज्य है।
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दहकते हुए सूर्य को बादल ढ़क कर निस्तेज बना देते हैं। घने बादलों के समूह को हवा के झोंके उड़ा ले जाते हैं। प्रचण्ड झंझावात (तूफान) भी जिस घास को उखाड़ नहीं पाता उसे एक छोटा सा चूहा अपने पंजों एवं दांतों से नष्ट कर देता है। पृथ्वी से 13 लाख गुना बड़ा सूर्य ही सभी प्राणियों एवं वनस्पतियों के जीवन का आधार है किन्तु एक छोटे से चूहे के महत्व को भी तुच्छ नहीं समझना चाहिये।
इसी प्रकार अपौरुषेय वेदों, उसकी व्याख्यान स्वरूप 1127 शाखाओं, ब्राह्मण ग्रन्थों, आरण्यकों, उपनिषदों, एवं दर्शन शास्त्रों में जिस गुण, कर्म एवं स्वभाव के अनुसार वर्ण व्यवस्था का वर्णन किया गया है, उसी को एक सामान्य से दिखने वाले भविष्य पुराण में जिस ओजस्वी वाणी में दर्शाया गया है, उसे पढ़कर आश्चर्य होता है। भविष्य पुराण के ब्राह्म खण्ड में हृदय को झकझोरने वाले वचनों की एक झलक ऐसी है-
जिस प्रकार का भेद गाय और घोड़े के बीच है, वैसा भेद मनुष्यों के ब्राह्मण-शूद्रादि में नहीं है। कार्य की शक्ति का निमित्त होने के कारण यह भेद कृत्रिम और सांकेतिक (काल्पनिक) है ।।34।।
प्याज लहसुन खाने वाले, मृगी तथा ऊँटनी का दूध पीने वाले, मांस एवं सभी प्रकार के रस और दूध का विक्रय करने वाले, दूबारी व्याही गयी स्त्री, शूद्र की पत्नी, वेश्या एवं चाण्डाल की स्त्री के साथ समागम करने वाले, प्रेम कार्य (श्राद्ध-कर्म) में अन्न खाने वाले, प्रेत का वस्त्र धारण करने वाले, मृत्यु या जन्म के अशौच में सर्वत्र भोजन करने वाले व्यक्ति ब्राह्मण, देवता, पितर, भूत एवं मनुष्यों से भी जाति-बहिष्कृत है।।38-40।।
ईर्ष्या, द्वेष, मद, तृष्णा, और काम से मोहित, आचारहीन और चुगलखोर ब्राह्मणों को सभी प्रकार से नष्ट अर्थात् जाति से बहिष्कृत समझना चाहिए।।41।।
जो मनुष्य शास्त्रोक्त न्याय मार्ग से भ्रष्ट हैं, विशिष्ट गोत्र एवं शुद्ध संस्कार से सम्पन्न होकर श्रुति परम्परा से वेदों के अध्ययन-अध्यापन में संलग्न हैं किन्तु दुराचारी हैं, वे ब्राह्मणत्व से पतित माने गये हैं।।43।।
अतः जीवों की जाति अखण्ड वस्तु नहीं है। जाति के नश्वर होने के कारण ही मनुष्य इस श्लोक का मान्य रखते हैं कि मांस, लोहे तथा नमक का व्यापार करने वाला ब्राह्मण तत्काल ही ब्राह्मणत्व से गिर जाता है। इसी प्रकार दूध बेचने वाला ब्राह्मण तीन दिनों में ही शूद्र बन जाता है।।44-45।।
कृषि, गोपालन, और ब्याज से अर्थोपार्जन करने वाले ब्राह्मण को मनुजी ने शुद्र कहा है।।46।।
मनु जी ने यह भी कहा है कि अपने श्रेष्ठ गुण, कर्म एवं स्वभाव से शुद्र ब्राह्मणत्व को प्राप्त हो जाता है तथा अपने निम्न कर्मों से ब्राह्मण भी शूद्रत्व को प्राप्त होता है। इसी प्रकार क्षत्रिय भी ब्राह्मण हो जाता है तथा वैश्य भी ।।47।।
यदि मात्र वेदों के अध्ययन से ही ब्राह्मण बना जा सकता है तो वैश्य, क्षत्रिय, रावण आदि राक्षस तथा कुत्ते का मांस खाने वाले चाण्डाल आदि दास, व्याध, आभीर, मल्लाह और शूद्रादि भी वेदों को पढ़कर ब्राह्मण कहला सकते हैं।।1-2।।
जिस प्रकार कोई शूद्र कहीं परदेश में जाकर किसी ब्राह्मण अथवा क्षत्रिय के आश्रित होकर व्यापार करता है। आकार तथा भाषा आदि में ब्राह्मण के समान होने से क्रमपूर्वक वेदों को पढ़कर शूद्र ब्राह्मण की कन्या से विवाह कर लेता है, अथवा क्षत्रिय या वैश्य वेदों को पढ़कर दक्षिण की द्रविण या गौड़ जाति में मिल जाता है, उसी प्रकार शूद्र भी अनजाने में ब्राह्मण बन जाता है। अतः मात्र वेदाध्ययन के आधार पर जाति-भेद नहीं किया जा सकता।।5-6।।
आचरण से हीन व्यक्ति को वेद भी पवित्र नहीं कर सकते, भले ही उस व्यक्ति ने छः वेदांगों सहित वेदों का अध्ययन क्यों न किया हो। द्विजों के लिये तो वेदाध्ययन शिल्प है तथा शुद्ध आचरण ही ब्राह्मण का लक्षण है।।8।।
जिसने चारों वेदों को पढ़कर भी सदाचार का पालन नहीं किया, उसके विषय में यही समझ लेना चाहिए कि उसने स्त्री-रत्न पाकर भी नपुंसक की भांति कुछ भी नहीं किया।।9।।
शिखा, प्रणव के जप, 16 संस्कारों, सन्ध्या, उपासना, मेखला, दण्ड, मृगचर्म तथा अन्य पवित्र करने वाले उपादानों को धारण करने में शूद्र सर्वथा स्वतन्त्र है। शूद्रों को हर अधिकारों से वंचित करने में जब त्रिदेव (ब्रह्मा, विष्णु एवं शिव) भी समर्थ नहीं हैं तो अन्य मनुष्यों की सामर्थ्य ही क्या है? ।।10-11।।
जिस प्रकार शूद्र अपने दुःखों के उदय होने पर उसे दूर करने तथा अपने आत्मीय सम्बन्धियों की रक्षा करने में समर्थ नहीं होते, उसी प्रकार ब्राह्मण भी नहीं होते।।17।।
वेदों के विशिष्ट अध्ययन में लगे रहना ब्राह्मणत्व का कृत्रिम लक्षण है, जिसमें यह लक्षण अतिशय पाया जाता है, वह ब्राह्मण है और जिसमें यह प्रवृत्ति नहीं है, वह ब्राह्मण नहीं कहा जा सकता है।।26।।
यदि संस्कार ही ब्राह्मण होने का मुख्य कारण है तो वही ब्राह्मण है जिसके सभी संस्कार सम्पन्न हो चुके हैं। किन्तु व्यास एवं नारद आदि मुनि तो शुद्राओं के गर्भ से उत्पन्न हुए हैं। उनके उचित संस्कार भी नहीं हुए थे फिर भी विप्रों में श्रेष्ठ कहलाये। अतः मात्र संस्कार को ही ब्राह्मणत्व का कारण मानने पर व्यास जी जैसे महर्षियों को विप्रों के समान कैसे माना जा सकता है? ।।30।।
इस प्रकार जाति का निर्धारण करने में इनमें किसी एक कारण (जीव, शरीर तथा संस्कार) को पर्याप्त नहीं माना जाता। यद्यपि किसी के द्वारा जाति के बनाये न जाने के कारण यह नित्य मानी जाती है फिर भी इसके विवेचन में कोई महत्वपूर्ण विशेषता दिखायी नहीं पड़ती। संस्कारों के अतिशय अभाव के कारण दूसरों में भी इसी प्रकार शरीर का पंचभौतिक तत्वों से बना होना भी ब्राह्मणत्व का कारण नहीं हो सकता क्योंकि ये पांचों तत्व सभी प्राणियों के शरीरों में सर्वदा विद्यमान रहते हैं तथा नास्तिकों, म्लेच्छों, तथा यवनों आदि में भी समान रूप से पाये जाते हैं ।।31-33।।
दुश्चरित्र, दुष्ट, क्रूर, तथा जघन्य अपराध करने वाले व्यक्तियों में भी वेद वर्णित धार्मिक विशेषता दिखायी देती है। अतः ब्राह्मण होने में जाति अर्थात् जन्म आदि कारण नहीं हो सकते।।34।।
शूद्र एवं ब्राह्मण के बाहरी तथा आन्तरिक तत्व में कोई भी अन्तर नहीं है। न तो सुखादि में अन्तर है, न ऐश्वर्य में, न आज्ञा देने में और न निर्भरता में ही कोई अन्तर है। इसी प्रकार शुक्र, आकृति, दुर्बलता, स्थिरता, चंचलता, बुद्धि, वैराग्य, धर्म, पराक्रम, त्रिवर्ग (धर्म, अर्थ, और काम) निपुणता, रूप-रंग, औषधि, स्त्रियों के गर्भ, प्रजनन, शरीर के मल, अस्थि समूह, छिद्रों, प्रेम, लम्बाई-चौड़ाई और रोम-कूपों में किसी भी प्रकार का कोई भी भेद नहीं है। यदि सभी देवता मिलकर श्रमपूर्वक भी इन अंगों या अवयवों में कोई अन्तर निकालना चाहें तो वे भी नहीं कर सकते।।35-39।।
न तो ब्राह्मण चन्द्रमा की किरणों के समान श्वेत होता है और न क्षत्रिय किंशुक (सेमल) के फूल के समान। इसी प्रकार वैश्य न तो हरिताल के समान पीले रंग का होता है और न शूद्र कोयले के समान काले रंग का होता है जैसा कि स्मृति आदि कुछ ग्रन्थों में वर्णित किया गया है।।41।।
पैरों से चलने, शरीर के रंगों, बालों, सुख-दुःख, रक्त, त्वचा, मांस, मेद, अस्थि, तथा रस की दृष्टि से सभी मानव समान हैं, फिर भी यह चार प्रकार का भेद कैसे हो सकता है?।।42।।
मनुष्यों के रंग, प्रमाण (लम्बाई-चौड़ाई), आकृति, गर्भ में वास, बुद्धि, कर्मेन्द्रियों, प्राण, बल, त्रिवर्ग (धर्म, अर्थ और काम), रोग तथा औषधि में कोई जातिगत विशेषता नहीं पायी जाती है अर्थात् चारों वर्णों में शारीरिक आधार पर कुछ भी भेद नहीं होता है।।43।।
अतः सभी प्रजाओं का जो एकमात्र प्रियतम है, वह सच्चिदानन्द परमात्मा जाति के आधार पर कैसे भेद कर सकता है? प्रमाण, द्रष्टान्त अथवा नीति या तर्क के द्वारा उसे कसौटी पर परखने पर भी जाति-भेद करने में सफलता नहीं मिल सकती है।।44।।
जैसे किसी एक पिता के चार पुत्र होते हैं किन्तु उन चारों पुत्रों की एक ही जाति होती है, वैसे ही सभी प्रजाओं के एक ही पिता परमात्मा हैं। इस प्रकार उनके पुत्रों में जाति भेद कैसे हो सकता है।।45।।
गूलर के फल में जिस प्रकार ऊपरी भाग में, मध्य में और अन्त में अर्थात् नीचे के भाग में रूप-रंग, आकृति, स्पर्श तथा रस समान होते हैं, उसी प्रकार एक ही परमात्मा के आदेश से उत्पन्न होने वाले मनुष्यों में भिन्न-भिन्न जातियों की कल्पना करना अत्यन्त चिन्तनीय है, अनुचित है।।46।।
इसी प्रकार कौशिक, काश्यप, गौतम, कौण्डिन्य, माण्डव्य और वशिष्ठ गोत्र वाले हों या आत्रेय, कौत्स, आंगिरस, गर्ग, मौदगल्य, कात्यायन या भार्गव गोत्र वाले हों, उनके भ्राता, पूत्रवधु आदि के परिवार में प्रजनन की प्रक्रिया एक ही होती है। विवाह या अन्य कर्मों में सभी शिल्प तथा कलायें समान ही होती हैं, फिर भी इन गोत्रधारियों में इतना अधिक भेद क्यों होता है? ।।47-48।।
मूर्तिमान होने के कारण यह शरीर नश्वर होता है और नश्वरता के कारण यह शरीर पृथ्वी आदि भूतों की भांति नष्ट हो जाता है। अतः शरीर को कभी भी ब्राह्मण के रूप में नहीं माना जा सकता है।।53।।
जिन आज्ञानियों ने शरीर को ही ब्राह्मण माना है, उन अज्ञानियों को यह समझना चाहिए कि मात्र शरीर का संस्कार करने वालों में ब्राह्मणता नहीं होती है। अतः ब्राह्मणत्व देह का स्वरूप नहीं हो सकता।।54।।
क्योंकि प्रयत्न पूर्वक ढूढ़ने पर भी देह में ब्राह्मणत्व नहीं मिलता है। अतः शरीर ब्राह्मण नहीं हो सकता और ब्राह्मणत्व भी शरीर का स्वरूप नहीं है।।55।।
यदि आप लोग शरीर को ही ब्राह्मण मानते रहेंगे, तो कुत्ते का मांस खाने वाले चाण्डाल आदि भी ब्राह्मण ही माने जायेंगे क्योंकि सभी मनुष्यों की शरीर रचना समान ही है।।56।।
शरीर की शक्ति का गुण क्षीण हो जाने पर यह काया भस्म का रूप ले लेती है। अतः ब्राह्मणत्व न तो देह की वस्तु है और न कर्म से उत्पन्न है।।57।।
30
इसी शृंखला में वर्ण व्यवस्था के वास्तविक शुद्ध स्वरूप को दर्शाया जा रहा है-
जाति, कुल, रूप, उम्र, वर्ण, और ज्ञान की अनेक विधाओं के मद से अन्धे नपुंसक लोग अपने हित को न तो इस लोक में देख पाते हैं और न परलोक में।।4।।
इस संसार रूपी भंवर में सैकड़ों, हजारों तथा करोड़ों जातियां हैं। यह जानते हुए भी कोई बुद्धिमान व्यक्ति किस प्रकार हीन, मध्यम अथवा उत्तम जाति का भेद करते हुए मद कर सकता है? ।।5।।
ऐसे बहुत से मनुष्य हैं जो विशिष्ट कुल में उत्पन्न हुए और संयमित इन्द्रियों वाले होने पर भी कर्मफल के कारण आवागमन के चक्र में पड़े रहते हैं। अतः किसकी जाति शाश्वत रूप से रह सकती है? ।।6।।
विद्वानों की सभा में यदि कोई कहता है कि संस्कार से ही ब्राह्मण बना जाता है तो न्यायविदों द्वारा न्याय के नियमानुसार उसका खण्डन हो जाता है।।7।।
एक ही ब्राह्मण के शरीर से उत्पन्न दोनों पुत्रों में जिसमें एक का
गर्भाधान से लेकर विवाह तक संस्कार हुआ है और दूसरा संस्कारहीन है, उनमें इष्ट की प्राप्ति या अप्राप्ति को कोई भेद नहीं दिखता।।12।।
यदि शूद्र में संस्कार कर्म का किया जाना दृष्टिगोचर नहीं होता तो संस्कार किये हुए व्यक्ति की इन्द्रियां भी पापों से बचती हुई नहीं दिखती हैं।।14।।
विलासी तथा दुष्ट व्यक्तियों की भांति संस्कार युक्त पुरुष भी मद में विह्वल होकर मोह में पड़ जाते हैं तथा सदाचार एवं ब्राह्मणत्व से च्युत हो जाते हैं। संस्कारी किन्तु दुराचारी व्यक्ति नरक जाते हैं और संस्कार से वंचित किन्तु सदाचारी व्यक्ति उत्तम विप्रत्व को प्राप्त होते हैं।।16।।
मन्त्रों द्वारा पवित्र और संस्कारों से युक्त पुरुष भी (माया-मोह के कारण) डूबता ही है और ब्राह्मणत्व से हीन होकर चरित्रहीन हो जाता है।।17।।
मनुष्यों में जाति के आधार पर भेद न होते हुए भी यदि आपको जाति-भेद दिख रहा है तो क्या यह आपकी दोष दृष्टि का परिणाम नहीं है? गर्भाधान आदि संस्कारों से रहित व्यास आदि मुनि अपने आचरण से श्रेष्ठ ऋषि हो गये हैं।।19-20।।
ऐसे बहुत से ऋषि हुए हैं जो ब्राह्मण कुल में जन्म न लेने पर भी श्रेष्ठ ब्राह्मण माने गये है और सभी लोगों के द्वारा वन्दित हुए हैं।।21।।
