श्री प्राणनाथ ज्ञानपीठ || Shri Prannath Jyanpeeth

जागो! देशवासियों!रे !जागो!

उतिष्ठत्‌ जाग्रत प्राप्य वरान्निबोधतृ।

उठो, जागो और परम तत्व को प्राप्त करो। भले ही तुमने हजार वर्षों की दासता झेली हैए विदेशी आक्रान्ताओं के हाथों अपमान का घूंट पिया हैए किन्तु अपने अतीत के गौरव का स्मरण करो।

श्रृण्वन्तु विश्वे अमृतस्य पुत्रारू।

तुम अमृत पुत्र हो! तुम्हारी नाड़ियों में सृष्टि के महानतम्‌ मनीषियों यऋषिण्मुनियोंद्ध का रक्त प्रवाहित हो रहा है। तुम अपनी हीन-भावना को जड़-मूल से नष्ट कर दो।
रामण्कृष्ण की सन्तानों! तुम्हारा यह अधःपतन क्यों हुआ ? इस विषय पर तुम्हें गहन चिन्तन करना ही होगा। कभी तुम अध्यात्म के शिखर पर थे। ऐश्वर्य तुम्हारे चरणों का दास हुआ करता था। राज्यलक्ष्मी तुम्हारे पीछे-पीछे चला करती थी। सारा विश्व तुमसे ज्ञान प्राप्त करने के लिये तुम्हारा अनुचर हुआ करता था।

किन्तु आज तुम्हें हो क्या गया है ? तुम अपने को इतना दीन-हीन क्यों समझ रहे हो !धार्मिक, सामाजिक, राजनैतिक एवं आर्थिक दृष्टि से सर्वोपरि होने के लिये तुम्हारे अन्दर आत्मविश्वास पैदा क्यों नहीं हो रहा है ? तुम छोटी सी बात के लिये भी विदेशों से आशा क्‍यों करते हो ? क्या तुम्हारे चिन्तन में स्वाभिमान शब्द है ही नहीं ?

किसी भी राष्ट्र का गौरव उसकी आध्यात्मिक एवं सांस्कृतिक उन्नति में निहित है। सोने के महलों में नहीं। महमूद गजनवी ने १७ बार भारत को लूटा। उस समय देश में सोने के थम्भों वाला सोमनाथ का मन्दिर था। जिसकी लूट से उसे ४० मन भारी सोने की जंजीर के घंटे के अतिरिक्त मूर्ति से करोड़ों रुपयों के हीरे-जवाहरात प्राप्त हुए। यही स्थिति अन्य आक्रमणों की थी। नगरकोट के मन्दिर को ध्वंस करके उसने ६०० मन सोनेण्चांदी के बर्तन, ७४० मन सोना, २००० मन चांदीए और २० मन हीरे-जवाहरात प्राप्त किया।

किन्तु उस समय दुर्भाग्यवश देश में चाणक्य के स्तर का ऐसा कोई भी विद्वान नहीं थाए जो सभी राजाओं को एकत्रित कर अपने बुद्धिबल से राष्ट्र की रक्षा करता।

सबको यह याद रखना होगा कि चाणक्य और चन्द्रगुप्त दोनों ही तक्षशिला विश्वविद्यालय की देन हैं । सान्दीपनि के आश्रम में जहां योगेश्वर श्रीकृष्ण एवं बलराम जी की शिक्षा-दीक्षा हुई, वहीं ब्रह्मर्षि वशिष्ठ तथा विश्वामित्र जी के आश्रमों में राम-लक्ष्मण की शिक्षा। जब वेद-शास्त्रों की शिक्षा देने वाले गुरुकुल ही नहीं रहेंगे तो मनीषीजन कहां से पैदा होंगे ?

