श्री बीतक
महामति श्री लालदास जी द्वारा श्री बीतक ग्रन्थ की रचना की गई, जिसमें अक्षरातीत श्री प्राणनाथ जी द्वारा श्री देवचन्द्र जी (सम्वत् १६३८ से १७१२ तक), श्री मिहिरराज जी (सम्वत् १७१२ से १७५१ तक), तथा श्री छत्रसाल जी (सम्वत् १७५१ से १७५८ तक) के तन से की गई आवेशित ब्रह्मलीला का वर्णन है।
बीतक कोई मानवीय इतिहास नहीं है और न ही किसी भगवान, आचार्य, सन्त, या गुरु का अपने भक्तों या शिष्यों के साथ घटित होने वाला वृत्तान्त है। स्वलीला अद्वैत सच्चिदानन्द परब्रह्म का अपनी आवेश शक्ति द्वारा श्री महामति जी के धाम हृदय में विराजमान होकर उन्हें श्री प्राणनाथ जी के स्वरूप में अपने जैसा ही बना देने, एवं माया के अन्धकार में भटकती हुई आत्माओं को क्षर-अक्षर से परे परमधाम की अलौकिक राह दिखाने की दिव्य लीला का वर्णन ही बीतक है।
सृष्टि के प्रारम्भिक काल से ही कुछ ऐसे प्रश्न हैं, जिनका यथोचित उत्तर जानने का प्रयास प्रत्येक मनीषि करता रहा है। मैं कौन हूँ, कहाँ से आया हूँ, मृत्यु के पश्चात् मैं कहाँ जाऊँगा? परब्रह्म कौन है, कहाँ है, और कैसा है? यह सृष्टि क्यों बनी, कैसे बनी, तथा लय होने के पश्चात् इसका अस्तित्व कहाँ विलीन हो जायेगा?
यद्यपि तारतम वाणी में इन प्रश्नों का यथावत् समाधान है, किन्तु उस ज्ञान मञ्जूषा (पेटी) को खोलने की कुञ्जी (चाभी) बीतक है। इसमें विभिन्न घटनाक्रमों के माध्यम से ज्ञान के अनमोल मोतियों को बिखेरा गया है तथा वेद-कतेब के एकीकरण द्वारा समस्त विश्व को एक आँगन में लाने की एक मधुर झाँकी दर्शायी गयी है। इसका अनुशीलन करने वाला डिण्डिम घोष के साथ यह कह सकता है- कौन कहता है कि परब्रह्म का साक्षात्कार नहीं हो सकता? मुझे तो ब्रह्मात्माओं के पद्चिन्हों पर चलकर ऐसा लग रहा है कि परब्रह्म मेरी आत्मा के धाम हृदय में अखण्ड रूप से विराजमान हैं और उन्हें अपनी अन्तर्दृष्टि से कभी भी देखा जा सकता है।
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