व्यास जी का जन्म मल्लाह-पुत्री सत्यवती के गर्भ हुआ। इसी प्रकार पराशर ऋषि का जन्म चाण्डाली के गर्भ से हुआ। शुकदेव का जन्म शुकी (शुकी का रूप धारण करने वाली घृताची नामक गणिका रूप अप्सरा) से हुआ था। कणाद ऋषि उलूकी से उत्पन्न हुए तो वशिष्ठ ऋषि वेश्या (अप्सरा) से। इसी प्रकार मुनियों में श्रेष्ठ मन्दपाल मल्लाहिन से उत्पन्न हुए। ऐसे बहुत से दूसरे व्यक्तियों ने पहले बताये गये द्विजों की भांति विप्रत्व को प्राप्त किया है।।22-24।।
श्वपाकी चाण्डाल के गर्भ से व्यास जी के पिता पराशर जी का जन्म हुआ। वे भी तपस्या से ब्राह्मण हो गये तो क्या इसमें भी संस्कार ही कारण था? वेश्या के गर्भ से महामुनि वशिष्ठ का जन्म हुआ। वे तपस्या के बल पर ब्राह्मण हुए तो क्या इसमें संस्कार समूह (16) ही कारण था? नहीं। मल्लाहिन के गर्भ से उत्पन्न हुए महामुनि मन्दपाल तप से ब्राह्मण हो गये तो क्या इसमें भी संस्कार समूह ही कारण था? कदापि नहीं ।।27, 29, 30।।
वैदिक तथा तान्त्रिक संस्कारों से सम्पन्न व्यक्तियों के द्वारा भी विद्या और तप के बल से श्रेष्ठ फल प्राप्त किया जा सकता है किन्तु केवल संस्कारों से ही ऐसा नहीं हो सकता क्योंकि (कुसंग या कुकर्म के कारण) मनुष्य महापापी हो सकता है, जिससे वह ब्राह्मणत्व से च्युत हो जाता है। ऐसा व्यक्ति केवल नाम मात्र का ही ब्राह्मण रह पाता है।।31, 32।।
जो निषिद्ध आचरण करने वाले चोर, ठग, अहंकार में चूर, धूर्त, नट, दुष्ट, पापी, सब कुछ खाने वाले और सब कुछ बेचने वाले होते हैं, उन ब्राह्मणों की शुद्धि सैकड़ों यज्ञों से भी नहीं हो सकती है।।8, 9।।
शूद्रों एवं विप्रों की जन्म प्रक्रिया में कुछ उन्तर नहीं है। उनके जन्म आदि सभी धर्म समान होते हैं, अतः संस्कार व्यर्थ हैं। इस प्रकार मात्र 16 संस्कारों से ब्राह्मणत्व का निर्धारण नहीं हो सकता।।15।।
वेद के अर्थवाद को पढ़ने वाले, जीव वध का समर्थन करने वाले, स्वार्थ वश वेद की मर्यादा का उल्लंघन करने वाले, कपट से अपना अर्थ सिद्ध करने वाले, मायावी, ईर्ष्यालु, लोभी, मोही, मदान्ध, ठग, तीर्थों के जल को बेचने वाले, क्रूर, कायर, कलह प्रिय, अत्यधिक बोलने वाले, दुष्ट, चरित्रहीन, भाड़े पर चलने वालों की संगति में रहने वाले आडम्बरपूर्ण भाटों द्वारा सम्मानित, क्रोधी और लूटेरे, जहां तहां घूमने वाले, किराये से निर्वाह करने वाले, कण्ठस्थ श्लोकों का निष्प्रयोजन उच्चारण करने वाले, निषिद्ध वस्तुओं को बेचने वाले, अभक्ष्य पदार्थों का भक्षण करने वाले, शूद्रों के विहित कर्म करने वाले, तपोहीन, धन लेकर अध्यापन करने वाले, व्यापार या कृषि करते हुए बाहरी कमाई अर्थात् भेंट स्वरूप अनैतिक धन को ग्रहण करने वाले, क्रोध के वशीभूत होकर मानसिक दोषों एवं दुष्ट मनोरथों से ग्रसित रहने वाले जन्मना ब्राह्मण मात्र अपने केशों को कटवाने से ही अपने को सर्व श्रेष्ठ समझते हैं।।28-33।।
कुछ तार्किक लोग जाति भेद का तर्क देते हुए कहते हैं कि जिस प्रकार घोड़े तथा गदहे की अलग-अलग जातियां है उनमें गदहा कभी भी घोड़ा नहीं हो सकता उसीप्रकार शूद्र कभी ब्राह्मण नहीं हो सकता। किन्तु यह ध्यान रखना चाहिए कि गाय, घोड़ा, ऊँट और हाथियों की पृथक जातियां है। इस प्रकार ये जातियां एक दूसरे के साथ प्रजनन क्रिया नहीं कर सकती हैं। अतः मनुष्यों में जाति-भेद नहीं माना जा सकता ।
शूद्र और ब्राह्मण में पारस्परिक वंश वृद्धि होती है। अतः ब्राह्मणों तथा शूद्रों की अलग-अलग जातियां उस तरह नहीं होती जिसे तरह गायों, घोड़ों, ऊँटों तथा हाथियों की होती है।।40।।
मनुष्य में सभी जातियों के पुरुषों एवं स्त्रियों में कोई भी ऐसा भेद नहीं है जिससे द्विज और शूद्र का भेद प्रकट हो सके ।।45।।
वेद पाठ के छल से या अन्य किन्हीं क्रियाओं के द्वारा भी जाति-भेद नहीं हो सकता क्योंकि अनेक जड़ पदार्थों (पंच भूतों) से बना हुआ सभी मानवों का शरीर एक समान है। इस अपवित्र नश्वर शरीर में रागादि दोषों के कारण सदैव दुःखी रहने वाले जीव में यह जाति भेद सम्भव नहीं है। जिस प्रकार विषय रूपी समुद्र में कुम्हार के चाक की भांति मन सदा ही घूमता रहता है, उसी प्रकार घोर दुःख तथा भय से ग्रसित होने पर नास्तिक समाज में जन्म, मृत्यु तथा बुढ़ापा, शोक, अनिष्ट और योगाग्नि से पीड़ित होने वाले हीन या सत्व शरीर में ऐसी कोई भी विशिष्टता नहीं दिखायी देती जिससे ब्राह्मणत्व या शूद्रता का स्पष्ट लक्षण दिख सके।।46-49।।
किसी भी व्यक्ति को ब्राह्मण माने जाने के लिये यह आवश्यक है कि वह व्यक्ति त्याज्य और ग्राह्य पदार्थ में भेद का ज्ञान रखने वाला हो तथा अन्याय पथ का त्याग करने वाला हो। उसे अपनी इन्द्रियों, मन तथा वाणी को जीतने वाला होना चाहिए। वह सदाचारी, नियम एवं आचार का पालन करने वाला हो। उसे कल्याण का अन्वेषण करने वाला, संसार की रक्षा के लिये
विविध उपाय तथा क्रिया करने वाला एवं उसका मनोरथ रखने वाला होना चाहिए। उसे समाधिस्थ तथा क्रोध को मार डालने वाला होना चाहिए। वह स्वाध्याय से लीन रहने वाला तथा भक्त का हृदय रखने वाला हो। वह आसक्तियों का त्यागकर चुका हो, उसका ईर्ष्या-भाव नष्ट हो चुका हो। वह शोक तथा मद से रहित, शान्त, सभी प्राणियों का हितैषी, सुख-दुःख को समान रूप से देखने वाला तथा एकान्त स्थान में रहने वाला हो।
निर्मोही, अहंकार से रहित, दानवीर, दयालु, सत्य तथा ब्रह्म को जानने वाला हो, शान्त एवं सभी शास्त्रों में निपुण विद्वान हो। इस प्रकार की मर्यादा से सम्पन्न व्यक्ति को ही सभी लोगांे के कल्याण में सदा तत्पर रहने वाले ब्रह्मा जी ने ब्राह्मण कहा है।।1-7।।
जो महातपस्वी हैं, आर्य (सुसंस्कृत) हैं, सभी प्राणियों को अभय प्रदान करने वाले है और उनके कल्याण में सदा संलग्न रहने वाले हैं, वे ब्राह्मण हैं।।8।।
जो किसी को नष्ट होने से बचाता है, वह क्षत्रिय है। जो कृषि, व्यापार या पशुपालन करता है, वह वैश्य तथा जो वेदों से दूर चला गया है वह शूद्र कहा जाता है।।10।।
जिन सदाचारियों में क्षमा, इन्द्रिय निग्रह, दया, दान, पवित्रता, धैर्य, कृपा, कोमलता, सरलता, सन्तोष, अहंकार रहितता, तप, अन्तर्मुखता, धर्म, ज्ञान, निन्दा रहितता, ब्रह्मचर्य, विद्वता, ध्यान, आस्तिकता, द्वेषहीनता, वैराग्य एवं शान्ति प्रियता, पाप भीरूता, चोरी, ईष्या एवं तृष्णा से रहितता, एकान्तवास, गुरू सेवा तथा मन, वाणी एवं शरीर पर संयम रखने का गुण है, उनमें ब्राह्मणत्व तीव्रता से बढ़ता है।।12-15।।
योग, तप, दया, दान, सत्यता, धार्मिक अध्ययन, ज्ञान, विज्ञान एवं आस्तिकता ही ब्राह्मण का लक्षण है, जन्म कदापि नहीं।।28।।
जिसके शिर पर ज्ञान रूपी शिखा है तथा हृदय में तप रूपी पवित्रता है, उसी में ब्राह्मणत्व भरपूर है, ऐसा मनु जी का कथन है।।29।।
अतः जिस किसी वर्ण में कहीं पर भी उत्तम, मध्यम अथवा
अधम पुरुष पाप कर्मों से छूटकारा पा चुके हैं, वे ही ब्राह्मण हैं।।30।।
शूद्र भी शील सम्पन्न होकर ब्राह्मण से श्रेष्ठ हो जाता है और ब्राह्मण भी आचार भ्रष्ट होकर शूद्र से भी हीन हो जाता है।।31।।
मनुष्य की जाति एक ही है। दूसरी जो भेद परक जाति बनायी गयी है, वह मात्र कर्म पर आधारित है, जन्म पर नहीं। वह व्यवहार, अभिव्यक्ति में एक ही है किन्तु स्वभाव धर्म तथा प्रकृत्ति के भिन्न होने के कारण भिन्न है। सम्पूर्ण भाव एवं भेद, मरण, जन्म तथा स्थिति में व्याप्त रहने वाली यह मानव जाति उनके दृष्टि पथ में नहीं आ रही है, जो मनुष्यों में जाति की विभाजक दीवार खड़ी करने के लिये तत्पर रहते हैं।
31
दक्षिण भारत के मेलकोटा नामक स्थान में एक ब्राह्मण परिवार में जन्म लेकर स्वामी रामानन्दाचार्य जी ने भक्ति की ऐसी गंगा बहायी जिसमें सारा देश डूब गया और मुगल शासन से अपनी आत्म-रक्षा के लिये तैयार हो गया। यह मेलकोटा वही स्थान है जहां दलित बन्धुओं ने आचार्य रामानुज को छिपाकर उनकी प्राण रक्षा की थी। आचार्य रामानुज ने दलितों को प्रतिवर्ष तीन दिन तक विष्णु की मूर्ति की पूजा करने की स्वीकृति दी थी।
स्वामी रामानन्द जी ने इस कहावत को पूर्णतया चरितार्थ किया है कि
‘जाति पाति पूछे नहीं कोई, हरि को भजे सो हरि का होई’
। उनके 500 से अधिक शिष्य थे जिनमें सभी वर्गों के लोग थे। रविदास जी जहां दलित थे, वही कबीर जी जुलाहा (मुस्लिम)। इसी प्रकार सेन नाई थे, और धन्ना जाट थे। इसके अतिरिक्त उन्होंने सुरसरि एवं पद्मावती जैसी नारियों को भी दीक्षा दी।
सामाजिक समरसता के लिये उन्होंने स्पष्टरूप से कहा है कि ‘सभी लोग ईश्वर के चरणों में शरणागति के सदैव अधिकारी हैं, चाहें वे सबल हों या निर्बल। इसके लिये न तो कुल की, न बल की, न काल की और न शुद्धता की ही अपेक्षा है। ऊँचे वर्णों के वैष्णव भी शास्त्रोचित भगवत् भक्ति के सम्बन्ध में निकृष्ट वर्णों के भक्तों का सदा ही अनुसरण करें। विधि-विधान के ज्ञाता परमज्ञानी विद्वानों का ऐसा विचार है’।
स्वामी रामानन्द जी भक्ति का मार्ग सबके लिये सुलभ करते हुए कहते हैं- परमसिद्धि की प्राप्ति के लिये धन का भी कोई महत्व नहीं है। जिसके पास कुछ भी नहीं है, वह ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य या शूद्र कोई भी व्यक्ति हरि की शरण में जाने का अधिकारी है। यहां कर्मकाण्ड एवं जाति बन्धन की कोई भी अपेक्षा नहीं है।
इतना ही नहीं स्वामी रामानन्द जी ने अयोध्या में बलपूर्वक बनाये गये मुस्लिमों को दीक्षा देकर पुनः घर वापसी की। इस रूढ़िवादी युग में इस प्रकार यह कार्य बहुत ही क्रान्ति का था। वर्तमान समय में रामानन्दी वैष्णव दुर्भाग्यवश शिखाधारी तथा सूत्रधारी के रूप में जाति के आधार पर भेद करते है जो स्वामी रामानन्द जी के मूल सिद्धान्तों के विरुद्ध है।
32
कबीर जी मध्यकालीन सन्त परम्परा के क्षितिज पर उस दहकते हुए सूर्य की भांति हैं, जिनके प्रकाश से अन्य नक्षत्र प्रकाशमान होते हैं। वे मलिक मुहम्मद जायसी, रविदास, शंकरदेव, दादू दयाल आदि महान सन्तों के आदर्श हैं। ध्यान साधना के पुनीत मार्ग का अनुसरण करने वाले सभी मत-पन्थों ने उनकी ध्यान पद्धति का अनुसरण किया है। स्वयं को स्वामी रामानन्द जी का शिष्य घोषित करने वाले कबीर जी ने जन्मना वर्ण व्यवस्था के दुर्ग पर घातक प्रहार किया है और उसे भूलूण्ठित होने के लिये विवश किया है। यद्यपि वे विधवा ब्राह्मणी के शिशु अवस्था में परित्यक्त पुत्र हैं किन्तु सगर्व स्वयं को नीरु और नीमा नामक जुलाहे दम्पति का पुत्र मानते हैं। अध्यात्म के शिखर पर पहुँचे हुए कबीर जी ने जन्मना वर्ण व्यवस्था पर जो प्रहार किया है, उसे भारतीय जनमानस ने मुस्कराते हुए स्वीकर भी किया है।
गर्भावस्था में न तो कुल रहता है और न जाति रहती है। सभी उस सूक्ष्म स्वरूप ब्रह्म की सत्ता से उत्पन्न हुए हैं। अरे पण्डित! यह बताओं कि तुम ब्राह्मण कैसे हो गये। अपने को ब्राह्मण कहकर इस जन्म को मत खाओ। तुम कैसे ब्राह्मण हो और मैं शूद्र किस प्रकार हूँ? क्या मेरे शरीर में खून बहता है और तुम्हारे शरीर में दूध बहता है? कबीर जी कहते है कि जो ब्रह्म का विचार करता है, मेरे मत से वही ब्राह्मण कहा जायेगा।
जन्मना वर्ण व्यवस्था के सिद्धान्तों एवं वर्णों की उच्चता तथा नीचता के भेदभाव पर उन्होंने जो मर्मान्त प्रहार किया है, वह इसके पोषकों को तिलमिला देता है-
यदि परमात्मा वर्णों का विचार करता तो मनुष्य के जन्म लेते ही तीन विभाजक रेखायें खींच देता। शरीर की उत्पत्ति के लिये शुक्र कहां से आता है? ज्योतिस्वरूप जीव के माया में लिप्त होने से यह संसार चक्र चल रहा है। इस संसार में कोई भी ऊँचा-नीचा नहीं है, अपितु सभी बराबर है। जिस परमात्मा ने यह शरीर बनाया है, वही इसका पालन कर रहा है। हे ब्राह्मण! यदि तू ब्राह्मणी से उत्पन्न होने के कारण अपने को उच्च प्राणी समझता है तो यह बताओं कि तुम्हारा जन्म किसी विशेष मार्ग से क्यों नहीं हुआ? यदि तुर्कनी से जन्म लेने के कारण तुर्क अपने को श्रेष्ठ समझता है तो उसने मां के गर्भ में ही खतना क्यों नहीं करा लिया? इस संसार में किसी को तुच्छ (छोटा) नहीं समझना चाहिए। वस्तुतः तुच्छ वह व्यक्ति है जिसके मुख में परमात्मा का नाम नहीं है।
सभी मनुष्य पिता के शुक्र से ही उत्पन्न हुए हैं। सबमें एक समान ही मल-मूत्र है। सबका शरीर एक समान चर्म तथा मांस का बना हुआ है। सभी एक ही ज्योतिस्वरूप ऊँकार से उत्पन्न हुये हैं। ऐसी स्थिति में कौन ब्राह्मण है तथा कौन शूद्र है ?