कुछ समय पूर्व सन्‌ २००१ में एक सम्मेलन हुआ था, जिसमे यह निर्णय लिया गया कि देश में संस्कृत को समाप्त कर देना चाहिये । यह समाचार इण्डियन एक्सप्रेस २००१ में प्रकाशित हुआ था।

इसी षडयन्त्र के आधार पर भारत के अनेक प्रान्तों से संस्कृत भाषा की शिक्षा पर रोक लगायी गयी । यहां तक कि
C.B.S.C
के पाठ्यक्रम से भी संस्कृत को हटा दिया गया । इग्नू (इन्दिरा गांधी नेशनल ओपन यूनिवर्सिटी) में भी संस्कृत के स्नातक का पाठ्यक्रम हटा दिया गया । देश में तेजी से अरबी, फारसी एवं उर्दू के विश्वविद्यालय खुलते गये हैं तथा भिन्न-भिन्न प्रान्तों की शिक्षण संस्थाओं में अंग्रेजी का साम्राज्य स्थापित करने के साथ-साथ फ्रेंच, जर्मन आदि भाषाओं की शिक्षा पर जोर दिया गया ।

माओवादी शासन में नेपाल में संस्कृत के अधिकतर ग्रन्थों को जला दिया गया था तथा संस्कृत की शिक्षा पर पूरी तरह से रोक लगा दी गयी थी। क्या कोई कुरान की एक भी प्रति को जलाने का साहस रखता है ?

यद्यपि सारा विश्व यह बात जानता है कि वैदिक संस्कृत से ही संसार की सभी भाषायें उत्पन्न हुई है और इससे अधिक प्राचीन भाषा अन्य कोई भी नहीं है। इसके अतिरिक्त सभी लोग यह मानते भी हैं कि देवनागरी लिपि से अधिक वैज्ञानिक लिपि भी कोई नहीं है फिर भी एक सुनियोजित षडयन्त्र के अनुसार सस्कृत भाषा एवं देवनागरी लिपि को मिटाने का वैश्विक स्तर पर प्रयास चल रहा है। जिस दिन संस्कृत भाषा एवं देवनागरी लिपि मिट जायेगी, उस दिन भारत, नेपाल आदि जैसे हिन्दू राष्ट्रों का अस्तित्व (सांस्कृतिक एवं आध्यात्मिक) पूर्ण रूप से समाप्त हो जायेगा।

संस्कृति राष्ट्र की आत्मा होती है और धर्मान्तरण का अर्थ राष्ट्रान्तरण होता है। वैदिक धर्म, संस्कृत भाषा और देवनागरी लिपि के ऊपर ही भारत, नेपाल आदि देशों का अस्तित्व टिका हुआ है, किन्तु दुःख के साथ कहना पड़ता है कि आज जो कुछ हो रहा है, उसका परिणाम सोचने के लिये किसी के पास समय ही नहीं है। क्‍या वर्तमान समय में हमें यह कहने का अधिकार है कि भगवान राम के पुत्र लव ने लाहौर नगर को बसाया था तथा सिन्धु की घाटी में आर्यों की महान सभ्यता का प्रसार था। क्या बांग्लादेश की धरती से पुनः जगदीश चन्द्र बसु जैसे नाम वाले विश्व प्रसिद्ध वैज्ञानिक का जन्म हो सकता है ?

आज से लगभग ५००० वर्ष पूर्व कुरुक्षेत्र के मैदान में योगेश्वर श्रीकृष्ण ने अर्जुन को गीता का अलौकिक ज्ञान दिया था। उन्होंने ब्राह्मी अवस्था में वेदों के गूढ़ रहस्यों को उजागर किया था। श्रीकृष्ण ने अर्जुन को सम्बोधित करते हुए कहा था
ईश्वरः सर्वभूतानां हद्देशे धर्जुन तिष्ठति