संसार के सभी प्राणी एक समान है। सबमें एक ही प्राणवायु है, एक ही जल है। एक ही ज्योति स्वरूप परमात्मा संसार के चक्र को चला रहा है। सबके शरीर समान रूप से पंचभूतात्मक हैं।
अपने स्वरूप के पहचान देते हुए वे कहते है-
हम वासी उस देश के, जहां जाति बरन कुल नाहि।
सबद मिलावा होय रहा, देह मिलावा नाहिं।।
परमात्मा के भक्त को वे सभी वर्णों से परे मानते हैं-
जेहि कुल भगत, भाग बड़ होई ।
अबरन बरन न गनिय रंक धनि, विमल वास निज सोई।।
ब्राह्मन छत्री वैस्य सूद्र सब, भगत समान न कोई।।
सन्तों की जाति पूछने से कबीर जी मना करते हैं-
संतन जात न पूछो निरगुनिया।
साध ब्राह्मन, साध छतरी, साधै जाति बनियां।
साधुन मा छत्तीस कौम है, टेढ़ी तोर पूछनियां।।
साधै नाऊ साधै धोबी, साधै जाति है बरिया।
साधुना मा रैदास सन्त हैं, सुपच ऋषि सो भंगिया।
कबीर जी राग-द्वेष से भरे ऐसे सन्त थे जिन्होंने ब्रह्म का साक्षात्कार किया था। यद्यपि वे जन्मना श्रेष्ठ मानने वाले ब्राह्मणों का खण्डन करते थे किन्तु उन्होंने अपना उत्तराधिकारी उस श्रुति गोपाल को बनाया, जो शरीर से ब्राह्मण था। उनका कथन है-
जहां भक्ति तँह भेस नही, वर्णाश्रम हूं नांहि।
नाम भक्ति जो प्रेम सो, सो दुर्लभ जग मा मांहि।।
33
सड़ी-गली, रुढ़िवादी, सत्य से दूर करने वाली मान्यताओं के जर्जरित महल को ध्वस्त कर जो ज्ञान, सत्य, प्रेम, दया एवं समानता के दिव्य महल का निर्माण करता है, वही क्रान्तिकारी कहलाता है। क्रान्तिकारी बनना एक दिवा स्वप्न नहीं है, अपितु मानवता के कल्याण के लिये जो अपना सर्वस्व त्यागकर सत्य के मार्ग पर चलने का प्रयास करता है, मात्र वह ही क्रान्तिकारी कहलाने की शोभा प्राप्त कर सकता है।
मध्य कालीन सन्तों में ऐसे ही शीर्ष क्रान्तिकारी सन्त हुए हैं
‘बसवेश्वर’
जिन्होंने क्रान्ति की ऐसी मशाल जलायी कि मात्र 36 वर्ष की आयु में ही उन्हें अपने प्राणों की आहुति तो देनी पड़ी किन्तु वह जलती हुई मशाल युगों-युगों तक मानव जाति को उत्प्रेरित करती रहेगी।
वसवेश्वर का जन्म सन् 1127 में कर्नाटक राज्य में एक सम्पन्न उच्च ब्राह्मण परिवार में हुआ था। अपनी आठ वर्ष की आयु में उन्होंने यज्ञोपवीत धारण करने से इसलिये मना कर दिया कि दलितों को इससे वंचित रखा जाता था। दो दलित सन्तों कण्णप्पा और मदरा चन्नय्या पर उनकी
अगाध श्रद्धा थी।
उस समय दलितों के प्रति घृणा का ज्वालामुखी अपने पूर्ण यौवन पर धधक रहा था। मार्ग पर चलने से पहले ही दलितों को अपने आगमन की सूचना देनी पड़ती थी किन्तु बसवेश्वर ने समता की ऐसी प्रेममयी गंगा बहायी जिसमें चर्मकार (कंक्कय्या), मोची (चेन्नय्या), धोबी (माच्य्या), गड़ेरिया (रामन्ना), चण्डाल (घुलय्या), तेली (गाणद) तथा नाई (आपन्ना) जैसे हजारों दलितों ने स्नान किया ।
यह एक बहुत बड़ी सामाजिक क्रान्ति थी। बसवेश्वर दलितों के घर जाकर भोजन करते, गले मिलते एवं उनके धार्मिक कृत्यों में सम्मिलित होते। उनके द्वारा प्रवर्तित सम्प्रदाय के अनुयायी
‘शरण’
कहलाते थे।
राजा विज्जल के सेनापति थे, मधुबरस जो जन्मना ब्राह्मण थे। हरलय्या एक चर्मकार थे जो नगर में मोची का कार्य करते थे। देानों ही बसवेश्वर के विचारों से प्रभावित थे और उनके सम्प्रदाय में दीक्षित होकर शरण कहलाते थे। मधुबरस ने अपनी पुत्री का विवाह दलित हरलय्या के पुत्र से कर दिया जिसके परिणाम स्वरूप रुढ़िवादियों की भौंहें टेढ़ी हो गयी और उन्होंने विज्जल को उकसाया इस प्रकार एक रुढ़िवादी मान्यता को चुनौती देने के कारण राजा विज्जल ने दोनों वर-वधु की आंखें निकलवा कर हाथी के पैरों से कुचलवा दिया।
धर्म की चादर ओढ़े रुढ़िवादियों ने स्मृतियों के वेद-विरुद्ध कथनों को ही ब्रह्म वाक्य मान लिया। इनकी भूल का दुष्परिणाम हजारों वर्षों तक यह देश भोगता रहा है। इस कट्टर भेदवादी चिन्तन ने जातीयता की ऐसी दिवार खड़ी की है जिसे तोड़ने का प्रयास करने वालों की आहें सिसकते-सिसकते शून्य में विलीन होते रहीं हैं। मधुवरस और हरलय्या ने अपने पथ प्रदर्शक बसवेश्वर के नेतृत्व में जिस क्रान्ति का सूत्रपात किया है, वह 21वीं सदी के भी स्वयं को शिक्षित, आधुनिक एम समतावादी कहने वाले लोगों को लज्जित करने वाला है।
आततायी राजा विज्जल के विरुद्ध जनाक्रोश फूटा पड़ा जिसका परिणाम यह हुआ कि राजदरबार में ही उसका वध हो गया। इसके पश्चात् बसवेश्वर ने एकान्त में साधना करते हुए अपना शरीर त्याग दिया। गरीबों, दलितों एवं असहाय लोगों के आंसू पोंछने वाला ऐसा धर्माचार्य सम्भवतः कोई विरला ही होगा।
भले ही बसवेश्वर अपने पंचभौतिक तन से हमारे मध्य नहीं हैं किन्तु उनका दलित प्रेम युगों-युगों तक जनमानस को प्रेरणा देता रहेगा और रुढ़िवादी लोगों को आत्म चिन्तन के लिये विवश करता रहेगा।
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सृष्टि के प्रारम्भ से लेकर महाभारत काल तक वैदिक काल रहा। उसके पश्चात् वाम मार्ग एवं पौराणिक मान्याताओं का वर्चस्व रहा। महाभारत के पश्चात् एक मात्र यदि कोई महर्षि हुआ है तो वह केवल दयानन्द सरस्वती जी है।
यह ऐसा महान व्यक्तित्व है जिसने वास्तविक वेदार्थ की कुंजी खोज ली थी। बडे़-बड़े महापुरुष भी शूद्रों एवं स्त्रियों के लिये वैदिक ज्ञान का दरवाजा नहीं खोल सके थे किन्तु इस विरक्त सन्यासी ने अपनी विद्वता, तप, त्याग और निर्भीकता से सारे देश से अकेले ही लोहा लिया और सबको निरुत्तर कर दिया। युगों-युगों तक भारवतवर्ष दयानन्द के इस उपकार का ऋणी रहेगा।
आदि शंकराचार्य कृत वेदान्त दर्शन की टीका मंे मिलावट करने वाले पौराणिकों ने यह अंश जोड़ दिया है कि यदि शूद्र वेद का श्रवण करता है तो उसके कान में शीशा पिघलाकर डाल देना चाहिए, तथा यदि वह
वेदाध्ययन करने का प्रयास करता है तो उसे मृत्यु दण्ड देना चाहिए।
यह तो निश्चित है कि इस प्रकार का कथन कदापि आदि शंकराचार्य का नहीं हो सकता। महर्षि दयानन्द ने युगों से उपेक्षित शूद्रों एवं स्त्रियों के लिये वेदाध्ययन का अधिकार दे दिया। आर्य समाज के द्वारा स्थापित लगभग 4500 गुरुकुलों एवं 4 विश्वविद्यालयों में कोई भी दलित निःसंकोच होकर वेद-वेदांगों का अध्ययन कर द्विजत्व को प्राप्त कर सकता है। इसके अतिरिक्त लगभग 75 डी0 ए0 वी0 कालेजों तथा 900 विद्यालयों में वैदिक संस्कारों से युक्त आधुनिक शिक्षा दी जाती है।
स्वामी दयानन्द सचमुच दया के स्वरूप थे। प्राणघातक विष देने वाले रसोइये जगन्नाथ को पैसे देकर भगा देना महानता की पराकाष्ठा है। उनके विरक्त जीवन के प्रारम्भिक वर्षों में एक स्मरणीय घटना घटित हुई थी। दयानन्द जी सोमनाथ मन्दिर गये हुए थे। वहां एक कोढ़ी भी था, जिसे सभी लोग दुत्कार रहे थे। दयानन्द जी उस कोढ़ी को अपने कन्धे पर लादकर दूसरी जगह ले गये तथा उसे स्वच्छ किया। यही नही, नर्मदा प्रवास के समय वाममार्गी तान्त्रिकों द्वारा एक बलि दिये जाने वाले बालक की रक्षा के लिये उन्होंने स्वयं को बलि के लिये प्रस्तुत कर दिया था। जो दयानन्द अपने चाचा एवं बहन की मृत्यु पर एक बूंद भी आसूं नहीं बहाये, वही एक महिला को अपने बच्चे के शव से अपनी साड़ी का टुकड़ा उतार कर ले जाते देखकर बच्चों की भांति फूट-फूट कर रोये थे कि आज हमारे देश में इतनी गरीबी है कि एक मां अपने बच्चे के शव का भी वस्त्र इसलिये उतारकर ले जा रही है कि उसके पास अपने शरीर को ढकने के लिये दूसरी साड़ी ही नहीं थी।
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यह एक विचित्र संयोग ही है कि शूद्रों को अछूत समझ कर घृणा करने वाले पौराणिक ब्राह्मण समाज के विरुद्ध संघर्ष करने वाले चारों महापुरुष स्वामी रामानन्द जी, कबीर, बसवेश्वर तथा स्वामी दयानन्द सरस्वती भी ब्राह्मण कुल में ही पैदा हुए थे।
गोस्वामी तुलसी दास जी का स्थान हिन्दी साहित्य के सन्त कवियों में अद्वितीय है। उन्होंने रामचरित मानस, कवितावली, गीतावली, विनय पत्रिका आदि 12 ग्रन्थों की रचना की है जिसमें मात्र रामचरित मानस में ही शूद्र-ब्राह्मण के प्रति भेद मूलक कथन हैं।
रामचरित मानस की यह चौपाई बहुत ही विवादास्पद है-
ढोल गंवार सूद्र पसु नारी, सकल ताड़ना के अधिकारी ।
इसकी समीक्षा से पूर्व उस विकृत मानसिकता की समीक्षा आवश्यक है जो ग्रन्थों के मूल आशय के विपरीत ग्रन्थों में मिलावट करके अपना स्वार्थ सिद्ध करती रही है।
याज्ञवलक्य स्मृति तथा पराशर स्मृति आदि स्मृतियां वेद विरुद्ध सिद्धान्तों का पोषण करती हैं। पूर्वकाल में एकमात्र मनुस्मृति ही वेदानुकूल स्मृति थी किन्तु वर्तमान समय में उसमें प्रक्षिप्त श्लोकों की इतनी भरमार है कि एक श्लोक का कथन दूसरे श्लोक के कथन के विपरीत है।
ऐसी स्थिति में यही मानना होगा कि किसी एक ही व्यक्ति की रचना में इस प्रकार के विरोधाभासी कथन नहीं हो सकते।
वाल्मीकि रामायण के उत्तरकाण्ड में वर्णित शम्बूक का सम्पूर्ण प्रसंग श्रीराम के आदर्श चरित्र के विपरीत है। वस्तुतः यह सम्पूर्ण उत्तरकाण्ड ही प्रक्षिप्त है और महर्षि वाल्मीकि की रचना नहीं है।
वर्तमान समय में महाभारत में लगभग एक लाख श्लोक हैं जिनमें मूल श्लोक मात्र 10 हजार ही हैं, शेष 90 हजार श्लोक प्रक्षिप्त हैं। यहां तक कि गीता में भी कई स्थानों पर मिश्रण किया गया है। यही स्थिति प्रायः सभी ग्रन्थों उपनिषद्, ब्राह्मण, आरण्यक, दर्शन एवं चरक संहिता आदि में है।
यद्यपि वेदों की मूल संहिता में किसी भी प्रकार की मिलावट नहीं हो पायी है किन्तु उसमें भी स्वार्थी लोगों ने
‘अग्रे कृतम्’
को
‘अग्ने कृतम्’
लिखकर सती प्रथा का पोषण किया था। इस छल को ईश्वरचन्द्र विद्यासागर ने पकड़ा और न्यायालय में अपना पक्ष रखकर सती प्रथा को प्रतिबन्धित कराया।
प्रश्न यह है कि धर्मग्रन्थों में मिलावट क्यों की जाती है? इसके उत्तर में यही कहा जा सकता है कि मिलावट करने वाले इस बात को इच्छी तरह जानते हैं कि धर्मग्रन्थों के प्रति जनमानस की अटूट श्रद्धा होती है। उस श्रद्धा को वे छद्म तरीके से मिश्रण द्वारा अपने पक्ष में कर लेते हैं अर्थात् अपनी मिथ्या एवं स्वार्थ परक मान्यताओं को धर्मग्रन्थों के माध्यम से जनमानस पर थोपते हैं।
धर्म ग्रन्थों में मिलावट की यह प्रवृत्ति विश्व व्यापी है। जैन, बौद्ध, सन्त साहित्य के अतिरिक्त कुरान एवं बाइबिल भी इससे अछूती नहीं है।
ऐसी स्थिति में तुलसीदास जी का रामचरितमानस भला कैसे सुरक्षित रह सकता था? विनय पत्रिका की पद संख्या 174 में एक चौपाई में प्रक्षिप्त किया गया है- वह पद है- जाके प्रिय न राम वैदेही ।
तुलसीदास जी द्वारा रचित यह पद सन्त रज्जबदास के ग्रन्थ
‘सर्वंगी’
में शुद्ध रूप में दर्शाया गया है। उसकी तीसरी चौपाई में लिखा है-
नातौ नेह राम को मानिये सुद्र अरु विप्र जहां लौ ।
अंजन कहां आंखि जौ फूटे, बहुतक कहूं कहा लौं ।।
किन्तु विनय पत्रिका में लिखा है-
नाते नेह राम के मनियत, सुहृद सुसेव्य जहां लों ।
सर्वंगी का कथन
‘सुद्र अरु विप्र जहां लों’
का कथन
‘शूद्र तथा ब्राह्मण’
में समभाव प्रकट करता है, वही
‘सुहृद सुसेव्य जहां’
का कथन विषमता प्रकट करता है। अवधी भाषा में
‘सुहृद सुसेव्य’
जैसे संस्कृतनिष्ठ शब्दों का प्रयोग पक्षपात पूर्ण मिलावट को प्रत्यक्ष प्रमाणित करता है।
17 वीं शताब्दी में सन्त रज्जब द्वारा तुलसीदास जी के इस पद को अपने ग्रन्थ में सम्पादित किया गया, जिसमें वह शुद्ध रूप में है, किन्तु विनय पत्रिका में उसे परिवर्तित कर दिया गया है। इस प्रकार पिछते 300 वर्षों में कितना परिवर्तन किया गया है, यह सहज ही सोचा जा सकता हैं
यदि ताड़ना का अर्थ पिटाई करना लिखा जाय तो सम्पूर्ण नारी जाति की पिटाई की बात आती है जो किसी भी दृष्टि से उचित नहीं है। स्वयं रामचरित के आदर्श पात्रों में कौशल्या, कैकेयी, सुमित्रा, सीता और अनुसूइया जी है। भला तुलसीदास जी इन्हें स्वप्न में भी पिटने की बात क्यों कहेंगे?
किसी के मन की बात को ताड़ लेने का अर्थ जान लेना होता है। उपरोक्त चौपाई में
‘ताड़ना’
के स्थान पर
‘ताड़न’
शब्द अधिक उपयुक्त होगा जिसका अर्थ होता है-जानकारी या अपने संरक्षण में रखना जिससे वह स्वच्छन्द न रहे। गंवार शब्द का अर्थ मूर्ख होता है। शूद्र शब्द शास्त्र ज्ञान से रहित अशिक्षित व्यक्ति के लिये प्रयुक्त हुआ है। यह तो स्वाभाविक है कि किसी मूर्ख, अशिक्षित, पशु या संस्कार विहीन स्त्री को उचित संरक्षण न मिले तो इनके भटकाव की संभावना रहती है। यही स्थिति ढोलक के सम्बन्ध में भी है। यदि ढोलक में लगी तनियों (रस्सियों) को उचित रूप से कसा न जाय तो ढोलक से ताल के अनुसार सम्यक् ध्वनि नहीं निकलेगी। ढोलक को पीटने और बजाने में अन्तर है।
रामचरित मानस में लगभग 20 स्थानों पर इसी प्रकार मिलावट की गयी है। अरण्यकाण्ड में कथित
‘पूजिय विप्र सकल गुण हीना, सूद्र न गुन गन ग्यान प्रवीना’
तो संस्कृत के शुक्रनीति ग्रन्थ में लिखित
‘पतितोऽपि द्विजः पूज्यो नार्च्यः शूद्रो महामतिः’
का ही भावानुवाद है। जिन-जिन चौपाईयों में प्रक्षेपण हुआ है, वहां-वहां पौराणिक ग्रन्थों का ही भाव लेकर लिखा गया है।
तुलसीदास जी का व्यक्तित्व इतना महान है कि उनके द्वारा शूद्र या नारी के तिरस्कार की बात लिखी ही नहीं जा सकती। इस दृष्टि से तो मनु, वाल्मीकि और शंकराचार्य भी दोषी सिद्ध होते हैं। सत्य तो यह है कि मिलावट करने वालों ने इन महापुरुषों के महान व्यक्तित्व पर ही दाग लगा दिया है। रावण को राक्षस और निषादराज गुह तथा शबरी को दशरथजी से भी अधिक भाग्यशाली कहने वाले तुलसी दास जी शूद्रों के प्रति कठोर नहीं हो सकते। वे जन्मगत जातीयता पर प्रहार करते हुए कहते है कि-
मेरी कोई जाति-पाति नहीं है और न ही मुझे किसी की जाति से कोई मतलब है। कोई भी व्यक्ति मेरे काम का नहीं है और न ही मैं किसी के काम का हूँ। जब लोग मुझसे पूछते हैं कि मेरा गोत्र क्या है तो मुझे उन पर तरस आता है, क्योंकि वे अत्यन्त ही अज्ञानी पुरुष हैं। उन्हें तो इतनी भी जानकारी नहीं है कि शाह (स्वामी) का गोत्र ही गुलाम (सेवक) का गोत्र होता है।
यदि लोग मुझे नीच कहते हैं तो मुझे इसकी कोई भी चिन्ता नहीं है क्योंकि मुझे किसी के साथ विवाह- सम्बन्ध स्थापित नहीं करना है।
जब कट्टरपन्थी रुढ़िवादी लोगों ने उन्हें ब्राह्मण भी मानने से मना कर दिया तो व्यथित होकर कहते हैं कि-
यदि मुझे कोई धूर्त कहे या अवधूत कहे, राजपूत कहे या जुलाहा कहे, कोई अन्तर नहीं पड़ता। मुझे किसी की बेटी से बेटे का ब्याह नहीं करना है जिससे मुझे हीन समझने वाले लोगों की जाति बिगड़ जायेगी।
तुलसीदास जाके बदन ते, धोखेऊ निकसत राम ।
ताके पग की पगतरी, मेरे तन को चाम ।। वैराग्य संदीपनी
तुलसीदास जी की मान्यता है कि जिसके मुख से भूल से भी रामनाम निकल जाता है, उसके पैर के जूते बनाने के लिये मेरे शरीर का चमड़ा प्रस्तुत है।
तुलसीदास जी भक्ति से रहित ऊँचे कुल वालों की अपेक्षा उस चाण्डाल को अच्छा मानते है जो दिन-रात प्रभुु का नाम लेता है-
भगत सुपच तुलसी भजो, भजै रैनि दिन राम ।
ऊँचे कुल केहि काम को, जहां न हरि के नाम ।। वे. सं. 38
वह किसी कुलीन व्यक्ति से अधिक श्रेष्ठ है-
जदपि साधु सबहि विधि हीना, तद्यपि समता के न कुलीना।
यह दिन रैनि नाम उच्चरै, वह नित मान अगिन में जरै।।
वे स्वयं को पतित कहते हुए व्याघ्र, गणिका, गज की भांति अपने उद्धार के लिये निवेदन करते हैं।
मैं पतित तुम पतित पावन, दोउ बानक बने।
व्याघ गनिका गज अजामिल, सखि निगमनि भने।
और अधम अनेक तारे, जात कापै गनै ।।
तुलसी के राम तो नीच से ही स्नेह करते हैं।
स्वपच सबर खस जमन जड़ पावर कोल किरात।
रामकहत पावन, परम होत भुवन विख्यात।।
सम्पूर्ण जगत को सीताराम के स्वरूप में देखने वाले तुलसीदास जी के लिये कोई छोटा बड़ा नहीं है-
रघुपति चरन उपासक जेते, खगमृग सुरनर असुर समेते।
बंदऊँ पद सरोज सब केरे, जेविनु काम राम के चेरे।।
व. काण्ड
तुलसी यदि जाति व्यवस्था के पोषक होते तो ऐसा कदापि नहीं कहते-
जाति पाति धनु धरमु बड़ाई, प्रिय परिवार सदन सुखदाई।
सब तजि तुम्हहि रहइ उरलाई, तेहि के हृदय रहहु रघुराई।।
एक बार तुलसीदास जी को काशी में एक चाण्डाल से भेंट हुई। जब उन्हें यह पता चला कि यह चाण्डाल अयोध्या का रहने वाला है तो वे उस चाण्डाल के गले लिपट गये ओर प्रेम पूर्वक उसे अपने निवास पर लेकर आये।
सुपच एक श्री अवध निवासी, समै प्रभाव संपदा नासी।।
अवध बसेरी को जबै, शब्द परो असकान ।
तन पुलकित नीरभर सजल, बिसरो तुरित अपान।।
क्या इतने उदार हृदय वाला व्यक्ति जातिवादी मानसिकता से ग्रसित हो सकता है? कदापि नहीं। प्रक्षिप्त करने वालों ने गोस्वामी तुलसीदास जी की स्वच्छ गरिमा पर वैसे ही धब्बा लगाया हैं जैसे मनु जी, वाल्मीकि एवं शंकराचार्य जी पर लगाया हैं। गोस्वामी जी ने अपनी रचनाओं से हिन्दू जानमानस में एक नवीन चेतना का संचार किया जिससे सम्पूर्ण राष्ट्र अपनी सांस्कृतिक एकता को अक्षुण्ण रख सका ।
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वेदान्त सूत्र 1/3/38 की व्याख्या में पांचों आचार्यों (शंकराचार्य, रामानुजाचार्य, माध्वाचार्य, वल्लभाचार्य तथा निम्बाकाचार्य) ने पराशर स्मृति का उदाहरण देते हुए जो कुछ भी लिखा है, वह अत्याचार की कोटि में आता है। पांचों आचार्य किस आधार पर शूद्र को चलता फिरता श्मशान कहते हैं और वेद के श्रवण मात्र से कान में शीशा पिघलाकर डालने तथा वेद का अध्ययन कर लेने पर शरीर के टुकड़ेे-टुकड़े करने की बात करते हैं?
ऐसा प्रतीत होता है कि इन पांचों आचार्यों ने न तो वेद पढ़ा है और न ब्राह्मण ग्रन्थ। ये चारों एकमात्र प्रस्थानत्रयी (गीता, उपनिषद तथा वेदान्त) के ही विद्वान रहे हैं। यदि इन्होंने यजु0 26 वें अध्याय का दूसरा मन्त्र पढ़ा होता तो सम्भवतः इस तरह की क्रूर हिंसा से सम्बन्धित वक्तव्य नहीं देते। यदि इन्होंने ऋग्वेद के ऐतरेय ब्राह्मण को पढ़ा होता तो ये जानते कि ऐतरेय महीदास और कवश ऐलूष कौन थे?
यह विश्वास ही नहीं होता कि मात्र वायु जल और पत्तों के ऊपर जीवन निर्वाह कर कठोर साधना करने वाले पराशर ऋषि इस प्रकार के क्रूर नियम का विधान करेंगे। सभी आचार्यों ने पराशर स्मृति का ही उदाहरण देकर शूद्र को वेदाधिकार से वंचित किया है। यदि पराशर स्मृति के सिद्धान्तों से समीक्षा की जाय तो स्वयं पराशर, वेदव्यास और शुकदेव जी भी जन्मना ब्राह्मण कहलाने के अधिकारी नहीं हो सकते। ऐसी स्थिति में पराशर ऋषि को दूसरों के लिये इस क्रूरतापूर्ण नियम को बनाने का अधिकार ही नहीं है कि वेद के उच्चारण, श्रवण तथा अध्ययन मात्र से जीभ काट लिया जाय, कान में शीशा पिघलाकर डाल दिया और शरीर के टुकड़े-टुकड़े कर दिया जाय।
यदि मनुस्मृति से प्रक्षिप्त श्लोकों को निकाल दिया जाय तो मात्र वहीं वेदानुकुल है। शेष सभी वशिष्ठ, पराशर, याज्ञवल्क्य आदि स्मृतियां वेद विरुद्ध सिद्धान्तों का पोषण करती है। यह निर्विवाद रूप से सत्य है कि ये स्मृतियां ऋषियों के नाम से उन स्वार्थी विद्वानों ने बनायी है जो वैदिक ज्ञान और
आध्यात्मिक आनन्द से कोसों दूर थे। समस्त संसार का कल्याण चिन्तन करने वाला मनीषी कभी भी इस प्रकार का क्रूर चिन्तन भी नहीं कर सकता। सम्भवतः इन विद्वानों ने वेद के कथनों
‘तत्र कः मोहः कः शोकः एकत्वमनुपश्यतः’ ‘सर्वा आशा मन मित्रं भवन्तु’ ‘मित्रस्य चक्षूषा अहं सर्वाणि भूतानि समीक्षे’
को पढ़ा ही नहीं होगा।
हे सन्तों, महन्तों तथा धर्माचार्यों! यदि आपने दलित कहे जाने वाले वनवासियों (आदिवासियों) को अपना बन्धु बान्धव मानकर उन्हें गले नहीं लगाया तो घृणा एवं वैमनस्य का ज्वालामुखी जब फूटेगा तो उसके लावे से कश्मीर से कन्याकुमारी एवं सिन्ध से ब्रह्मा तक का सम्पूर्ण भाग उसकी चपेट में होगा।
आप इस तथ्य को क्यों नहीं समझना चाहते कि गंगा, गीता, गाय एवं गायत्री पर श्रद्धा रखने वाला हर मानव आपका
बन्धु-बान्धव है। उसे ठुकराकर आपने घृणा का जो बीज बोया है, उसी का परिणाम धर्मान्तरण है और धर्मान्तरण का परिणाम राष्ट्रान्तरण है जिसे आज आप पाकिस्तान, बांग्लादेश, अफगानिस्तान, ईरान एवं चाइना के रूप में देख रहे हैं।
यदि आपको आलस्य, प्रमाद एवं अज्ञानता की नींद में सोये रहना ही अच्छा लगता है तो स्वयं सोइये किन्तु सम्पूर्ण देश को जातीय रुढ़िवादिता की आग में झोंककर उसे वैदिक ज्ञान एवं श्री प्राणनाथ जी की तारतम वाणी के प्रकाश से वंचित क्यों रखना चाहते है?