अर्थात्‌ हे अर्जुन! परमात्मा सभी प्राणियों के हृदयण्मन्दिर में विराजमान है।

किन्तु दुर्भाग्यवश आज का हिन्दू समाज योगेश्वर श्रीकृष्णजी के उस अनमोल उपदेश का महत्व समझने के लिये तैयार नहीं है। वह भगवान श्री कृष्ण के वचनों की अवहेलना करके गली-मुहल्लों या तीर्थस्थानों में ईंटों के मन्दिरों में परमात्मा को ढूंढने का निष्फल प्रयास कर रहा है। सोने-चांदी के सिंहासनों, कलशों तथा हीरे-मोती की सजावट के ऊपर प्रतिवर्ष अरबों रुपया निरर्थक व्यय होता है। अकेले तिरुपति मन्दिर में प्रतिवर्ष १२०० करोड़ तो शबरीमाला मन्दिर में ७०० करोड़ का चढ़ावा आता है। अन्य प्रमुख मन्दिरों वैष्णो देवी, बद्रीनाथ, काशी विश्वनाथ, सांई बाबा आदि का चढ़ावा जोड़ने पर कितनी राशि होगी, इसका अनमुन सहज ही लगाया जा सकता है।

किन्तु यह धनराशि हिन्दू समाज के कार्य में नहीं आ पाती, क्योंकि भारत सरकार ने देश के लगभग १ लाख से अधिक मन्दिरों का अधिग्रहण कर रखा है। मन्दिरों के पुजारियों तथा व्यवस्था आदि में थोड़ी सी राशि खर्च कर शेष सारा धन अल्पसंख्यकों के तुष्टीकरण (हज सब्सिड़ी आदि) में खर्च कर दिया जाता है।

मिट्टी की मूर्तियां बनाकर कुछ दिन (३,७ या १० दिन) पूजन करके पुनः नदी में बहा देने की परम्परा ने व्यवसायिक रूप ले लिया है। इस प्रक्रिया में गुजरातए महाराष्ट्र में गणेश जी की, बंगाल, असम, बिहार एवं उत्तर प्रदेश आदि प्रान्तों में दुर्गा लक्ष्मी तथा सरस्वती की पूजा में अरबों रूपयों की मूर्तियां बनाकर पूजा करने के पश्चात्‌ पुनः जल में प्रवाहित कर दी जाती है।

यदि यही धन वेदों तथा शास्त्रों की शिक्षा देने के लिये गुरूकुलों एवं विश्वविद्यालयों की स्थापना करने में लगाया जाता तो समस्त हिन्दू समाज अपने अतीत के स्वर्णिम गौरव को पुनः प्राप्त कर लेता।

मात्र तिरुपति मन्दिर एवं शबरीमाला मन्दिर के चढ़ावे (१६०० करोड़ रू) से १००-१०० करोड़ के १६ विश्वविद्यालय तथा २-२ करोड़ के नौ सौ करोड़ गुरुकुल प्रतिवर्ष स्थापित हो सकते हैं। भारत तथा नेपाल के सभी मन्दिरों के चढ़ावे तथा मिट्टी की मूर्तियों के पूजन की परम्परा के रोक से बचने वाले धन से कितने गुरुकुलों और विश्वविद्यालयों का निर्माण हो सकता है, यह सहज में ही सोचा जा सकता है।

अपने धर्म एवं संस्कृति की रक्षा के लिये हमें निम्नलिखित कदम उठाने होंगे -

१. मन्दिरों को जन जागृति का केन्द्र बनाया जाय। प्रत्येक मन्दिर में एक धार्मिक पुस्तकालय तथा ध्यान कक्ष का बनाना अनिवार्य किया जाय।

२. सरकार द्वारा मन्दिरों के अधिग्रहण को रोका जाय। हिन्दू जनता द्वारा चढ़ायी हुई धनराशि को गरीब वनवासियों के जीवन स्तर को ऊँचा करने धार्मिक शैक्षिक संस्थानों (गुरुकुलों एवं विश्वविद्यालयों) की स्थापना करने तथा स्वास्थ्य संरक्षण में खर्च किया जाय। इस अधिकार को प्राप्त करने के लिये उच्चतम्‌ न्यायालय में निवेदन करना होगा तथा समस्त जनमानस को इसके लिये जागरूक करना होगा।