भर्तृहरि ने कहा है कि
‘विश्वामित्र पराशर प्रभृतयो वाताम्बुपर्ण अशनाः’
। ऐसे में यह कैसे सम्भव है कि वायु जल एवं पत्तों का आहार करने वाले पराशर ़ऋषि अपनी बनायी हुई स्मृति में शूद्रों के वेदाध्ययन करने पर मृत्यु-दण्ड का विधान बनायें? यह नकली स्मृति तो उन अल्पज्ञानी, स्वार्थी एवं अहंकारी विद्वानों ने बनायी है जिन्होंने यजुर्वेद को अपनी आंखों से देखा तक नहीं हैं, पढ़ना तो दूर की बात है। आप पराशर स्मृति के इस कूड़े का बोझ कब तक ढोते रहेंगे और कब तक शूद्र एवं नारी का समाज सिसकता रहेगा।
भोले-भाले देशवासियों! पत्थर के शालिग्राम एवं शिवलिंग तुम्हारी रक्षा नहीं कर पायेंगे। गोरी, गजनी, तैमूरलंग एवं अब्दाली की तलवार से मृण्मयी (मिट्टी की) दुर्गा एवं काली जी भी तुम्हारी रक्षा नहीं कर सकेंगी। तुम यह क्यों नहीं समझते कि सर्वव्यापक (विष्णु) एवं कल्याणकारी (शिव) अन्तर्यामी रूप से तुम्हारी आत्मा के अन्दर विराजमान हैं। महिषासुर रूपी अज्ञान को नष्ट करने वाली (दुर्गा) एवं वासना के कर्मबीज (रक्तबीज) को नष्ट करने दैवी शक्ति (काली) तुम्हारे अन्दर प्रत्यक्ष रूप से विराजमान है। तुम स्वयं को असहाय क्यों समझते हो?
धातुओं, पत्थरों एवं लकड़ी की मूर्तियों को छोड़कर वेरण्यम् भर्ग एवं आदित्य वर्ण वाले उस सच्चिदानन्द परमात्मा की उपासना करों जो अनन्त ज्ञान, शक्ति, सौन्दर्य एवं प्रेम का स्वामी है, जो तुम्हारे हृदय में निरन्तर विराजमान है किन्तु तुमने ही उससे अपनी आंखें फेर रखी है। घर-घर सन्ध्या-हवन की परम्परा को पुनर्जीवित करो। एक दो गजनवी, गोरी और औरंगजेब क्या करोड़ों भी आ जाय तो भी तुम्हारे हृदय में बैठे हुए परमात्मा को नष्ट नहीं कर सकते। अपने भग्न मन्दिरों पर आंसू बहाने से कुछ नहीं होगा। वेदोक्त परमात्मा तो अनन्त सूर्यों से भी अधिक प्रकाशमान है। उसी ने ही इस अनन्त सृष्टि को बनाया है। उसके समक्ष तो गोरी, गजनवी, काला पहाड़, औरंगजेब और तैमूरलंग एक कीड़े मकोड़े के भी समान नहीं हैं।
वनवासी दलित बन्धुआंे! कुछ स्वार्थी पुरोहितों एवं विद्वानों के अपराधों का दण्ड सम्पूर्ण आयावर्त क्यों भूगते? तुम भी अपने अन्दर से उच्च वर्णों के प्रति द्वेष भावना का परित्याग कर दो। तुमने योगेश्वर श्रीकृष्ण के सहपाठी सुदामा की निर्धनता के बारे में सुना ही है। वेद का स्नातक सुदामा जब अपने मित्र श्री कृष्ण से मिलने जाते हैं तो उनके कपड़े फटे होते हैं। उनकी पत्नी उन्हें यह कहकर द्वारिका भेजती है कि यदि हमें सवां और कोदो जैसे निकृष्ट अन्न भी भरपेट खाने को मिल जाते तो मैं आपसे द्वारिका जाने के लिये नहीं कहती। कौरवों एवं पाण्डवों के गुरू आचार्य द्रोण की पत्नी भी अश्वत्थामा को चावल पीसकर उसे दूध के रूप मंे पिलाया करती थीं। तुलसीदास जी की निर्धनता भी संसार जानता है। केवल भिक्षा एवं दान के ऊपर आश्रित रहकर सच्चे ब्राह्मण वर्ग ने ज्ञान की ज्योति को जलाये रखा है।
इसी प्रकार, क्षत्रियों ने भी आपके ऊपर अज्ञानतावश अवश्य अत्याचार किया है किन्तु यह भी याद रखिये कि देश की रक्षा में उन्होंने अपने शरीर के टुकड़े-टुकड़े भी करवाया है तथा हजारों की संख्या में उनकी पत्नियों ने जलती हुई चिता में प्रवेश किया है।
अतः मैं सबसे यह आग्रह करता हूँ कि इस देश में रहने वाले सभी लोग जातीय दुर्भावना को छोड़े एवं प्रेमपूर्वक एक हो जायें सभी वेद के इस कथन को याद रखें कि
‘मा भ्राता भ्रातरं द्विषत्’
अर्थात् भाई से भाई द्वेष न करें। वेद के इस कथन का उल्लंघन सबके लिये दुःखदायी होगा। दूसरों की भूलों को क्षमा करके प्रेम एवं सौहार्द की सरिता में स्नान करना ही धर्म है।
आचार्य रामानुज का इतिहास दलितों के प्रति करुणा तथा प्रेम से भरा रहा है। उनसे पूर्व के प्रथम तीनों वैष्णव आचार्य शठकोप, मुनिवाहन तथा यामनाचार्य भी दलित ही थे। ब्राह्मण कुल में उत्पन्न होने पर भी आचार्य रामानुज अपने समीपवर्ती गांव के एक दलित भक्त कांचिपूर्ण से शिक्षा ग्रहण करते रहे। उन्होंने अपने शिक्षक दलित कांचिपूर्ण को अपने घर भोजन के लिये निमन्त्रित किया तथा उनके चरण भी दबायें। उन्होंने रो-रोकर कांचिपूर्ण के चरणों मंे प्रार्थना की कि वे उन्हें अपना शिष्य बना लें।
उनके दूसरे शिक्षा गुरु महापूर्ण भी दलित ही थे जिन्हें सपत्नीक अपने घर पर रख कर वे शिक्षा ग्रहण करते रहे। गोष्ठिचूर्ण नामक एक विद्वान ने एक मन्त्र का रहस्य बताने के लिये रामानुज को 18 बार लौटाया। अन्त में इस शर्त पर बताया कि यदि तुम इसे किसी को बताओगे तो तुम्हें नरक होगा। रामानुज ने उसे ग्रहण कर समस्त जन समुदाय को यह कहते हुए बता दिया कि यदि मेरे नरक जाने से इतने लोगों का कल्याण है तो मैं इसके लिये सहर्ष तैयार हूँ।
मुसलमानों द्वारा आचार्य रामानुज का पीछा किये जाने पर चाण्डालों ने ही उनकी रक्षा की और उन्हें अपनी बस्ती में छिपाकर रखा। आचार्य रामानुज ने अपनी विशाल दृष्टि से लाखों दलितों को गले लगाया और उन्हें ज्ञान तथा भक्ति के मार्ग पर अग्रसर किया।
दलितों से प्रेम करने वाले ऐसे महान व्यक्तित्व से यह कदापि आशा नहीं की जा सकती कि वे अन्य आचार्यों की देखा-देखी वेदाधिकार से शूद्र समाज को वंचित करे। सम्भवतः इस प्रकार का कथन मिलावट ही हो सकता है।
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शंकरदेव ने सम्पूर्ण आसाम में
‘एक देव वासुदेव’
तथा
‘एक जाति मनुष्य जाति’
का शंखनाद फूंका। उनके अथक प्रयत्नों से आसाम में सामाजिक एवं धार्मिक समरसता की सुरसरिता प्रवाहित होने लगी। उनका स्पष्ट कथन है-
ब्राह्मणर चाण्डाल र निविचारि कुल। दातात चोरत येन दृष्टि एक तुल।
नीचत साधुत पार भैल एक ज्ञान, ताहा के से पण्डित बुलिय सर्वजान।।
अर्थात् जो ब्राह्मण एवं चाण्डाल में भेद नहीं रखता, दाता और चोर में भी समदृष्टि रखता है तथा नीच एवं साधू में समान बुद्धि रखता है, उसे ही पण्डित और सर्वज्ञ कहते हैं।
शंकरदेव जी ने वर्ग भेद से परे जिस काल में समभाव की सरिता प्रवाहित की उस समय कितनी घृणा और रुढ़िवादिता का वातावरण था कि नवद्वीप स्थित शान्तिपुर के पण्डित कविचन्द्र द्विज ने शास्त्रार्थ में कहा था कि शूद्र (कायस्थ) होने के कारण आपको भागवत छूने का भी अधिकार नहीं है।
शंकरदेव जी चैतन्य महाप्रभु के समकालीन थे। उन्होंने बद्रीकाश्रम से लेकर रामेश्वरम् तक और पुरी से लेकर द्वारिका तक दो बार भारत-भ्रमण किया। 120 वर्ष की दीर्घ आयु पाने वाले शंकरदेव जी ने चाण्डाल तक को हरिभक्ति का अधिकार दिया। (चाण्डाल पर्यन्त करि हरि भक्ति अधिकारी) इसके परिणाम स्वरूप वे शाक्त सम्प्रदाय के पुरोहितों की कोप दृष्टि झेलने के लिये विवश हो गये। आसाम के अहोम राजा तथा कूच विहार के राजा का भी उन्हें विरोध झेलना पड़ा।
शंकरदेव जी ने मूर्तिपूजा के स्थान पर भागवत ग्रन्थ को सम्मान पूर्वक पधराया। उन्होंने सभी छोटी जातियों एवं प्राणियों में आत्मबुद्धि रखने का उपदेश दिया-
किरात कछारी खाछि गारो मिरि यवन कंक गोवाल।
असम मुलुक रजक तुरुक कुवाच म्लेच्छ चांडाल।।
आनो यत नर कृष्ण सेवकर संगत पवित्र हय।
कुकुर शृंगाल गर्दभरो आत्माराम। जानिया सबाको परि करिबा प्रणाम।
शंकरदेव जी के देहावसान के पश्चात् उनके सुयोग्य शिष्य माधवदेव ने सामाजिक समरसता और धर्म प्रचार का सफल अभियान चलाया।
पुरी के जगन्नाथ मन्दिर से रथ यात्रा निकलने वाली है। हजारों लोगों की भीड़ है जिसमें राजा प्रताप रुद्रदेव भी है। मन्दिर से भगवान को शूद्र (दयितागण) लाकर रथ में बैठाते हैं। यह शोभा मात्र इन शूद्रों को ही है। इसके पश्चात् चैतन्य महाप्रभु अपनी शिष्य मण्डली के साथ आते है और यह प्रार्थना करते है-
न तो मैं ब्राह्मण हूँ, न क्षत्रिय, न वैश्य और न शूद्र। मैं ब्रह्मचारी, गृहस्थ, वानप्रस्थी या सन्यासी भी नहीं हूँ। मैं तो स्वतः प्रकाशमान अनन्त परमानन्द से परिपूर्ण अमृत सागर रूप गोपी वल्लभ भगवान श्रीकृष्ण के दोनों पद पंकजों के दासों के दासों का अनुदास हूँ।
चैतन्य महाप्रभु ने अपने 24 वर्ष के सन्यास जीवन में प्रेममयी हरि संकीर्तन की ऐसी लहर पैदा की कि उसमें ब्राह्मण या चाण्डाल का कोई भेद ही नहीं रह गया था।
चैतन्य महाप्रभु के अनुयायियों ने
‘हरे राम हरे कृष्ण’
संकीर्तन का जो आन्दोलन चलाया है, उसमें देश-विदेश के लाखों लोगों ने भक्ति की गंगा में गोता लगाया है। उनका चलाया हुआ सम्प्रदाय समाज के दुर्बल, दरिद्र जाति च्यूत एवं दलित लोगों का आश्रय स्थल है।
विश्व प्रसिद्ध स्वामी विवेकानन्द के आध्यात्मिक गुरु श्री राम कृष्ण परमहंस ने दक्षिणेश्वर में जिस काली मन्दिर में निवास करते हुए अध्यात्म के उच्च सोपानों को प्राप्त किया, उसका निर्माण एक विधवा मल्लाहिन रानी रासमणि ने किया था। रानी रासमणि के पास बहुत अधिक सम्पदा थी जिससे उन्होंने मन्दिर का निर्माण कराया। रानी रासमणि तथा उनके जामाता माथूर बाबू ने सर्वदा ही रामकृष्ण परमहंस को प्रत्येक प्रकार का सहयोग दिया जिससे वे निर्द्वन्द रूप से साधना कर सके। दलित कही जाने वाली केवट वंशीया रानी रासमणि की यह देन हमेशा श्रद्धा का केन्द्र रहेगी।
रामकृष्ण मिशन के अनुयायियों को इस प्रसंग से प्रेरणा लेनी चाहिए और अपने हृदय में जन्मना जाति भेद का भाव भी नहीं पैदा होने देना चाहिए।
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अपने गुरुदेव रामाश्रम स्वामी के आदेश से सन्यास आश्रम छोड़कर पुनः गृहस्थ आश्रम में आने वाले विट्ठल पन्त के सम्पूर्ण परिवार को ब्राह्मणों ने अस्पृश्य घोषित कर समाज से बहिष्कृत कर दिया। वे गांव के बाहर झोपड़ी बनाकर रहने लगे तथा भिक्षा वृत्ति के सहारे जीवन यापन करने लगे।
बारह वर्षों के पश्चात् उनके यहां तीन पुत्रों निवृत्तिदेव, ज्ञानदेव, सोपानदेव एवं एक पुत्री मुक्ता का जन्म हुआ। समाज के लोग उन्हें चाण्डाल मानकर अधम, पापी जैसे शब्दों से सम्बोधित करते थे। विट्ठलपन्त के द्वारा प्रयागराज में त्रिवेणी के संगम में जल समाधि लेने के प्रयाश्चित के पश्चात् भी जब ब्राह्मण समाज ने इन बालकों का उपनयन संस्कार नहीं किया तो सोपान देव बोल पड़े-
जाति या कुल किस काम का? भक्ति के बिना परमात्मा की प्राप्ति नहीं हो सकती। दुर्वासा, वशिष्ठ, गौतम, व्यास, वाल्मीकि, अगस्त्य तथा पाण्डवों के कुलों को किस धर्मशास्त्र में उत्तम बताया गया है। भले ही किसी का जन्म उत्तम कुल में क्यों न हुआ हो, उसने वेदों का अभ्यास भी किया हो, किन्तु यदि उसमें भक्ति नहीं है तो सब कुछ व्यर्थ है। शास्त्रों में ऐसे भक्तिहीन कुलीनों की प्रशंसा नहीं है। यदि किसी के पास भक्ति है तो उसे उच्च कुल की श्रेष्ठता की कोई भी आवश्यकता नहीं है।
भैंसे से वेदमन्त्रों का पाठ करवाकर पण्डितों का अहंकार नष्ट करने वाले ज्ञानेश्वर जी ने मात्र 16 वर्ष की आयु में गीता के 700 श्लोकों पर मराठी भाषा में 29000 अभंगों की रचना की। 800 पदों वाला अन्य ग्रन्थ अनुभवामृत है। चांगदेव प्रशस्ति में अद्वैत दर्शन का सिद्धान्त प्रतिपादित किया गया है, जिसमें 65 पद हैं। हरिपाठ तथा
‘नमन’
ग्रन्थ भी उन्हीं की रचना है। इसके पश्चात् मात्र 21 वर्ष की अवस्था में ही उन्होंने जीवित समाधि ले ली।
सन्त ज्ञानेश्वर ने वाराकरी सम्प्रदाय की स्थापना की। पण्ढरपुर में प्रसिद्ध सन्त नामदेव उनके सानिध्य में आये और यह सान्ध्यिता अध्यात्म तथा इतिहास के पन्नों का अभिन्न अंग बन गयी। पण्ढरपुर में एक सन्त मण्डली की स्थापना हुई जिसमें सन्त ज्ञानेश्वर यद्यपि जन्मना ब्राह्मण थे किन्तु उनका बचपन चाण्डालों के समा तिरस्कार झेलते हुए बीता था। नामदेव जन्म से दर्जी (शिम्पी) थे किन्तु उनकी विट्ठल (बालकृष्ण) से अनन्य प्रीति थी। गोरोबा कुम्हार थे, सांवता माली थे और सन्त चोखा मेला म्हार थे। इसी कुल में डॉ0 भीमराव अम्बेडकर का जन्म हुआ था। जनाबाई भी शूद्रा ही थीं। इसी वाराकरी सम्प्रदाय में सन्त एकनाथ और तुकाराम जैसे प्रसिद्ध भक्त शिरोमणि हुए जिन्होंने समाज से जातिगत एवं अन्य सभी भेदभाव समाप्त करने का संकल्प लिया तथा विट्ठल भगवान की भक्ति की भागीरथी मंे सबको समान रूप से डूबकी लगाने का अधिकार दिया।
ज्ञानेश्वर आदि सन्तों की टोली में नामदेव जी सम्पूर्ण भारत के तीर्थ स्थानों में भ्रमण करते रहे। एक बार गोदावरी के तट पर सभी सन्त भजन कर रहे थे तभी एक वर्णाभिमानी विप्र कटु भाषा में कहने लगा-
ये सन्त नहीं निठल्ले लोग हैं। ये गले में तुलसी की माला पहनकर विट्ठल-विट्ठल चिल्लाते रहते हैं। ऐसे ढोंगियों को यहां से भगा देना चाहिए।
दूसरा विप्र गर्व से कहता है-
‘आपका नाम क्या है और जाति क्या है?’
नामदेव- ‘शरीर का नाम है नामदेव तथा जाति है शिम्पी।’
विप्र- आपके आराध्य देव कौन है?
नामदेव- संसार के कण-कण में विद्यमान विट्ठल (कृष्ण)।
विप्रगण- अभी बुलाओं अपने विट्ठल को। यदि वह नहीं आया तो तुम्हें यहां से भगा दिया जायेगा। यह कैसा ढकोसला है कि अब शिम्पी, सोनार तथा चर्मकार भी भक्ति का ढोंग करने लगे हैं।
नामदेव- (व्यथित होते हुए मन ही मन) हे पाण्डुरंग! मेरी लाज रखो! इन विप्रों के गर्व का हरण करो।
(कीर्तन की दिव्यता से विप्रों का अहंकार दूर हो जाता है। अनिष्ट की आशंका से वे नामदेव जी से क्षमा मांगते हैं।)
दिल्ली के सुल्तान के द्वारा काटी हुई गाय को नामदेवजी ने जीवित किया था। उनके इस चमत्कार का वर्णन सिखों के परमपूज्य आदि ग्रन्थ में है।
जनाबाई नामदेव परिवार की दासी थी। उनका जन्म महाराष्ट्र के नांदेड़ प्रान्त में एक शूद्र परिवार में हुआ था। मात्र सात वर्ष की आयु में जब वे अपने माता-पिता के साथ पण्ढरपुर में विट्ठल के दर्शन करने आयी, तब वे हठ करके वहीं रह गयी। नामदेव जी के पिता उन्हें अपने घर ले आये जहां वे आजीवन दासी का काम करती रहीं। वे कहती हैं
‘जनी म्हणे जोड झाली विठोवाची, दासी नामयाची म्हणोनिया’
अर्थात् नामदेव की दासी होने के कारण मुझे विट्ठल की प्राप्ति हुई।
विट्ठल भगवान के प्रति जनाबाई का निष्काम प्रेम था। अनन्य निष्ठा थी। उन्हें विट्ठल के अतिरिक्त सारा संसार सूना लगता था। उन्हें सर्वत्र विट्ठल (श्रीकृष्ण) का ही अनुभव होता था। वे स्वयं कहती थी कि विट्ठल मेरे अन्दर-बाहर सर्वत्र समाये हुए हैं।
सन्त एकनाथ का जन्म महाराष्ट्र में प्रतिष्ठानपुर (पैठन) के प्रसिद्ध विप्र कुल में हुआ था। एकनाथ जी ने स्पष्ट शब्दों में ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र और चाण्डाल आदि सबके लिये समान अधिकार की घोषणा की। म्हारों, दलितों आदि को उन्होंने जो सम्मान दिया उसके कारण उन्हें जाति से बहिष्कृत किये जाने की धमकी मिली, किन्तु वे जरा भी विचलित नहीं हुए।
सन्त एकनाथ सभी प्राणियों में ईश्वर का वास मानते थे इसलिये उन्होंने घोषणा की कि जाति-पाति के सभी भेदभाव व्यर्थ है। उन्होंने रामू नामक एक म्हार (दलित) के यहां जाकर भोजन किया। इतना ही नहीं एक बार श्राद्ध में उन्होंने ब्राह्मणों के लिये बनाये हुए सम्पूर्ण भोजन को गांव के सभी दलितों (म्हारों) को निमन्त्रित कर खिला दिया जिसके परिणाम स्वरूप उन्हें ब्राह्मण जाति से निष्कासित कर दिया गया। उनके द्वारा लिखे हुए जोहार का भाव इस प्रकार है-
ब्राह्मण- अरे! दम्भी म्हार!
म्हार- हाँ, ब्राह्मण बाबा! आप ऐसा क्यों बोलते हैं?
ब्राह्मण- क्यों नहीं? क्या तुम समझते हो कि मैं तुम्हारे बाप से डरता हूँ।
म्हार- मेरे माता-पिता आपके भी माता-पिता हैं।
ब्राह्मण- देखो! ऐसी बातें मत बोलो ।
म्हार- किन्तु हम सभी एक ही निर्गुण ब्रह्म से निकले हैं।
ब्राह्मण- तुम निर्गुण (ब्रह्म) को कैसे जानते हो?
म्हार- कोई भी आत्म परीक्षण कर सकता है।
ब्राह्मण- हम आत्मा के स्वरूप को नहीं जानते।
म्हार- यदि आप नहीं जानते तो सन्तों के चरणों में क्यों नहीं जाते?
ब्राह्मण- यदि हम सन्तों के पास जायें तो क्या होगा?
म्हार- आप चौरासी लाख योनियों से मुक्ति पा जायेंगे।
ब्राह्मण- यह ज्ञान तुझे किसने दिया?
म्हार- यह जनार्दन की कृपा से प्राप्त हुआ है।
सन्त एकनाथ दलितों के वास्तविक हितचिन्तक थे। उनका उद्घोष था- भगवत भावो सर्वा भूती, हेचि ज्ञान हेचि भक्ति। अर्थात् सभी प्राणियों में भगवत् भाव का दर्शन करना ही सच्चा ज्ञान एवं सच्ची भक्ति है।
शूद्र कुल में जन्मे सन्त तुकाराम जी ने अपने ज्ञान एवं भक्ति के बल पर समाज में एक नयी चेतना को जागृत किया। गीता पर लिखे हुए उनके अभंग बहुत ही लोकप्रिय हुए। रामेश्वर भट्ट एवं बहिणाबाई जैसे ब्राह्मण वर्ग ने भी उनका शिष्यत्व स्वीकार किया था। उन्होंने उद्घोष किया कि वर्षा का जल जब चारों ओर से बहकर गंगा में मिल जाता है तो वह गंगा जल हो जाता है, उसी प्रकार परमात्मा की भक्ति करने वालों में कोई भी भेद भाव नहीं होता।
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तेलगू भाषा में सन्त कवि वेमन ने जन्मना वर्ण व्यवस्था के विरोध में अपना स्वर मुखरित किया। उन्होंने उद्घोष किया कि जब राम नाम के जप से वाल्मीकि भील होकर भी ब्राह्मण बन जाते हैं तो यह स्पष्ट है कि कुल प्रधान नहीं अपितु गुण ही प्रधान है।
तुम दलितों से घृणा क्यों करते हो? क्या तुमने कभी सोचा है कि देव श्रेणी में आने वाली अरुन्धती (वशिष्ठ ऋषि की पत्नी) कौन है?
यदि हम चारों ओर देखें तो यह पायेंगे कि सभी मनुष्य एक ही भ्रातृ-समुदाय के हैं और परमात्मा की दृष्टि में समान हैं। जब भोजन, जाति या जन्म स्थल से मनुष्य की योग्यता नहीं बदलती है तब जाति को इतनी महत्ता क्यों देते हैं? ऐसी मानसिकता तो मूर्खता का एक अविरल प्रवाह है। निकृृष्ट से निकृष्ट जाति से भी बुरा वह व्यक्ति है जो अपनी तुलना में दूसरों को शूद्र मानता है। ऐसे व्यक्ति को कभी नरक से मुक्ति नहीं मिलेगी। जाति-पाति के सभी झगड़े झूठे हैं। हम किसी अछूत से घृणा क्यों करें, जब वह भी हमारी ही तरह पैदा हुआ है? उसमें भी हमारे समान ही अस्थि-मांस है। जो हम सबके अन्दर बसता है, उसकी कौन सी जाति है?
नरसी मेहता की आध्यात्मिक अनुभूति बहुत ऊँची थी। यद्यपि वे शरीर से नागर ब्राह्मण थे किन्तु दलितों से उनकी गहरी घनिष्टता थी जिसके कारण जाति का उन्माद रखने वाले ब्राह्मणों ने उन्हें बहुत अधिक सताया, किन्तु उन्होंने कभी भी बचाव की मुद्रा नहीं रखी। वे कहते हैं- मैं दलितों से प्रेम करता हूँ और करता रहूंगा। मैं तुम्हारे आक्षेपों से कभी भी विचलित होने वाला नहीं हूँ। दलित बस्ती में हरिभक्ति करने के कारण यदि तुम मुझे भ्रष्ट कहते हो तो कहों। अब मैं हरि-रस में मत्त हो गया हूँ। संसार में जितने भी लोग हैं, मैं उनमें सबसे नीच हूँ। नीचों में भी जो सबसे नीच है, मैं उससे भी अधिक नीच हूँ। तुम्हें मेरी जितनी भी भर्त्सना करनी है, कर लो। मैं केवल इतना ही जानता हूँ कि मेरा उन दलितों से नेह (प्रेम) है और मेरा मन उनमें रम गया है। मैं तो हल्के कर्म का हूँ किन्तु वैष्णवों ने तो मुझे अभिभूत कर रखा है। जो लोग स्वयं को हरिजनों से उच्च या भिन्न समझते है, वे अपना सम्पूर्ण जीवन ही गवां रहे हैं।
नागर ब्राह्मण-कुल में जन्मा यह सन्त दलितों के सामाजिक एवं धार्मिक उत्थान के लिये सदैव ही प्रतिबद्ध रहा। इनकी दलितों के प्रति अगाध प्रीति के कारण नागर ब्राह्मणों ने वहां के राजा माण्डलिक के यहां शिकायत की कि नरसी मेहता अछूतों की बस्ती में जाकर भोजन करते हैं तथा भजन कीर्तन करते हैं। इससे धर्म-दूषित हो रहा है। नरसी मेहता की ख्याति से ईर्ष्या करने वाले सन्यासी रामानन्द तीर्थ ने भी राजा को भड़काया ।
हार-माला ग्रन्थ में वर्णित है कि राजा ने अपने सैनिकों को भेजकर नरसी मेहता को अपने दरबार में बुलवाया और उन्हें पाखण्डी तथा धर्म दूषक सिद्ध कर कारागार में यह कहते हुए डाल दिया कि यदि तू कृष्ण का सच्चा भक्त है तो आज की रात में प्रातःकाल से पूर्व तक उस दामोदरराय मन्दिर में विराजमान भगवान श्रीकृष्ण के गले की माला स्वतः तुम्हारे गले में आ जानी चाहिए अन्यथा तुम्हे प्राण दण्ड मिलेगा यह कहकर उसने मन्दिर का द्वार बन्द करवा दिया तथा चाभी भी अपने पास रख लिया।
नरसी मेहता विरह में सारी रात श्रीकृष्ण के भजन गाते रहे। भक्त की पुकार पर ऐसी चमत्कारी लीला हुई कि राजा माण्डलिक नरसी मेहता के चरणों में गिर कर क्षमा मांगने लगा। दलितों के प्रति स्नेह के कारण नरसी मेहता के प्राण संकट में पड़ गये थे। इस प्रकार की घटना इतिहास में कम ही मिलती है।
सन्यास का वस्त्र धारण कर भी जो जातीय अभिमान की दुर्गन्धि से ग्रसित रहते हैं, उन्हें यह आत्म मन्थन करना चाहिये कि वे किस दिशा में जा रहे है? क्या वे सन्यास के योग्य है? क्या वे वेदों, उपनिषदों एवं गीता के एकात्मवाद के विरुद्ध आचरण कर
धर्म को कलंकित नहीं कर रहे है? जब इतिहास उनकी कूपमण्डूकता के लिये उन्हें धिक्कारेगा तो वे अपने इस अपराध का प्रायश्चित कैसे करेंगे?