३. मन्दिरों एवं तीर्थ स्थानों में चढ़ावे के ऊपर आश्रित रहने वाले पण्डों-पुजारियों को धार्मिक शिक्षा देकर उन्हें धार्मिक प्रवक्‍ता के रूप में तैयार किया जाय तथा चढ़ावे की आय से उन्हें मासिक मानदेय (दक्षिणा) दी जाय।

४. मन्दिरों के प्रांगण में मेलों का आयोजन न करके केवल धार्मिक कार्यक्रमों का ही आयोजन किया जायए जिसमें उच्चस्तरीय विद्वानों के धार्मिक व्याख्यान हुआ करें। ऐसे आयोजनों में मात्र धार्मिक ग्रन्थों एवं अन्य प्रचार साधनों
(C.D , D.V.D)
आदि का ही विक्रय हों।

५. भविष्य में राजमहलों में जैसे नये-नये मन्दिरों का निर्माण न किया जायए बल्कि उनके स्थान पर ज्ञान केन्धों की स्थापना की जाय, जिनमें पुस्तकालय, ध्यानकक्ष, प्रवचन कक्ष एवं औषधालय की व्यवस्था हो।

६. जन्मना वर्ण व्यस्था को समाप्त करके कर्म के आधार पर वर्ण व्यवस्था मानी जाय।

७. अन्तर्जातीय विवाहों को मान्यता दी जाय तथा दहेज लेने एवं देने दोनों पर ही रोक लगाई जाय।

८. फलित ज्योतिष के मिथ्या कथनों से समाज को बचाया जाय। मुहूर्त एवं ग्रहों के कोप का भय समाज से निकालना होगा। जनमानस को यह समझाना होगा कि किस प्रकार मुहूर्त के भरोसे रहने से सोमनाथ मन्दिर लूटा गया, राणा सांगां को बाबर से हारना पड़ा तथा बख्तियार खिलजी ने बिना खून बहाये सारे बंगाल पर अधिकार कर लिया।

९. नेपाल एवं भारत से अरब भेजे जाने वाली युवतियों के देह व्यापार और लव जेहाद पर कठोरतापूर्वक रोक लगायी जाय।

१०. प्रत्येक हिन्दू बालक-बालिका को सन्ध्या (ध्यान) करना सिखाया जाय। उसमें आत्मगौरव का भाव भरा जाना अति आवश्यक है। अपनी संस्कृति एवं धर्म के गौरव का बोध हुए बिना मात्र भौतिक प्रगति का कोई महत्व नहीं है।

मर्यादा पुरुषोत्तम राम का यह कथन सर्वदा याद रखें कि
जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी

अर्थात्‌ माता और मातृभूमि स्वर्ग से भी महान है।

पराभव की पीड़ा में सिसकती हुई हमारी संस्कृति मठों एवं आश्रमों में आराम करने वाले वानप्रस्थियों और सन्यासियों से पूछ रही है कि मेरा स्वर्णिम अतीत कब लौटेगा ? आप कब देश को जगायेंगे ? यही प्रश्न उन शिक्षित गृहस्थों से भी है, जो वानप्रस्थी न होकर अपने कर्तव्य की अवहेलना कर रहे हैं और अपने घर-परिवार को ही सर्वोपरि मान रहे हैं।

मात्र धन के पीछे पश्चिम की ओर भागने वाले युवको! अपनी अन्तरात्मा की भी आवाज सुनने का प्रयास करो। तुम्हारे अन्तःकरण में राम, कृष्ण और बुद्ध आदि मनीषियों का आदर्श विद्यमान होना चाहिए। अपनी हीन भावना को छोड़ो। सम्पूर्ण मानव जाति के लिये आध्यात्मिक तत्व ज्ञान का प्रसार करो । हमारा उद्घोष है -

सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामया।
सर्वे भद्गाणि पश्यन्तुए मा कश्चिद्‌ दुःख भाग्भवेता।।
कृण्वन्तो विश्वमार्यम्‌।

आशा है, आपको ये विचार अच्छे लगेंगे। कृपया इन विचारों को जन-जन तक फैलाने में सहयोग करें।
इति