नाथ सम्प्रदाय के अधिकतर प्रधान पुरुष समाज के उपेक्षित वर्ग से आते है। गोरखनाथ जी को कोई ब्राह्मण कहता है तो कोई मल्लाह तो कोई गोपालक। गोरखनाथ जन्म के बाद 12 वर्षों तक परित्यक्त रहे तथा उनका पालन-पोषण गोपालक (ग्वाला) परिवार में हुआ। मत्स्येन्द्रनाथ का जन्म मछुआरे के वंश में हुआ था। मत्स्येन्द्रनाथ के गुरुभाई जालन्धरनाथ दलित हलकोर जाति से माने जाते हैं। कुछ लोग उन्हें सफाई करने वाली हाडी जाति के अर्न्तगत मानते हैं। कृष्णपाद जुलाहा थे तो चामरीनाथ वैश्य कुल के थे। कमारीनाथ लोहार थे। अचितिनाथ लकड़हारा थे शियारीनाथ शूद्र कुल में उत्पन्न हुए थे।
गोरखनाथ जी ने अपना उपदेश चारों वर्णों के लिये दिया है। उन्होंने ऊँच-नीच का कोई भेद नहीं माना। वे पण्डितों को सम्बोधित करते हुए कहते हैं कि जिसे तुमने पढ़कर देखा है, उसे आचरण में लाकर भी देखो। मैं यह सिद्ध करने के लिये किसको साक्षी दूं कि प्रत्येक प्राणी में ब्रह्म की ज्योति जगमगा रही है किन्तु प्राणी उसे देख नहीं पा रहा है। वे अपने पदों में रूपक अलंकार के माध्यम से स्वयं को कभी तेली कहते हैं तो कभी ग्वाला और सोनार कहते हैं।
स्वयं को अवधूत मानकर अभक्ष्य खाने वालों से वे कहते हैं- मांस-भक्षण से दया-धर्म का नाथ होता है। मदिरा पीने से प्राण में निराशा छा जाती है और भांग के सेवन से ज्ञानध्यान खो जाता है। इन्द्रियों पर जिनका नियन्त्रण नहीं है और जीभ से जो फूहड़ बातें करते हैं, वे प्रत्येक्ष भंगी हैं। भंगी के घर जन्म लेने से कोई भंगी नहीं होता है। लंगोट का पक्का (जितेन्द्रिय) और मुख का सच्चा (सत्यवादी) ही उत्तम पुरुष है।
गुरु गोरखनाथ की प्रेरणा से भर्तृहरि, पूर्णमल तथा गोपीचन्द जैसे राजाओं ने अपने महलों को छोड़कर सन्यास धारण कर लिया तथा रांझा जैसा प्रेमी सभी नारियों को बहन मानने लगा। गुरु गोरखनाथ जी ने समाज को यही सन्देश दिया कि योगी या सन्यासी की कोई जाति नहीं होती। वह चारों वर्णों से परे होता है।
‘करतल भिक्षा तरुतल वास’
को अपना व्यवहारिक आधार मानने वाला योगी भला जाति-पाति के कीचड़ में कैसे फंस सकता है?
लाखा जी महादलित डोम वंश में मारवाड़ में जन्मे थे किन्तु अपनी अखण्ड भक्ति से वे महान सन्त बने। वे अपने घर से ही साष्टांग दण्डवत् प्रणाम करते हुए जगन्नाथपुरी के दर्शन के लिये चल पड़े। वहां पहुँचने पर पालकी में बैठाकर उनका स्वागत किया गया। लाखा जी सन्तों की चरण-
धूलि को पूज्य मानते थे और उनकी सेवा पूर्ण श्रद्धा से करते थे। यह निश्चित है कि भक्ति और सत्य निष्ठा के बल पर निम्नतम कुल में जन्मा हुआ व्यक्ति भी सबका पूज्य बन जाता है।
सिख-पन्थ समता का सन्देश देता है। इसमें ऊँच-नीच का भेद-भाव नहीं है। ब्राह्मण तथा शूद्र के नाम पर कोई अन्तर नहीं है। समाज में नीच समझे जाने वाले लोगों के प्रति सहानुभूति है गुरू नानकदेव जी कहते है-
नीचां अंदरि नीच जाति, नीची हूं अति नीच ।
नानक तिनके संगि साथ, बड़ियां सूं क्या रीस ।।
जिथै नीच संभालियन, तिथै नदरि तेरी बखसीस ।। राग 3
नीच जातियों में भी जो नीच हैं और नीचों में भी जो अत्यन्त नीच हैं, उन्हीं में मेरा संग-साथ है। बड़ों से मैं अपनी तुलना क्या करूँ? जहां नीचों को संभाला जाता है, उनकी देखभाल की जाती है, वहीं परमात्मा की कृपा दृष्टि होती है।
जाणहु जोति न पुछ हुं जाति आगे जाति न है ।। रहाऊ ।।
राग ।।आसा।।3।।
सबके अन्दर परमात्मा की ज्योति समझिये और किसी की भी जाति न पूछिए, क्योंकि इस लोक में कोई अमर नहीं है। परमात्मा के द्वार (धाम में) न तो कोई जाति है और न कोई जोर है। वहां तो जीवों का नूतन विधान चलता है। जिनके कर्मों का लेखा अच्छा होता है, एकमात्र वे ही वहां अच्छे माने जाते हैं।
अगै जाति न जोरु है अगै जीव नवै ।
जिनकी लेखै पति पवै चंगै सेई केई ।। राग आसावर, 22
गुरु नानक देव जी की दृष्टि में जाति तथा नाम का अहंकार व्यर्थ है क्यांेकि सभी जीवों में एक का ही प्रतिबिम्ब है, अर्थात् सभी प्राणियों में परमात्मा विराजमान है।
फकड़ जाति फकड़े नाऊ । सभना जीआ इका छाउ ।।
श्री राग 3
जो लोग संसार के स्वामी परमात्मा को भूल जाते हैं, वास्तव में वे ही नीची जाति के लोग है। जो परमात्मा का नाम नहीं लेते, वे ही नीच लोग हैं।
खसमु बिसारहि ते कम जाति । नानक नावै वाझु सनाती ।।
राग आसावरी, 2
वह मनुष्य सबसे ऊँचा और पवित्र है, जिसके हृदय में भगवान का निवास है।
ओहु सभ ते ऊँचा सभते सूचा, जाकै हिरदै बसिया भगवानु ।
मं. 4 गोंड 3/4
सिक्ख पन्थ में चारों वर्णों के सभी व्यक्तियों को बीजमन्त्र के ज्ञान एवं नाम के जप का अधिकार है। जो जैसा जप करता है, उसकी वैसी गति होती है और वह वैसा ही संग साथ पाता है-
आदि ग्रन्थ में यह स्पष्ट उल्लेख है कि जिस निम्न जाति के लोगों को यह संसार कुछ भी नहीं समझता तथा जिनके निकट भी कोई आना नहीं चाहता, वे भी भगवान के नाम के जप से समाज में सम्माननीय एवं पूज्य हो जाते है। सारी सृष्टि उनके चरण धोने के लिये तैयार रहती है।
नीच जाति में जन्मे ऐसे महात्माओं में नामदेव, रविदास आदि अनेक दलित सन्तों का उल्लेख है, जिन्हें भगवान ने अपना लिया। नामदेव शिम्पी (दर्जी) जाति में जन्मे थे, किन्तु उन्होंने भगवान से ऐसी प्रीति लगायी कि उन्होंने स्वयं इन्हें अपना लिया।
सन्त रविदास चर्मकार कुल में जन्मे थे। उनके पूर्वज मरे हुए जानवरों को ढ़ोते थे, किन्तु हरि से प्रीति के कारण ब्राह्मण भी उन्हें दण्डवत् प्रणाम करने लगे थे। गुरू रामदास जी ग्रन्थ साहिब में रविदास जी का यशोगान करते हुए लिखते है-
रविदास चमार अस्तुति करै, हरि कीरति निमिष इक गाई ।
पतित जाति उत्तम भया, चारि बरन पए पग आई ।।
सिख पन्थ जाति-पाति में विश्वास नहीं करता । गुरुनानकदेव जी ने दुर्वृत्तियों से नीच जाति का बहुत ही सुन्दर रूपक अलंकार के रूप में वर्णन किया है। वे कहते हैं कि कुबुद्धि डोमिन है, निर्दयता कसाइन है, पर निन्दा मेहतरानी और क्रोध चाण्डालिन है। इन चारों के रहने पर चौके की शुद्धि के लिये लकीर खींचने से क्या लाभ?
जो लोग सत्य, संयम तथा शुभ कर्माें को लकीर समझते है और दूसरों को पाप की शिक्षा नहीं देते वे ही परमात्मा के दरबार में उत्तम माने जाते हैं। गुरु ग्रन्थ साहब में ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य तथा शूद्र सबके लिये एक समान ही उपदेश है। वर्ण या जाति का विभाजन अनावश्यक है, व्यर्थ है। जो परमात्मा के नाम का जप करेगा, वह ही कलियुग में भव से पार होगा। कभी भी किसी की जाति या जन्म के विषय में नहीं पूछना चाहिए क्योंकि कर्म ही जाति-पाति का आधार है, जन्म नहीं ।
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सन्त तिरुप्पाण को अस्पृश्य (दलित) होते हुए भी आडवार सन्तों में सर्वश्रेष्ठ माना जाता है।
‘तिरुमालै’
के एक पद में गाया गया है कि हे भगवन्! नीच जाति में जन्म लेने पर भी आपका भक्त होने के कारण आपने अपने पास बुलाकर यह सिद्ध कर दिया कि नीच वह नहीं है जो नीच कुल में जन्मा हो अपितु वही नीच होता है जो आपका भक्त नहीं होता है, भले ही वह कितने ही उच्च कुल में क्यों न पैदा हुआ हो।
यद्यपि वर्तमान समय में अन्य आडवार सन्तों की भांति तिरुप्पाण की भी श्रींरंगम् आदि मन्दिरों में पूजा होती है । एक ऐसा भी समय था जब निम्न कुल का होने से उन्हें मन्दिर में प्रवेश की अनुमति नहीं थी। अपने अगाध प्रेम के बल पर तिरुप्पाण को यह अटूट विश्वास था कि एक दिन उन्हें अवश्य ही अपने आराध्य के दर्शन होंगे ।
तिरुप्पाण सर्वदा ही ध्यान मग्न रहा करते थे। वे ब्राह्ममुहुर्त में कावेरी में स्नान कर ध्यान में डूब जाते। एक बार श्री रंगम् मन्दिर के पुजारियों का एक दल कावेरी का जल लाने के लिये गया हुआ था। उन्हें मध्य मार्ग में तिरुप्पाण ध्यान मुद्रा में बैठे हुए मिले। सबने जोर-जोर से चिल्लाकर तिरुप्पाण को दूर हो जाने के लिये कहा। समाधिस्थ तिरुप्पाण जब मार्ग से नहीं हटे तो मन्दिर के मुख्य पुजारी लोक सारंग ने उनके सिर पर एक पत्थर दे मारा, जिससे उनके शिर से रक्त बहने लगा।
समाधि टूटने पर तिरुप्पाण को यह आभास हुआ कि उनके द्वारा मार्ग अवरुद्ध हो गया है। वे क्षमा-याचना करते हुए अलग होकर रंगनाथ जी का स्मरण करने लगे। तिरुप्पाण के सिर से रक्त का बहना देखकर लोक सारंग को अपनी भूल का आभास हुआ और उनका हृदय धिक्कारने लगा कि एक भक्त को पीड़ा देकर उन्होंने बहुत बड़ा अपराध किया है। जल भर कर जब वे मन्दिर पहुँचे तब भी उन्हें अपराध बोध सता रहा था।
लोक सारंग जी के हृदय में यह वाणी सुनायी पड़ी- लोक सारंग! तुमने एक भक्त का अपमान करके साक्षात् भगवान का ही अपमान किया है। तुम्हारे अपराध का प्रायश्चित् इसी में है कि तुम तिरुप्पाण को अपने
कन्धे पर बैठाकर मन्दिर में लाओ।
लोक सारंग बहुत अनुनय विनय कर तिरुप्पाण को अपने कन्धे पर बैठाकर मन्दिर में लाते हैं। तिरुप्पाण को भाव समाधि में नारायण के दर्शन होते हैं। भाव विह्वल होकर तिरुप्पाण अपना तन भी छोड़ देते हैं। अपने आराध्य को देख लेने के पश्चात् उन्हें अन्य किसी को देखने की इच्छा ही नहीं थीं।
यह कितने आश्चर्य की बात है कि मूर्ति पूजा करने वाले रुढ़िवादी लोगों को अपनी बनायी हुई जड़ मूर्ति में तो परमात्मा का अस्तित्व दिखायी पड़ता है किन्तु परमात्मा की बनायी हुई चेतन मूर्तियों में परमात्मा का अस्तित्व नहीं दिखता, तभी तो ध्यान में डूबे हुए एक भक्त के ऊपर पत्थर मारने में भी इन्हें संकोच नहीं होता। क्या इन्होंने
‘ईश्वरः सर्व भूतानां हृद्देशे अर्जुन तिष्ठति’
का कथन पढ़ा ही नहीं होता है या पढ़कर भी अन्जान बने रहते हैं? ऐसा लगता है कि जातीय अहंकार की खाई में ये इतनी गहराई तक गिर चुके होते हैं कि इन्हें केवल मानव तन का चमड़ा ही दिखायी देता है। ये बेचारे भला किसी के आत्मिक स्वरूप को कैसे देख सकते हैं ?
दलित कुल में उत्पन्न नन्दनार इस देश के पूज्यतम् सन्तों में अग्रणी हैं। महाकवि सुब्रह्मण्यम् भारती ने कहा है कि नन्दनार के समान कोई ऐसा ब्राह्मण नहीं है जिसमें इतने महान गुण विद्यमान हों।
नन्दनार का जन्म ऐसे अछूत पुलैया परिवार में हुआ था जिसके लिये मन्दिरों में प्रवेश एवं देव दर्शन निषिद्ध था किन्तु नन्दनार ने आसपास एवं दूरस्थ मन्दिरों में दर्शन कर धार्मिक समता के सिद्धान्त को मूर्त रूप दिया।
नन्दनार अपने गांव में एक वेदियार ब्राह्मण के अधीन बंधुआ मजदूर थे। वे अपना दैनिक श्रम पूरा करने के पश्चात् ईश्वर के भजन में लीन हो जाते थे। एक बार जब उन्होंने चिदम्बरम् स्थित नटराज मन्दिर का दर्शन करने हेतु अपने भू स्वामी से अनुमति मांगी तो उसने कड़ी फटकार लगायी कि तुम अछूत होकर नटराज के दर्शन की इच्छा क्यों करते हो? जब नन्दनार ने दूसरी बार आग्रह किया तो भूस्वामी ने एक असम्भव सी शर्त रख दी कि यदि नन्दनार एक दिन में 250 एकड़ खेत में धान की रोपाई कर देंगे तो वे जा सकते हैं। अपनी भक्ति, श्रद्धा एवं दृढ़ संकल्प के बल से नन्दनार ने जब यह कार्य पूर्ण कर लिया तो भूस्वामी ने इन्हें दिव्य-पुरुष मानकर क्षमा मांगी।
‘ईशावास्यम् इदं सर्वं यतकिंच् जगत्यां जगत्’
के उद्घोष को भूलकर भारतीय समाज पौराणिकता की आधी में इस प्रकार उड़ गया कि अणु-परमाणु में भी अपनी सत्ता से विद्यमान रहने वाले परमात्म देव को अपने हृदय मन्दिर में न खोज सका। वह पत्थरों के मन्दिरों में खोजता फिरा और जातीय आधार पर समाज के एक बहुत बड़े वर्ग को उस प्रक्रिया से भी वंचित करता रहा। राष्ट्र का भीषण पतन इसी समय से प्रारम्भ होता है।
सन्त चोखाराम दलित म्हार जाति में उत्पन्न हुए थे। नामदेव जी की संगति से चोखामेला का सम्पूर्ण परिवार ही श्री कृष्ण (विट्ठल) का अनन्य भक्त बन गया। समाज के अग्रगण्य वर्ग ने सदियों से दलित समाज को
धार्मिक अधिकारों से वंचित करके भीषण अपराध किया है किन्तु भगवान की प्रेम वर्षा तो चोखामेला जैसे सन्तों पर निरन्तर ही होती रही है।
चोखामेला प्रतिदिन भीमा नदी में स्नान कर मन्दिर की परिक्रमा करते और मन्दिर के मुख्य द्वार पर आकर साष्टांग प्रणाम करते थे किन्तु उन्हें मन्दिर के अन्दर आकर दर्शन नहीं करने दिया जाता था। एक बार चोखामेला जब मन्दिर के मुख्य द्वार पर ध्यान मग्न थे तो कुछ दुष्ट व्यक्तियों ने वहां आकर फटकार लगायी कि तुम्हारी विट्ठल भक्ति व्यर्थ है। तुम भक्ति के अधिकारी नहीं हो। तुम यहीं द्वार पर सिर पटकते-पटकते मर जाओगे किन्तु विट्ठल भगवान कभी भी तुम्हें दर्शन नहीं देंगे।
चोखामेला ने उत्तर दिया कि जिस प्रकार आकाश में सूर्य और चन्द्रमा दूर रहकर भी कमल और चकोर को आनन्दित करते हैं उसी प्रकार विट्ठल भी मेरी सुधि लेते रहते हैं, क्योंकि वे अनाथों के नाथ हैं, कृपा के सागर हैं।
चोखामेला की प्रेमा भक्ति दिन-प्रतिदिन पिरपक्व होती गयी और एक दिन ऐसा भी आया जब स्वयं पुजारी ने ही आग्रह कर उन्हें मन्दिर में ले जाकर आराध्य का दर्शन कराया। यद्यपि वे भाव शरीर से सर्वदा दर्शन करते ही थे। उन पुजारियों में से एक पुजारी ऐसा भी था जिसने उनकी भाव दशा को नहीं पहचान पाने के कारण चेहरे पर जोरदार चांटा भी लगा दिया था। तत्पश्चात् वह पश्चाताप की अग्नि में जलने लगा था और अपने अपराध के प्रायश्चित स्वरूप उसने क्षमा भी मांगी।
मैल धोने से साबुन कभी अपवित्र नहीं होता है। मन्दिरों के पण्डों-पुजारियों को इस परम सत्य का बोध होना चाहिये कि परमात्मा तो
‘सर्व भूतेषु गूढः’
है,
‘सर्व भूतान्तरात्मा’
है। जातीय आधार पर किसी को मन्दिर में आने से रोकना एक अक्षम्य अपराध है। भला इन कर्मकाण्डियों को वेद एवं उपनिषदों के कथनों से क्या लेना देना है? ये बेचारे तो वहीं करेंगे जो इनके पौराणिक गुरुओं ने सिखाया है।
आदि ग्रन्थ में संकलित एक पद में रविदास जी कहते हैं कि जिसके कुटुम्ब के लोग अब भी बनारस के आसपास मरे हुए पशुओं को ढोते है, उस रविदास को ब्राह्मण लोग भी श्रद्धा पूर्वक दण्डवत् प्रणाम करते हैं।
रविदास जी का स्पष्ट कथन है कि जिस दिन यह देश श्रम की महत्ता और जन्मना जाति के बदले गुण-कर्म पर आधारित वर्ण व्यवस्था को समझ लेगा उस दिन इस देश की अधिकांश जटिल समस्याओं का समाधान हो जायेगा।
रविदास जी कहते हैं कि जब एक ही प्रकाश से सारे संसार की सृष्टि हुई है तब ऊँच-नीच एवं ब्राह्मण-चर्मकार का भेद कैसे हो सकता है। ब्राह्मण तथा चाण्डाल में कोई भी भेद नहीं है क्योंकि सभी प्राणियों में एक ही ज्योति का निवास है। सर्वत्र एक ही परमात्मा की सत्ता विद्यमान है। सभी लोग जाति-पाति के बन्धनों में उलझे हुए हैं। जातीय भेदभाव का यह रोग मानवता का भक्षण कर रहा है। जन्म के आधार पर जाति व्यवस्था का त्यागकर कर्म के आधार पर वर्ण व्यवस्था होनी चाहिये। यहीं वेद का आदेश है। जन्म के कारण कोई भी नीच नहीं होता है। मनुष्य को नीच कर्म का कीचड़ ही नीच बनाता है। सुकर्म से नीच भी ऊँच हो जाता है और कुकर्म से ऊँच भी नीच बन जाता है। काम, क्रोध, लोभ तथा अहंकार का त्यागकर जो कर्म करते हैं, वे ही सच्चे ब्राह्मण हैं। जब तक जन्मना जाति व्यवस्था का अन्त नहीं होता तब तक मानवता का कल्याण भी नहीं हो सकता।
सन्त रविदास जी ने अपने विराट व्यक्तित्व से भारतीय संस्कृति के भव्य भाल पर ऐसा दिव्य लेख लिख दिया कि सदियों से चली आ रही जन्मना जातीय व्यवस्था की नींव डगमागने लगी और शास्त्रों में पारंगत विद्वान ब्राह्मण भी उन्हें दण्डवत् प्रणाम करने लगे। ऐसे वीतराग, सिद्ध महापुरुष के दर्शाये मार्ग पर चलकर सम्पूर्ण समाज प्रेम और शान्ति के दिव्य- संसार की अनुभूति कर सकता है।
भक्त शिरोमणि नाभादास जी का वास्तविक नाम नारायण दास था । ये जाति के डोम थे। ये जन्म के समय से अन्धे थे। पांच वर्ष की आयु में इनकी माता ने अकाल के कारण भोजन के अभाव में इनका परित्याग कर दिया था। वन में रोते-बिलखते असहाय बालक को महात्मा अग्रदास जी का साहचर्य मिला और उनकी कृपा दृष्टि से उनके नेत्रों की ज्योति भी वापस आ गयी।
सन्तों की सेवा तथा साधना भक्ति के कारण नाभादास जी को अलौकिक सिद्धियां प्राप्त हो गयी। अपने गुरुदेव के आदेशों से उन्होंने सन्त-भक्तों का जीवन चरित्र लिखा जो भक्तमाल के नाम से प्रसिद्ध है।
अध्यात्म वह सुधा है, जिसका रसास्वादन कर अन्धा भी दृष्टि पा जाता है। स्वयं को कभी भी असहाय या अनाथ नहीं समझना चाहिए, क्योंकि सर्वशक्तिमान, सकलगुण निधान, प्रेम और आनन्द के अनन्त सागर उस सच्चिदानन्द परब्रह्म की शक्ति ही तो इस सृष्टि के कण-कण में व्यापक हो रही है। आवश्यकता है केवल अपने हृदय को उस परम प्रियतम के प्रेम में डूबोने की।
उन्नीसवीं शताब्दी के उतरार्द्ध में केरल की सामाजिक एवं धार्मिक स्थिति इतनी भयंकर थी कि स्वामी विवेकानन्द जी ने केरल को पागल खाना तक कह डाला था। वहां छूतछात का ऐसा ताण्डव नृत्य हो रहा था कि प्रत्येक उच्च जाति अपने से हीन जाति से एक निर्धारित दूरी से ही अपवित्र होने लगती थी। कुछ निम्न जातियों को तो कुछ विशेष मार्गों पर चलने में भी प्रतिबन्ध था। निम्न जातियों के लोगों पर ऐसे भी प्रतिबन्ध थे, जो किसी सभ्य या बुद्धिजीवी समाज में कलंक रूप थे।
जातीय संकीर्णता के उन्माद से ग्रस्त केरल को उत्तम प्रदेश बनाने का सौभाग्य प्राप्त हुआ नारायण गुरू जी को, जिनका जन्म त्रिवेन्द्रम सेे 12 किमी दूर चम्पदन्ती नामक ग्राम में एक दलित (इढ़वा जाति के) किन्तु शिक्षित परिवार में हुआ था।
नारायण स्वामी का जन्म जिस इढ़वा जाति में हुआ था, वह अछूत मानी जाती थी। जातीय रुढ़िवादिता के पागलपन से ग्रस्त पुरोहित वर्ग ने दलित जातियों पर जो अमानवीय प्रतिबन्ध लगाया था, इढ़वा जाति इसकी भुक्त भोगी थी।
शिक्षक पिता मदन जी द्वारा प्रदत्त संस्कारों के बीच नारायण गुरु ने संस्कृत की उच्च शिक्षा प्राप्त की। उनमें ध्यान एवं वैराग्य की प्रवृत्ति वचपन से ही थी। चटाम्बी स्वामी ने उन्हें अध्यात्म के प्रति विशेष रूप से अग्रसर किया। तमिल योगी थैक्कत से उन्हें योग की अति उच्च शिक्षा मिली। वे कई वर्षों तक गुफाओं, तथा वनों में ध्यान साधना करते रहे। वे वन में कन्द-मूल तथा पत्तों का ही आहार लेते रहे। अवधूत के वेश में वे दीन-दुखियों की वस्ती में भ्रमण करते तथा उनमें घूलमिल जाते थे। लगभग 35 वर्ष की आयु तक वे एक सिद्ध पुरुष के रूप में प्रसिद्ध हो चुके थे।
नारायण स्वामी ने लगभग 30 नये मन्दिरों का निर्माण कर उसमें दलित पुजारियों की नियुक्ति की। इन पुजारियों के लिये वेद, शास्त्र, दर्शन, उपनिषद आदि की शिक्षा की भी व्यवस्था की गयी। दलितों को वेद, उपनिषद् आदि की शिक्षा दिलाकर उन्होंने सदियों की जड़ता को तोड़ दिया।
नारायण स्वामी ने बलि प्रथा, मांसाहार तथा मदिरापान का तीव्र
विरोध किया। जन्मना जाति व्यवस्था पर प्रहार करते हुए उन्होंने कहा कि जिस प्रकार सभी गायों की जाति एक है, उसी प्रकार सभी मनुष्यों की जाति एक है। पराशर एवं व्यास आदि महात्मा यदि हीन वर्ण में उत्पन्न होकर अध्यात्म के शिखर पर पहुँच सकते हैं तो जन्मना जाति के आधार पर घृणा की मनोवृत्ति क्यों पाली-पोषी जा रही है? किसी भी व्यक्ति की वेश-भूषा, रीति रिवाज, जाति आदि कुछ भी क्यों न हो उसके साथ सह भोज अथवा अन्तर जातीय विवाह में किसी भी प्रकार की आपत्ति नहीं होनी चाहिए।
दक्षिण भारत के दलितों के उत्थान में नारायण गुरु का स्थान सर्वोपरि है। वे एक महान कर्मयोगी, ज्ञानयोगी थे। उन्होंने एक ऐसे आन्दोलन का सूत्रपात किया, जिसमें हिन्दू धर्म की विलक्षण प्रतिभा समाहित है। वे अपने यशोरूप शरीर से युगों-युगों तक सबके मध्य शोभायमान होते रहेंगे।
यह मानव जीवन चार पदार्थों धर्म, अर्थ, काम तथा मोक्ष की प्राप्ति के लिये मिला है। किसी भवन की नींव जितनी ही दृढ़ होती है, उतनी ही दृढ़ता वाला मजबूत भवन खड़ा होता है। मानव जीवन का आध्यात्मिक महल ब्रह्मचर्य के बिना कैसे खड़ा हो सकता है।
अथर्ववेद के ब्रह्मचारी सूक्त में कहा गया है कि
‘ब्रह्मचर्येण तपसा देवा मृत्युम् उपाघ्नत्’
अर्थात् ब्रह्मचर्य रूप तप से देवताओं ने मृत्यु को जीत लिया। भगवान शिव कहते हैं कि संसार में ऐसा कोई भी कार्य नहीं है जो ब्रह्मचर्य की सिद्धि से प्राप्त न किया जा सके। अपनी इन्द्रियों को संयत रखकर ध्यान द्वारा ब्रह्म के स्वरूप में विचरण करने तथा ब्रह्म द्वारा प्रदत्त वैदिक ज्ञान को आत्मसात् करना ही ब्रह्मचर्य का पालन करना है।
इसी तथ्य को ध्यान में रखते हुए वैदिक ऋषियों ने मानव जीवन के प्रथम चतुर्थांश अर्थात् लगभग 25 वर्ष तक की आयु को ब्रह्मचर्य पूर्वक विद्या अध्ययन के लिये निश्चित किया है। विद्या से रहित व्यक्ति पशु समान ही होता है। ज्ञान से रहित कोई भी समाज अपना सामाजिक, धार्मिक तथा आर्थिक विकास नहीं कर सकता है।
ज्ञान एवं अध्यात्म के उच्चतम् सोपानों तक की यात्रा करने के इच्छुक 36 अथवा 48 वर्ष तक की ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए वेदाध्ययन कर सकते हैं। 25 वर्ष तक विद्या अध्ययन करने वाला व्यक्ति जब गृहस्थाश्रम में प्रवेश करता है तो लौकिक सुखों के उपभोग के लिये अर्थ (धन) को उत्पन्न करता है। वस्तुतः देखा जाय तो गृहस्थ आश्रम ही अन्य तीनों आश्रमों ब्रह्मचर्य, वानप्रस्थ तथा सन्यास का आधार है क्योंकि इन तीनों आश्रमों में रहने वालों को भोजन और वस्त्र आदि की उपलब्धि गृहस्थाश्रम से ही होती है।
50 वर्ष की आयु तक गृहस्थ जीवन व्यतीत करने के पश्चात् अगले 25 वर्ष तक का समय ध्यान-साधना द्वारा अपने आत्मिक बल को बढ़ाने
स्वाध्याय द्वारा ज्ञान की वृद्धि करने एवं संसार के कल्याण के लिये ज्ञान का प्रचार करने हेतु है। वानप्रस्थ जीवन के नियमों का पालन न करने के कारण ही वर्तमान समय में योग्य सन्यासियों का अभाव है। वर्तमान समय में लगभग 70 लाख सन्यासी हैं जिनमें शिक्षित और योगी सन्यासियों की संख्या सम्भवतः एक लाख से अधिक नहीं होगी।
जीवन के परमलक्ष्य ब्रह्म-साक्षात्कार तथा मोक्ष को प्राप्त करने के लिये सन्यास आश्रम का विधान है। पूर्ण ब्रह्मचर्य तथा वैराग्य से युक्त व्यक्ति ब्रह्मचर्याश्रम के पश्चात् सीधे सन्यास आश्रम में प्रवेश कर सकता है किन्तु लौकिक सुखों के उपभोग की इच्छा वाले व्यक्ति को गृहस्थ जीवन में प्रवेश करने के पश्चात् वानप्रस्थ व्यतीत करते हुए 75 वर्ष की आयु के पश्चात् सन्यास लेना चाहिये।
सन्यास आश्रम की महत्ता का आकलन मात्र इसी तथ्य पर किया जा सकता है कि कल्पना रूप में यदि यह मान लिया जाय कि यदि इस भारत भूमि पर गौतम बुद्ध, आदि शंकराचार्य तथा महर्षि दयानन्द सरस्वती का अवतरण नहीं होता तो हमारे देश का भविष्य क्या होता? आज देश की सामाजिक तथा धार्मिक दुर्दशा का मूल कारण है सन्यास आश्रम में
अपराधियांे, भोगी-विलासियों एवं अनपढ़ लोगों का प्रवेश। यदि रक्षक ही भक्षक बन जायेगा तो दुष्परिणाम की सहज ही कल्पना की जा सकती है।
यदि गुण, कर्म और स्वभाव के अनुसार वर्ण व्यवस्था हो तथा चारों आश्रमों में विचरण करते हुए परमात्म चिन्तन किया जाय तो धर्म, अर्थ, काम तथा मोक्ष की प्राप्ति बहुत ही सरलता से हो सकती हे। इस प्रकार सम्पूर्ण मानव जाति को एक आंगन में रखकर प्रेम, शान्ति एवं आनन्द के रस से सिंचित किया जा सकता है। यही है शुद्ध वैदिक
‘वर्णाश्रम’।
इति पूर्णम्